पिछली बार विभाजन को लेकर तथ्यों के कुछ नए दरवाजे इश्तियाक अमहद ने खोले हैं और इतिहास के बहुत से ऐसे तथ्यों से हमें अवगत कराया जिनकी जानकारी हममें से बहुतों को नहीं रही होगी।
देश के विभाजन के साथ-साथ भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तेरह सौ सालों के बीच पनपे रिश्तों को लेकर भी नई जानकारियां मिलीं। बातचीत के इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए सत्य हिंदी पर इस बार मुसलिम उम्मा पर चर्चा हुई। चर्चा के सूत्रधार हैं पूर्व आईपीएस अधिकारी व साहित्यकार विभूति नारायण राय।
चर्चा में पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश इतिहासकार इश्तियाक अहमद, पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता जावेद आनंद और पसमांदा मुसलमानों के भाष्यकार फैयाज़ अहमद फैज़ी ने हिस्सा लिया। फैज़ी ने पहली कड़ी में पसमांदा मुसलमान का सवाल उठा कर विमर्श को नई दिशा दी। पहली कड़ी में ये आप पढ़ चुके हैं।
विभूति नारायण रायः आप जो कह रहे हैं तो इससे नई बहस शुरू हो जाएगी। इस पर हम फिर कभी बात करेंगे। क्योंकि यह सब जानना बड़ा दिलचस्प लग रहा था। इश्तियाक़ साहेब आप इन बातों पर कुछ टिप्पणी करना चाहेंगे कि जो बातें फैज़ी साहेब ने कही उन पर गंभीर चर्चा की जाए।
इश्तियाक़ अहमदः दोनों साथियों ने बहुत मुनासिब बातें कही हैं और फैज़ी साहेब ने तो इसे और विस्तार दिया है कि वाकई पसमांदा मुसलमानों के साथ अच्छा सलूक नहीं किया जाता है। देखिए जितने अरब देश है वहां पर पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, भारतीय और सोमिलायाई मुसलमान कई पीढ़ियों से रह रहे हैं। उनको नागरिकता कभी नहीं दी जाती। भेदभाव तो उम्मा के खिलाफ सबसे ज्यादा मुसलमान ही कर रहे हैं। तीन-चार साल में मुझे स्वीडन की नागरिकता मिल सकती है, मेरे बच्चे हैं वे चुनाव लड़ सकते हैं और स्वीडन के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं। क्योंकि उनकी पृषठभूमि को लेकर सवाल नहीं किया जाता, बस आपका स्वीडन का नागरिक होना काफी। दूसरे पश्चिमी देशों में भी इसी तरह का कानून है। तो वाकई उम्मा की बात दुनिया को दिखाने के लिए है कि हम एक बड़े कम्युनिटी हैं। यह एक नारे की तरह इस्तेमाल होता है।
अब पता चला कि भारतीय राजनीति में तो जो अशराफ हैं वे इसके जरिए शोषण करते हैं कि मुसलमानों का वोट उनके पास ही रहे। यह राजनीति सौ साल से चल रही है। इसी वजह से भारत का विभाजन भी हुआ। मैंने तो अपनी किताब में बात कही भी है कि अगर अविभाजित भारत के मुसलमान और इस्लाम वाकई खतरे में थे तो सवाल यह है कि सबसे ज्यादा कौन से मुसलमान खतरे में थे। जाहिर है कि वहीं होंगे जो हिंदू बहुल जिलों में रह जाएंगे। उनको तो छोड़ कर आपने पाकिस्तान बनाया, तो यह सब महज नारा ही है और कुछ नहीं। मैंने तो सुना भी नहीं था इसे। मिल्लत की बात होती थी।
