“नज़र नज़र से मिलाकर कलाम कर बैठा, ‘ग़ुलाम’ ‘शाह’ की नींदें हराम कर बैठा।” कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में विपक्ष के नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद की महासचिव पद से छुट्टी होनी तय थी। देर-सबेर उन्हें हटना ही था। उन्हें इस तरह हटाया जाएगा, ऐसे समय हटाया जाएगा, ये शायद किसी ने सोचा नहीं था। क्या वाक़ई ग़ुलाम नबी आज़ाद के तेवरों से कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की नींद हराम हो गई थी
क्या इसीलिए महासचिव पद से उनकी विदाई इस तरह कर दी गई कि लोगों को साफ़ लगे कि उन्हें सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने और राहुल गांधी को चुनौती देने की सज़ा दी गई है। उन्हें इस ग़ुस्ताख़ी के लिए सबक़ सिखाया गया है।
दरअसल, सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले 23 कांग्रेसी नेताओं में आज़ाद अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद मीडिया में खुलकर अपनी बात रखी।
आज़ाद के तीख़े बोल
आज़ाद ने पार्टी में संगठन के चुनाव कराने की मांग पुरज़ोर तरीक़े से दोहराई थी। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर पार्टी पचास साल तक विपक्ष में बैठना चाहती है तो फिर वो संगठन के चुनाव न कराए। उन्होंने राहुल का नाम लिए बग़ैर कहा था, ‘वो (राहुल) प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो शौक से बनें। कौन रोक रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री तो तब बनेंगे जब पार्टी मज़बूत होकर सत्ता में आएगी। अगर पार्टी सत्ता में ही नहीं आएगी तो प्रधानमंत्री कैसे बनेंगे।’
उनके इतना सब बोलने के बाद पार्टी में खलबली मच गई थी। पार्टी के कई नेताओं ने ‘ग़ुलाम’ को पार्टी से ‘आज़ाद’ करने तक की मांग तक की थी। इसे सोनिया और राहुल के ख़िलाफ़ सीधी बग़ावत माना गया। भले ही आज़ाद ने सोनिया और राहुल के नेतृत्व में बार-बार पूरा भरोसा जताया हो। लेकिन कांग्रेस ने बता भी दिया और जता भी दिया कि ऐसी ग़ुस्ताख़ियां न पहले कभी बर्दाश्त की गईं हैं और न अब की जाएंगी। आलाकमान को लगा होगा कि पार्टी अगर यह क़दम नहीं उठाती तो चिट्ठी लिखने वालों के हौसले बढ़ सकते थे। कुछ और नेता मुंह खोल सकते थे।
चार महासचिवों की विदाई
अंग्रेज़ी में एक कहावत है ‘निप इन द बड।’ हिंदी में इसका मतलब होता है शुरुआत में ही रोक देना। सोनिया गांधी ने राहुल के इशारे पर यह क़दम उठाकर कांग्रेस में संभावित बड़ी बग़ावत को रोकने की कोशिश की है। यूं तो चार महासचिवों को बाहर का रास्ता दिखाया गया है। 92 साल के हो चुके मोतीलाल वोरा की ये सक्रिय राजनीति से विदाई है।
78 साल के मल्लिकार्जुन खड़गे को भी बढ़ती उम्र का हवाला देकर आराम दिया गया है। 77 साल की अंबिका सोनी लगातार बीमारी के चलते पहले जैसी सक्रिय नहीं हैं। गोवा के मुख्यमंत्री रहे लुईजिन्हो फलेरियो को भी 69 साल की उम्र में महासचिव पद की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है।
यूपी में नाकाम रहे आज़ाद
कांग्रेस संगठन में अचानक किए गए इस फेरबदल में ग़ुलाम नबी आज़ाद को महासचिव पद से हटाने को लेकर सबसे ज़्यादा सवाल उठ रहे हैं। 71 साल के आज़ाद को साल 2016 के आख़िर में पार्टी ने महासचिव बनाकर उत्तर प्रदेश के प्रभारी की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। तब उन्होंने प्रियंका गांधी के साथ मिलकर यूपी में बेजान पड़ी कांग्रेस में फिर से जान फूंकने की भरसक कोशिश की लेकिन नाकाम रहे।
403 विधानसभा सीटों वाले राज्य में कांग्रेस 100 सीटों पर लड़कर महज़ 7 सीटें ही जीत सकी थी। तब आज़ाद यूपी में दूसरी बार नाकाम रहे थे। इससे पहले 2002 में पूरी ताकत लगाने के बावजूद वो कांग्रेस को 25 सीटें ही जितवा पाए थे।
ग़ौरतलब है कि आज़ाद कांग्रेस के अकेले ऐसे महासचिव रहे हैं जिनके नाम इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी के समय तक 20 राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनवाने या फिर सहयोगी दलों के साथ पार्टी को फिर से सत्ता में लाने का रिकॉर्ड है।
