कांग्रेस में सिर फुटव्वल, कब बोलेंगे सोनिया-राहुल?

02:38 pm Nov 19, 2020 | पवन उप्रेती - सत्य हिन्दी

कांग्रेस में जो कुछ चल रहा है, उससे लगता ही नहीं है कि यह इंदिरा गांधी जैसी सख़्त प्रशासक की विरासत वाली पार्टी है। इंदिरा ने 1969 में कांग्रेस में बग़ावत की बुलंद आवाज़ों और विभाजन के बाद फिर से पार्टी को अपने दम पर खड़ा किया था और दिखाया था कि अगर नेतृत्व में दम हो तो नेता-कार्यकर्ता पार्टी की नीतियों के हिसाब से ही चलते हैं। 

लेकिन आज की कांग्रेस में आप देख लीजिए, तमाम नेता एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खुलकर बयानबाज़ी कर रहे हैं और साफ दिखाई देता है कि उन्हें पार्टी के अनुशासन या किसी सख़्त कार्रवाई का कोई डर ही नहीं है। 

कांग्रेस को इंदिरा का वक़्त याद नहीं हो तो अपने सामने बीजेपी को देख ले। बीजेपी पिछले छह साल में किस तरह चली, इसे देखे। बीजेपी नेतृत्व ने कई राज्यों में मर्जी जिस व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया, उसके ख़िलाफ़ किसी तरह की आवाज़ नहीं सुनाई दी, जबकि उसके कुछ निर्णय उन राज्यों में ताक़तवर समुदाय के नेताओं के ख़िलाफ़ थे। 

उदाहरण के लिए झारखंड में गैर आदिवासी रघुबर दास, हरियाणा में गैर जाट मनोहर लाल खट्टर और महाराष्ट्र में गैर मराठा देवेंद्र फडणवीस। लोकसभा चुनाव के दौरान उसने जमकर टिकट काटे, दिल्ली नगर निगम के चुनाव में सारे सिटिंग पार्षदों के टिकट काट दिए, कुछ ही दिन पहले राष्ट्रीय संगठन में भी राम माधव जैसे वरिष्ठ नेताओं की छुट्टी की गई, उनसे राज्यों का प्रभार ले लिया गया लेकिन मीडिया में कोई असंतोष का स्वर आया हो, ऐसा नहीं दिखता। 

नेता-विधायक छोड़ रहे पार्टी

अब आप कांग्रेस में देखिए, एक तो नेताओं की बयानबाज़ियां नहीं थमतीं, दूसरा पार्टी छोड़कर जाने वालों की एक लंबी फेहरिस्त है और इसमें विदेश मंत्री रहे एसएम कृष्णा से लेकर दिग्गज नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह तक शामिल हैं। हालांकि इसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा का नाम दिया जा सकता है लेकिन पार्टी कई राज्यों में धड़ाधड़ उसका साथ छोड़ रहे विधायकों के मामले में भी असहाय है। इसमें प्रदेश अध्यक्ष से लेकर मुख्यमंत्री जैसे बड़े ओहदों पर रह चुके लोग भी शामिल हैं। 

यह सीधे तौर पर कांग्रेस नेतृत्व की लचरता को दिखाता है क्योंकि उत्तराखंड से लेकर गोवा और मणिपुर, महाराष्ट्र से लेकर गुजरात और मध्य प्रदेश तक विधायकों ने पार्टी का साथ छोड़ा है लेकिन नेतृत्व कभी भी प्रदेशों में पार्टी के विधायकों-नेताओं तक पहुंचने की गंभीर कोशिश करता नहीं दिखा।

बयानबाज़ी को लेकर तो पार्टी की फ़जीहत हो ही चुकी है और हो भी रही है। 23 वरिष्ठ नेताओं की लिखी चिट्ठी जैसे ही मीडिया में लीक हुई और इसमें नेतृत्व पर सवाल उठाए गए, नेताओं का आपसी झगड़ा चौराहे पर आ गया। इस झगड़े में बहुत सीनियर नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद से लेकर कपिल सिब्बल तक के ख़िलाफ़ बयान दिए गए लेकिन पार्टी नेतृत्व चुप रहा। 

सिब्बल ने इस बात को एक इंटरव्यू में कहा भी था कि उन लोगों पर हमले हुए, उन्हें विश्वासघाती कहा गया लेकिन नेतृत्व ने ख़ामोश रहा। 

ये साफ तौर पर पार्टी के बिखरने के लक्षण हैं। पार्टी पहले भी बिखर चुकी है लेकिन उस वक़्त वो मजबूत स्थिति में थी। चाहे 1969 या 1996 का वक़्त हो। पार्टी तब कई राज्यों में सत्ता में थी और सबसे बड़ी बात उसके सामने कोई दूसरी बड़ी राजनीतिक ताक़त नहीं थी।