मिल्लत-ए-इस्लामिया और दूसरी मिल्लतें, वह भी तुर्की भाषा का कोई लफ्ज था। यह उम्मा तभी आया है जब इस्लामिक रिवाइवल हुआ है या कथित जिहाद हुआ। लेकिन हकीकत वही है जो फैज़ी साहेब ने बताया कि अफगानिस्तान में हजारा का बुरा हाल है। अरबों में गैर अरब मुसलमानों का कोई मुकाम नहीं है और अरब एक-दूसरे से भी बहुत बुरा बर्ताव करते हैं। मिस्र और लीबिया की यूनियन पहले बनी और फिर टूट गई तो दोनों मुल्कों ने अपने-अपने यहां से मिस्र और लीबिया के लोगों को निकाल दिया। हालांकि झगड़ा तो नेताओं के बीच हुआ था लेकिन दोनों देशों ने एक-दूसरे के नागरिकों को धक्का देकर निकाल बाहर किया। तो उम्मा की अवधारणा सिर्फ एक राजनीतिक नारा है और यह मुसलमानों में फर्जी किस्म की एकजुटता को साबित करता है।
लेकिन जिन बातों का जिक्र जावेद भाई या फैज़ी साहेब ने किया है, हकीकत वही है। हालांकि यह भी सही है कि मुसलमानों पर कोई जुल्म होता है तब उनमें एकजुटता देखने को मिलती है जैसा कि भारत में पिछले तीन-चार सालों से देखने को मिल रहा है। तो उनमें फिर यह विचार पनपा, वैसे इसकी कोई हकीकत नहीं है। सियासी तौर पर इसकी कोई हकीकत नहीं है, कानूनी तौर पर इसकी कोई हकीकत नहीं है।
सऊदी अरब में जाकर मैं कहूं कि मुझे सब इंसानी अधिकार दें क्योंकि मैं उम्मा हूं तो वे मुझे फौरन वापस भेज देंगे। हालांकि अगर मैं स्वीडन चला जाऊं और कहूं कि मुझ पर जुल्म हो रहा है तो तकनीकी तौर पर मुझे बतौर रिफ्युजी देने पर उन्हें विचार करना पड़ेगा। तो आजकल उम्मा को लेकर जो बातें हो रही हैं वह बेतुकी हैं। आपने इस पर आज चर्चा करा कर बहुत अच्छा किया है क्योंकि हकीकत यही है कि कोई उम्मा नहीं है। उम्मा का अर्थ मुसलिम बिरादरी होता है लेकिन यह बिरादरी मुझे कहीं दिखाई नहीं देती है और वैसे भी गुलाम व मालिक कभी एक बिरादरी में शामिल नहीं हो सकते।
विभूति नारायण रायः हिंदुस्तान के मुसलमानों में तमाम इखतलाफ के बावजूद सब पर सामूहिक खतरा है। नाम लेने में किसी तरह का गुरेज नहीं, हिंदुत्व की जो ताकतें हैं वे सब एक हो रही हैं और इसके साथ ही अलग-अलग जगह के मुसलमान भी एक हो रहे हैं तो जावेद साहेब मेरे मन में एक संदेह यह है कि यह लड़ाई मुसलमानों की लड़ाई है, वे एक उम्मा की तरह लड़ेंगे या हिंदुस्तान के वे तमाम लोग जो लोकतांत्रिक तरीके से सोचते हैं, वे जो सेक्युलर हैं, जो इस मुल्क से प्यार करते हैं, ये लड़ाई सबके साथ मिल कर लड़ी जानी चाहिए। जैसे सीएए-एनआरसी है, मुसलमानों के लिए बड़ा खतरा है लेकिन इसका मुकाबला तो हम सबको मिल कर करना चाहिए। या फिर इस खतरे की आड़ में फिर कोई कट्टरपंथी ताकतें मजबूत हों जो गुजराती या मलियाली मुसलमान को उम्मा की याद दिलाए। आप क्या सोचते हैं एक एक्टिविस्ट के तौर पर।