2002 में यूपी की कमान सौंपे जाने से पहले ग़ुलाम नबी आज़ाद केरल और तमिलनाडु में कमाल दिखा चुके थे। लेकिन यूपी में नाकामी के बाद उनके विरोधियों ने केंद्र की राजनीति से उनका पत्ता साफ़ करके उन्हें जम्मू-कश्मीर भिजवा दिया था। तब महासचिव पद से हटने के बाद प्रदेश अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए मन बनाने में आज़ाद को पूरे दो हफ्ते लगे थे।
आज़ाद ने उस प्रदेश की कमान संभाली, जहां कांग्रेस लुप्त प्राय पार्टी बन चुकी थी। तब पार्टी में कहा गया था कि आज़ाद को कभी दिल्ली नहीं लौटने के लिए जम्मू-कश्मीर भेजा गया है। लेकिन ऐसा कहने वाले ग़लत साबित हुए।
आज़ाद ने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन कर कांग्रेस की सत्ता में वापसी में कराई और खुद पार्टी की केंद्रीय राजनीति में धमाकेदार वापसी की। उसके बाद आज़ाद को आंध्र प्रदेश की कमान सौंपी गई। आज़ाद ने कई गुटों में बंटी कांग्रेस को एकजुट करके चंद्रबाबू नायडू के डिजिटल चक्रव्यूह को भेदा और बरसों बाद कांगेस को फिर से सत्ता में बैठाया।
यूपी का प्रभार छीना गया
2002 की तरह 2017 में भी यूपी में नाकाम रहने के बाद आज़ाद को दिल्ली छोड़कर फिर से जम्मू-कश्मीर भेजने की कोशिश हुई थी। लेकिन तब विरोधी कामयाब नहीं हो पाए थे। लेकिन उनसे 80 लोकसभा और 400 से ज़्यादा विधानसभा सीटों वाले देश के सबसे बड़े राज्य की ज़िम्मेदारी छीन कर 10 लोकसभा सीटों और 90 विधानसभा सीटों वाले हरियाणा जैसे छोटे राज्य की ज़िम्मेदारी दी गई। लेकिन हरियाणा में भी आज़ाद का जादू नहीं चला। उसके बाद पार्टी में यह धारणा बन गई कि पार्टी संगठन पर उनकी पकड़ ढीली पड़ गई है और उनमें जीतने वाली चुनावी रणनीति बनाने की क्षमता भी बाक़ी नहीं रही। इसी के बाद आज़ाद नज़रों से उतरने लगे थे।
इस मुद्दे पर देखिए, वरिष्ठ पत्रकार आलोक जोशी और राजेंद्र तिवारी की चर्चा।
आज़ाद ने मौक़े की नज़ाक़त को भांप लिया था। उन्होंने कई बार सोनिया और राहुल से खुद को महासचिव पद की ज़िम्मेदारी से आज़ाद करने की गुज़ारिश की थी। इसके लिए उन्होंने पार्टी की ‘एक व्यक्ति, एक पद’ वाली नीति का भी हवाला दिया था लेकिन तब उन्हें यह कहकर नहीं हटाया गया कि उनके अनुभवों की पार्टी संगठन को ज़रूरत है। लेकिन जब आज़ाद ने फुलटाइम अध्यक्ष और पार्टी संगठन के कामकाज के तौर-तरीक़ों में सुधार के लिए पार्टी में उठ रही आवाज़ से अपनी आवाज़ मिलाई तो उन्हें संगठन की ज़िम्मेदारियों से ही आज़ाद कर दिया गया।
सोनिया-राहुल का साफ संदेश
दरअसल, कांग्रेस संगठन में यह फेरबदल पार्टी में बतौर अध्यक्ष राहुल गांधी की फिर से ताजपोशी का रास्ता साफ़ करने के लिए किया गया। चिट्ठी लिखने वाले 23 नेताओं को सोनिया-राहुल ने बता दिया है कि कांग्रेस वैसे ही चलेगी जैसा वो चाहते हैं। राहुल के ख़ासमख़ास रणदीप सुरजेवाला को महासचिव बनाकर कर्नाटक जैसे बड़े और अहम राज्य की ज़िम्मेदारी दी गई है।
अजय माकन को महासचिव पद पर तरक़्क़ी देकर उनकी राजस्थान की ज़िम्मेदारी बरक़रार रखी गई है। दो साल बाद दिग्विजय सिंह की कार्यसमिति में वापसी हुई है। कभी सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर पार्टी छोड़ने वाले तारिक़ अनवर को भी घर वापसी के डेढ़ साल बाद महासचिव बनाकर केरल और लक्षद्वीप की ज़िम्मेदारी दी गई है।
कहने को तो कांग्रेस संगठन में यह बड़ा फेरबदल है। लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह सिर्फ़ ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ ही है। कोई बड़ा ऑपरेशन नहीं। दरअसल, इसके ज़रिए यह जताने की कोशिश की गई है कि जो सोनिया-राहुल की गुडलिस्ट में होगा उसे ही ज़िम्मेदारी दी जाएगी।
पार्टी का नया अध्यक्ष चुनने के लिए बनाई गई समिति में भी ग़ुलाम नबी आज़ाद को नहीं रखा गया है। इसका मतलब साफ़ है कि इस पूरी क़वायद का मक़सद ‘ग़ुलाम’ को ‘आज़ाद’ करके चिट्ठी लिखने वाले बाक़ी नेताओं को कड़ा संदेश देना है। इससे यह संदेश निकलता है कि फिलहाल कांग्रेस पार्टी संगठन में किसी बड़े बदलाव के लिए न तो तैयार है और न ही उसमें ऐसा करने की हिम्मत है।