आज कांग्रेस का मुक़ाबला उस बीजेपी से है, जो लगातार दो चुनावों में उसे धूल चटा चुकी है। जो पिछले छह साल में देश के लगभग सभी जिलों में ज़मीन ख़रीदकर वहां अपने स्थायी ऑफ़िस खड़े कर चुकी है। जो सोशल मीडिया की तिकड़मों में उससे कहीं आगे है और निश्चित रूप से लोकसभा, राज्यसभा और अधिकतर राज्यों में उससे बेहद ताक़तवर भी है। 

कांग्रेस के ताज़ा हाल पर देखिए चर्चा- 

संगठन के काम में जुटी बीजेपी

बीजेपी गतिशील है, उसके कार्यकर्ता चाहे वह प्रधानमंत्री के पद पर हों या राष्ट्रीय अध्यक्ष के, वे जमकर चुनावी रैलियां करते हैं और दिन-रात संगठन के काम में लगे रहते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसा विशाल संगठन तो उसके साथ है ही। यहां कांग्रेस को देखिए, वरिष्ठ नेता दिल्ली में बैठकर बयान ख़ूब जारी करेंगे लेकिन चुनावी राज्यों में झांकने तक नहीं जाते। 

संगठन क्या दिल्ली में या राज्यों की राजधानियों में बैठकर मजबूत होता है। संगठन को मजबूत करने के लिए सड़कों पर पैदल निकलना होता है, लोगों के लिए लड़ना होता है, मुक़दमे झेलने होते हैं, दिन-रात कार्यकर्ताओं के साथ खड़ा होना होता है, तब जाकर सत्ता सुख मिलता है।

उदाहरण के लिए बीजेपी नेताओं के बंगाल दौरों को देख लें। वहां सात महीने बाद चुनाव हैं लेकिन अमित शाह, जेपी नड्डा जैसे बड़े नेता लगातार दौरे कर रहे हैं और अपने नीचे कई नेताओं की ड्यूटियां भी राज्य में लगा दी हैं। 

विवाद थामने की कोई कोशिश नहीं

सवाल यही है कि आख़िर सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका ने, बिहार चुनाव के बाद कपिल सिब्बल के इंटरव्यू को लेकर हुए विवाद के बाद इन्होंने इसे थामने की कोशिश की हो, ऐसा नहीं दिखा। सिब्बल के बयान पर अशोक गहलोत भी बोले, तारिक़ अनवर से लेकर सलमान ख़ुर्शीद और अधीर रंजन चौधरी तक बोले लेकिन इनके ख़िलाफ़ कोई कमेंट आलाकमान की ओर से नहीं आया, जिससे ऐसे नेताओं में कोई डर पैदा हो और ये बयानबाज़ी थमने के बजाय बढ़ती जा रही है। 

ऐसा ही राजस्थान में गहलोत-पायलट की लड़ाई के दौरान हुआ। महीने भर के तमाशे के बाद राहुल और प्रियंका पायलट को मनाने पहुंचे। ये काम वे पहले कर लेते तो गहलोत पायलट को मीडिया के कैमरों के सामने नाकारा, निकम्मा कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। 

सिब्बल का एक और हमला 

अधीर रंजन चौधरी के यह कहने पर कि चुनावी राज्यों में तो सिब्बल दिखाई नहीं देते, एनडीटीवी ने सिब्बल के क़रीबियों के हवाले से कहा है कि वे 23 नेता जिन्होंने चिट्ठी लिखी थी, उनमें से अधिकतर को तो पार्टी के चुनाव प्रचारकों की लिस्ट में शामिल ही नहीं किया गया था और न ही उनसे पार्टी की ओर से चुनाव प्रचार में आने का अनुरोध किया गया। 

यह तर्क ठीक भी है क्योंकि इतने वरिष्ठ नेताओं को आप चुनाव प्रचारकों की लिस्ट से बाहर रखेंगे और फिर उनसे ये उम्मीद करेंगे कि वो ख़ुद ही प्रचार करने पहुंच जाएं, ऐसा राजनीति में नहीं होता ख़ासकर राष्ट्रीय दलों में तो बिलकुल नहीं। 

सिब्बल इस बात को कह चुके हैं कि पार्टी नेतृत्व उनसे बात नहीं करता, वे क्या कहना चाहते हैं इसे सुनने के लिए तैयार नहीं होता। लेकिन उनके मीडिया में इस बात को कहने के बाद भी पार्टी आलाकमान शायद ऐसे लोगों तक नहीं पहुंचा है। 

भारी पड़ेगी लापरवाही

नेतृत्व की यह लापरवाही इतने कठिन राजनीतिक माहौल के बीच उसके लिए बहुत भारी पड़ने वाली है। क्योंकि ग़िने-चुने राज्यों में सरकार चला रही पार्टी अब अधिकतर राज्यों में मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो चुकी है। सवाल यह है कि क्या आलाकमान पार्टी का और ज़्यादा पतन होते देखना चाहता है।