जावेद आनंदः सैद्धांतिक तौर पर भी और प्रैक्टिकल तौर पर भी मुसलमानों को निशाना बना रहीं है हिंदू राष्ट्रवादी ताकतें और इसके खिलाफ मुसलमान सिर्फ मुसलिम प्लेटफार्म से नहीं लड़ सकता है। यह मुद्दा मानवाधिकार का मुद्दा है, यह मुद्दा अल्पसंख्यकों के अधिकार का मुद्दा है और यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के ह्युमन राइट्स के डिक्लेयरेशन से ताल्लुक रखता है, यह भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार से ताल्लुक रखता है, इसलिए इसे सिर्फ मुसलिम सवाल बनाना बहुत बड़ी मूर्खता होगी। सैद्धांतिक रूप से भी गलत है। अगर आप सिर्फ मुसलिम फ्रंट बना रहे हैं तो इससे फायदा उनका ही होगा जो आपको निशाना बना रहे हैं।
यह किसी भी मुल्क में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में रियलिटी वाली बात है। अगर आप आइडिनटिटी राजनीति करेंगे अल्पसंख्यक होकर तो बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण होगा। भारत में पिछले 30-40 साल से तो ऐसा ही हुआ। एनआरसी का मामला या भेदभाव के इसी तरह के मामले हैं या अंडर रिप्रजेंटेशन के मामले हैं, वहां सेकुलर पर्सपेक्टिव के साथ लड़ना जरूरी है। फैज़ी साहेब की बात का मैं शत प्रतिशत समर्थन करता हूं और उनकी बात में एक बात मैं जोड़ना चाहता हूं कि दलित मुसलमान दोनों तरफ से पिसा हुआ है। एक तरफ भारतीय संविधान, सेकुलर संविधान होते हुए, एक प्रेसेडेंशियल रेजुलेशन के जरिए दलित मुसलमानों को, ईसाई मुसलमानों के दलितों के आरक्षण से उन्हें बाहर रखा गया है, जो धार्मिक आधार पर भेदभाव है सेकुलर भारत में। इसकी जवाबदेही मुसलमानों पर नहीं है।
दूसरी तरफ मुसलिम आरक्षण की बात होती है बार-बार, तो मेरे जैसे बहुत सारे मुसलमान इसके खिलाफ हैं क्योंकि अगर मजहबी आधार पर आरक्षण मिलता है तो फिर इसका फायदा अशराफ को मिलेगा, दलितों और पसमांदा को कुछ नहीं मिलेगा। मुसलिम उम्मा की बात अशराफ ही करते हैं तो यह अशराफ की ही भाषा है।
विभूति नारायण रायः फैज़ी साहेब एक बार मैं जामिया मिल्लिया इस्लामिया गया तो मुझे वहां पता चला कि जो मुसलिम संस्थान हैं, वे आरक्षण लागू नहीं करते, एससी में तो मुसलमान और ईसाई नहीं हैं लेकिन ओबीसी में तो मुसलमान हैं लेकिन जामिया के मुसलिम ओबीसी छात्रों ने मुझे बताया कि हमें मुसलिम संस्थानों में तो ओबीसी आरक्षण का फायदा नहीं मिलता है जबकि गैर मायनोरिटी संस्थानों में हमें यह लाभ मिल जाता है। तो आपको क्या लगता है कि मुसलिम संस्थान ओबीसी लड़के-लड़कियों के साथ किसी तरह का भेदभाव करते हैं क्योंकि मुझे लगता है कि इन संस्थानों के संचालक ज्यादातर अशराफ ही होंगे।
फैयाज़ अहमद फैज़ीः बहुत ही महत्वपूर्ण बात आपने उठाई है। संविधान ने सामाजिक न्याय के तहत ओबीसी, एससी-एसटी को जो आरक्षण का प्रावधान दिया है वह अलीगढ़ मुसलिम युनिवर्सिटी में लागू नहीं है। देश के पसमांदा मुसलमान को एएमयू में दाखिला नहीं मिल सकता है लेकिन बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में वह आरक्षण का फायदा लेते हुए आसानी से दाखिला ले सकता है। यानी बीएचयू में तो पसमांदा मुसलमानों को दाखिला मिल जाता है लेकिन एएमयू में उसका दाखिला नही हो पाता है। इस तरह का भेदभाव एएमयू में साफ दिखाई देता है।
अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी प्रबंधन कमेटी की जो कोर्ट है उसमें करीब साढ़े तीन सौ लोग हैं और एक-दो को छोड़ दें तो सब अशराफ वर्ग के लोग हैं। आरटीआई के जरिए हमने आंकड़े भी निकलवाए थे छात्रों, टीचिंग और नान टीचिंग स्टाफ को लेकर तो पता चला कि 95 फीसद से ज्यादा अशराफ वर्ग से आने वाले हैं।
यहां तक कि वहां चपरासी भी अशराफ ही हैं। तो यह साफ दिखाई देता है कि भारतीय संविधान के तहत प्रदत सामाजिक न्याय की परिकल्पना एएमयू में बिल्कुल नहीं है और इसमें सबसे ज्यादा नुकसान 90 फीसद वाले पसमांदा मुसलमानों का हो रहा है। वह भेदभाव का शिकार है और न तो उसका दाखिला हो पाता है, न वह टीचिंग स्टाफ में बहाल होता है और न ही नान टीचिंग स्टाफ में, प्रबंधन समिति कोर्ट तो बहुत दूर की बात है।
दूसरी बात जहां तक आरक्षण की है तो यह साफ है कि ओबीसी और एसटी मुसलमान आरक्षण में आता है। मंडल कमीशन ने उसे ओबीसी में शामिल किया था। एक अजीब बात बता दूं, आपको भी हैरत होगी कि मंडल कमीशन में एक भी मुसलिम सदस्य नहीं था। मुसलिम सदस्य रहा होता तो जाहिर है कि जो परिपाटी चली आ रही है वह अशराफ से होता और तब बहुत मुश्किल होता कि मंडल कमीशन पसमांदा मुसलमानों को ओबीसी आरक्षण में डाल पाता। लेकिन ओबीसी व एसटी आरक्षण में पसमांदा मुसलमान आता है। चूंकि एससी पर धार्मिक पाबंदी है, आर्टिकिल 341 पैरा 3 के अंदर, इस वजह से वह वंचित है।
इसे लेकर जब आंदोलन हुआ तो अशराफ वर्ग के लोगों ने भी इसका समर्थन किया लेकिन उनकी नीयत ठीक नहीं थी। उन्होंने इसका समर्थन हिंदू-मुसलमान की बुनियाद पर किया। उनका कहना था कि संविधान की अनदेखी कर देश में मुसलमानों के साथ भेदभाव हो रहा है, इसे काउंटर करते हुए पसमांदा आंदोलन ने सवाल किया कि आप सबल वर्ग हैं, आपके पास सब कुछ है।
जब तक सरकार दलित मुसलमानों को आरक्षण नहीं देती है तो मुसलिम संस्थाओं में, एएमयू का जो कोर्ट है, वक्फ बोर्ड है, जमीयत उल उलेमा हिंद है, मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड या इस तरह की दूसरी संस्थाएं हैं जो अशराफ वर्ग चलाता है उनमें आप क्यों नहीं दलित मुसलमानों को हिस्सेदारी देते हैं तो इस सवाल का जवाब उनके पास नहीं था। यह भी बहुत महत्वपूर्ण बात है कि अशराफ एक तो मुसलिम समाज के जातिगत ढांचे को स्वीकार नहीं करता है और अगर कहीं दलित मुसलमानों के आरक्षण की बात उठाता है तो वह हिंदू-मुसलिम के आधार पर उठाता है, मुसलिम सांप्रदायिकता के तहत क्योंकि मुसलिम सांप्रदायिकता इससे मजबूत होगी। पसमांदा आंदोलन हमेशा मुसलिम सांप्रदायिकता के खिलाफ रहा है।
विभूति नारायण रायः इश्तियाक़ साहेब यह जो मुसलिम उम्मा वाला सवाल था, अभी आपने फलस्तीन में जो संकट हुआ हालांकि यह हर कुछ साल पर होता रहता है, लेकिन इस बार उम्मा ने बहुत ही आक्रामकता के साथ हस्तक्षेप किया। मैंने सुना कि पाकिस्तान की नेशनल असंबली में एक सदस्य चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे, बम किसलिए बनाया है, बम फेंक दो। हालांकि असंबली में बैठे दूसरे सदस्य भी इस पर मुस्कुरा रहे थे, तो क्या फलस्तीन का मुद्दा उम्मा का मुद्दा है या पूरी मानवता को इस पर सोचना चाहिए, जो ज्यादतियां हो रहीं हैं फलस्तीनियों के साथ, उनका साथ देकर इस मसले का कुछ हल निकाला जाना चाहिए।
इश्तियाक़ अहमदः फलस्तीनियों के साथ ज्यादती तो बिल्कुल हो रही है, इसमें कोई शक नहीं है। मुसलमानों का एक तरफ हो जाना भी समझ में आता है। यह उम्मा कह लें या एक मुसलिम युनिवर्सिलिज्म, कम्युनिटी का सेंस तो है ना। भले व्यवहारिक तौर पर वह उस तरह की बराबरी और न्याय का सृजन न भी करता हो लेकिन ईमान के एतबार से या एक ही यकीन के हवाले से तो था और है। लेकिन अब सारी दुनिया में आवाज उठाई जा रही है कि यह जुल्म है, ज्यादती है।
अगर इजराइल बन सकता है उस इलाके में और 1947 में संयुक्त राष्ट्र की जनरल असंबली का प्रस्ताव है, उसमें फलस्तीन का बंटवारा किया जाना था , इसके तहत 48 फीसद अरब और 52 फीसद यहूदियों के हिस्से में आता। हालांकि तब वहां पर यहूदी शरणार्थी 500 हजार थे, जबकि अरबों की तादाद 1।5 मीलियन थी। फिर भी इलाका ज्यादा इजराइल या यहूदियों को दिया। फिर उससे भी ज़्यादा यहूदियों ने कब्जा कर लिया। तो वहां खुल्लमखुल्ला ज्यादती हुई है अरबों के साथ, उनमें ईसाई भी हैं और मुसलमान भी। शायद कुछ यहूदी भी होंगे, जो अरब होंगे उस इलाके के। लेकिन ज्यादा तादाद मुसलमानों और ईसाइयों की है।
भारत में भी लोग फलस्तीनियों के हक में बोले हैं, आरएसएस और दक्षिणपंथी हिंदू इजराइल के पक्ष में बोल रहे हैं। यह एक अजीब ट्विस्ट है। पिछली बार मैंने आपसे कहा था कि 1938 में आरएसएस के प्रमुख रहे गुरु गोलवलकर ने कहा था कि जर्मनी में जो यहूदियों के साथ हो रहा है, वह भारत में एक सबक है। यह अलग बात है कि आज नेतनयाहू और नरेंद्र मोदी दोस्त हैं। तो यह राजनीति होती रहती है, लेकिन सारी दुनिया में, अमेरिकी, ग्रेट ब्रिटेन, स्वीडन में जो मानवाधिकार के पक्ष में हैं वे टू स्टेट सॉल्यूशन के हक में हैं कि कब्जे वाले इलाके में पूर्वी येरुशेलम और दूसरे हिस्सों को फलस्तीनियों को दे दें।
इसलिए यह सिर्फ मुसलमानों का मसला नहीं है और अगर उम्मा बना कर करें तो फिर बाकी दुनिया भी न समर्थन करे क्योंकि फिर तो हम्मास वाली बात हो गई कि वे इधर से रॉकेट दागते हैं और उधर से वे मिसाइल और बम चलाते हैं, इससे नुकसान मुसलमानों को होता है। मेरे ख़्याल से तो दोनों स्टेट का, दोनों लोगों का हक है इस इलाके के ऊपर। आप चाहें या न चाहें, इजराइल एक हकीकत तो है आज। पाकिस्तान भी तो ऐसे ही बना था।
अंग्रेजों ने जाते हुए हिंदुस्तान की तकसीम कर दी। खिलाफत-ए-उस्मानिया के खिलाफ अरबों ने बगावत की तो इसी के अंदर से जार्डन, इराक वजूद में आया तो अगर ये बन सकते हैं तो छोटा सा इज़राइल भी बन सकता है लेकिन शर्त यह है कि वह फलस्तीनियों के हकूक को भी मान ले। मैं इस तरह देखता हूं इंसाफ के हवाले से।
विभूति नारायण रायः चर्चा का अंत करते हुए तीनों लोगों से मैं एक कॉमन सवाल पूछना चाहता हूं - इश्तियाक साहेब 2021 में उम्मा की अवधारणा का या एक बड़े सपने की कोई प्रासंगिकता बाकी रह गई है या मुसलमानों को इस विचार को छोड़ कर आगे बढ़ना चाहिए।
इश्तियाक़ अहमदः देखिए अवधारणा का मतलब यह है कि मुसलिम कम्युनिटी जो मोहम्मद रसूलल्लाह को पैग़ंबर मानते हैं और अपने आप को मुसलमान कहते हैं तो यह एक हार्मलेस सा मसला है, जैसे ईसाई हैं, हिंदू हैं, सिख हैं, बौद्ध हैं तो फिर यह भी सही है। लेकिन अगर यह कोई सियासी अवधारणा है तो यह एक जाली, बोगस अवधारणा है क्योंकि व्यवहारिक तौर पर मुसलमान, मुसलमानों के साथ बुरा सलूक करते हैं। पश्चिमी समाज में नागरिकता मुसलमानों को जल्दी मिल जाती है, हकूक ज्यादा मिल जाते हैं लेकिन अरब देशों या दूसरे मुसलिम देशों में यह नजर नहीं आता।
ठीक है अफ़ग़ान जिहाद के दौरान बहुत सारे अफ़ग़ानियों ने पाकिस्तान में पनाह ले लिया तो इसे आप ऐक्ट ऑप सॉलिडेरिटरी भी कह सकते हैं, उसके लिए संयुक्त राष्ट्र से भी पैसे आ रहे थे तो इस तरह की चीजें भी सामने आई हैं सॉलिडेरिटरी वाली, पता नहीं कितने रोहंगिया को पाकिस्तान में जगह मिली, हालांकि शोर बहुत किया गया।
मुसलमानों की समस्या यह है कि उम्मा दूसरों पर आरोप लगाने के लिए बड़ा नारा है। लेकिन यह पूछा जाए कि यह आप पर लागू क्यों नहीं होता, पसमांदा मुसलमानों पर क्यों नहीं होता, गैरअरब जो अरब देशों में जाकर काम करते हैं उन पर क्यों नहीं लागू होता, उन्हें बराबरी के हकूक क्यों नहीं मिलते, उन्हें नागरिकता क्यों नहीं मिलती, वे अरब की लड़कियों से शादी क्यों नहीं कर सकते तो वहां पर तो साफतौर से नस्लीय भेदभाव है। तो इस अवधारणा को मानने की कोई जरूरत नहीं है, इसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन मुसलिम समाज तो दुनिया में है। नाम है, तरीके हैं, संस्कृति है, मसजिदें हैं तो इससे कैसे इनकार किया जा सकता है लेकिन जैसा कहा यह हार्मलेस अवधारणा है।
विभूति नारायण रायः तो आपको लगता है कि ओआईसी जैसे संगठनों की प्रासंगिकता भी खत्म हो गई है और इसकी कोई जरूरत नहीं है।
इश्तियाक़ अहमदः व्यावहारिक तौर पर तो यह खत्म ही है। वे क्या कर सकते हैं सिवा इसके कि एक प्रस्ताव पास कर देते हैं और प्रस्ताव उनके पास ही रह जाता है। मिसाल के तौर पर, मैं मानवाधिकार कई सालों से पढ़ा रहा हूं तो यूनिवर्सल डिक्लेयरशन ऑफ ह्युमन राइट्स के समानांतर ही है इस्लामिक डिक्लेरेशन ऑफ ह्युमन राइट्स। इसमें उन्होंने डिक्लेरेशन ऑफ ह्युमन राइट्स की बातों का हर जगह जिक्र किया है लेकिन साथ-साथ यह जोड़ दिया है उसके आगे कि इस्लाम या शरीया के कहे मुताबिक। इसे हम कहते हैं क्लॉबैक क्लाजेज। क्लॉ यानी पंजा, इसका मतलब यह है कि एक हाथ से आप देते हैं और दूसरे हाथ से छीन लेते हैं। अगर मैं मजहब की आजादी, सोच की आजादी, परिवार की आजादी की बात करता हूं तो फिर शरीया के हिसाब से तो यह जीरो हो जाता है। इस तरह की बातें इन्होंने बहुत तैयार की हुईं हैं लेकिन व्यवहारिक तौर पर उन पर कुछ भी काम नहीं होता। मेरे ख्याल से इसको ज्यादा सीरियसली लेना नहीं चाहिए।
विभूति नारायण रायः जावेद साहेब क्या ख्याल है आपका।
जावेद आनंदः इश्तियाक़ साहेब ने जो कहा उससे मैं काफी हद तक सहमत हूं, लेकिन इसमें सिर्फ उम्मा का सवाल नहीं है। इसमें भाषा का सवाल आता है, इसमें जातीयता का सवाल आता है, इसमें नेशन का सवाल आता है। एक भारतीय आस्ट्रेलिया जाता है और वहां कहीं भी राह चलते हुए कोई भारतीय मिल जाता है तो एक लगाव दोनों के अंदर स्वभाविक तौर पर नजर आता है। इसी तरह पश्चिमी देशों में एक हिंदुस्तानी और एक पाकिस्तानी मिल जाए तो इसी तरह का एक लगाव पैदा होता है। किसी बंगाली को अमेरिका या जर्मनी में बंगाली मिल जाए तो वह उसके प्रति स्वभाविक तौर पर आकर्षित होता है। इश्तियाक़ साहेब ने जैसा कहा कि यह सब हार्मलेस लगाव है और अगर इसे सकारात्मक लें तो यह बहुत ही रचनात्मक है। लेकिन अगर इससे हट कर कहा जाए कि मुसलमान सब एक हैं और दुनिया से अलग है, वह जो अवधारणा है कि रोहंगिया का सवाल है मुसलमानों का सवाल है, फलस्तीनियों का सवाल मुसलमानों का सवाल है, दक्षिण अफ्रीका में कालों का सवाल सिर्फ कालों का सवाल नहीं था वह पूरी दुनिया के मानवाधिकार मानने वालों का सवाल था।
ठीक इसी तरह रोहिंग्या और फलस्तीनियों का सवाल भी उसी तरह का है तो उम्मा की अवधारणा रहने दें एक जगह पर, जिस हार्मलेस कंसेप्ट की बात इश्तियाक़ साहेब ने की, मुझे इसमें हर्ज नजर नहीं आता कि भारतीय होने का अहसास किसी को हो, या दक्षिण एशिया से बाहर दक्षिण एशियाई होने का अहसास और एक-दूसरे से मिलते हैं या फिर भाषा को लेकर लगाव, कोई पंजाबी बोलता है, कोई बांग्ला बोलता है। दस हजार मील की दूरी पर कोई बांग्ला बोलने वाला लैटिन अमेरिका में मिल जाए और वह मुझसे बांग्ला में बात करे तो यह चीज स्वभाविक तौर पर हमें एक दूसरे से जोड़ेगी।
विभूति नारायण रायः फैज़ी साहेब आपने तो चर्चा में नई बातें रखीं हैं, इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी। इस पर आप क्या कहना चाहते हैं।
फैज़ीः मैं दो बातें कहना चाहूंगा। सैद्धांतिक रूप से उम्मा की जो अवधारणा है इसका खंडन करते हुए इस्लाम में एक और अवधारणा है, वह है अरबी और अजमी की । वर्गीकरण किया जा सकता है। लेकिन अजमी का अर्थ गूंगा होता है तो वर्गीकरण के लिए कितना खराब शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे अशराफ की मानसिकता का पता चलता है। हम भारतीयों को वे गूंगा कहते हैं। दूसरी बात यह कि सामाजिक न्याय का जहां तक सवाल है तो मुसलिम समाज में इसका सर्वथा अभाव है। सेकुलर तो मुसलमान आपको मिल जाएगा लेकिन सामाजिक न्याय मुसलिम समाज में आपको कहीं दिखाई नहीं देगा।
(समाप्त)
लिप्यांतरः फ़ज़ल इमाम मल्लिक।