इंदौर को देश के नागरिक और अप्रवासी भारतीय अलग-अलग शक्लों में जानते हैं पर मालवा का यह ख़ूबसूरत शहर अपनी धुरी पर एक-सा ही है, सिर्फ़ तस्वीरें अलग-अलग हैं। आज की दुनिया के ज़्यादातर लोगों के लिए इंदौर की पहचान भारत के सबसे स्वच्छ शहर के तौर पर स्थापित कर दी गई है। इंदौर को कुछ ज़्यादा क़रीब से जानने का दावा करने वालों के लिए शहर पोहा, जलेबी, कचोरी और स्वादिष्ट नमकीन-मिष्ठान का ठिकाना है। हक़ीक़त का इंदौर ऐसा नहीं है।
इंदौर से जुड़ी जिस कहानी को मैं जानता हूँ वह उस दौर की है जब होलकरों का बसाया हुआ यह शहर आज की तरह ‘स्वच्छ’ तो नहीं था पर तब बहुत ही ‘उज्जवल’ व्यक्तित्व की विभूतियों के कारण दुनिया भर में कहीं ज़्यादा मशहूर था। इंदौर की पहचान के ठिकाने तब खाने-पीने के अड्डे कम थे और वे मकान, गली-मोहल्ले, बस्तियाँ और सड़कें ज़्यादा थीं जिनसे निकलकर प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों ने दुनियाभर में अपनी शोहरत के डंके बजाए। वर्तमान में कुछ ऐसा हो गया है कि शहर से हस्तियाँ तो कम और नमकीन-मिठाइयाँ बाहर पहुँचकर ज़्यादा नाम कमा रही हैं। किसी ज़माने में शहर से निकली बड़ी-बड़ी हस्तियों के चाहे जितने नामों का मैं उल्लेख करना चाहूँ, कई नाम फिर भी छूट ही जाएँगे।
लता मंगेशकर, अमीर खाँ साहब, नारायण श्रीधर बेंद्रे, डी डी देवलालीकर, डी जे जोशी, एम एफ़ हुसैन, कर्नल सी के नायडू, महादेवी वर्मा, कैप्टन मुश्ताक़ अली, सी एस नायडू, मेजर जगदाले, विष्णु चिंचालकर, राहुल बारपुते, बाबा डिके, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, शरद जोशी, रमेश बक्षी, डॉक्टर एस के मुखर्जी, डॉक्टर नंदलाल बोर्डिया, डॉक्टर सी एस राणावत, नाना साहब तराणेकर, जे पी चौकसे और डॉक्टर वेदप्रताप वैदिक। इंदौर के साथ पास के शहर देवास को जोड़ लें तो कुमार गंधर्व और वसुंधरा कोमकली, उज्जैन को भी जोड़ लें तो पंडित सूर्यनारायण व्यास और डॉक्टर शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ और राजा भोज की नगरी धार को भी साथ ले ले लें तो शिल्पकार रघुनाथ कृष्ण फड़के। ये सब लोग अब नहीं हैं। गांधीवादियों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों सहित सैंकड़ो नाम छूट गए हैं। इंदौर यानी प्रतिभाओं की एक ऐसी रेलगाड़ी जिसमें कभी ख़त्म नहीं होने वाले अनंत डिब्बे हुआ करते थे।
इंदौर की गुल्लक धीरे-धीरे ख़ाली हो रही है। कुछ सिक्के जैसे कि गोकुलोत्सव जी महाराज और नरेंद्र सिंह तोमर या डॉ. वैदिक के कवि-मित्र सरोजकुमार अभी शहर के पास हैं। डॉक्टर वैदिक उस ख़ाली होती गुल्लक से लगातार निकलते रहने वाली आवाज़ थे। वे एक ऐसे खरे सिक्के थे जो दुनिया के चाहे जिस भी कोने में रहे, उनकी खनक इंदौर की गुल्लक से सुनाई देती रहती थी। वह खनक अब चुप हो गई है।
वे तमाम लोग जो डॉ. वैदिक को चाहते रहे हैं, कभी इंदौर की यात्रा करें तो स्वच्छता के मामले में हर साल ईनाम हासिल करने वाले शहर की तलाश मत कीजियेगा। अपने वाहन से उतर कर पैदल ही आर एन टी मार्ग के नाम से प्रसिद्ध लंबी-सी सड़क के उस एक छोटे से टुकड़े पर बसी किसी ज़माने की चाल या कच्चे-पक्के मकानों की क़तार के सामने खड़े हो जाइएगा जिसकी कभी पहचान समीरमलजी के बाड़े के रूप में हुआ करती थी।
दस-बारह फुट चौड़े और रेल के डिब्बे जैसे सत्तर-अस्सी फुट लंबे बिना फ़र्श वाले और टिन के पतरों से ढँके एक जैसे सारे घर। सड़क पर खड़े होकर देखें तो घरों के पिछवाड़ों तक का दर्शन। सभी घरों का पिछला हिस्सा खुलता था एक बड़े से सार्वजनिक क्षेत्र में। उस क्षेत्र के एक कोने में थे आधी ऊँचाई के टिन के दरवाजों वाले भारतीय पद्धति के कॉमन शौचालय— एक तरफ़ पुरुषों और दूसरी ओर महिलाओं के लिए। पानी बाहर से लेकर जाना पड़ता था। खुले क्षेत्र के बीच स्थित थे पीने का पानी बर्तनों में भर कर घरों में कर ले जाने के लिए दो कॉमन नल। एक पीपल का वृक्ष, शायद एक कुआँ भी।
कुछ और जोड़ना चाहें तो : गोबर से लिपी दीवारों को हरदम लांघती घरों के भीतर की दुख-सुख सारी बातचीत और लकड़ी-कोयले से सुलगते चूल्हों पर बनती सब्ज़ियों की ख़ुशबू। कुछ घरों में बिजली के एक-दो बल्ब बाक़ी में मिट्टी के तेल से घरों को रोशन करतीं चिमनियां और लालटेनें। बरसात के दिनों में टिन के पतरों की छतों के छेदों से रिसता हुआ पानी। ऐसे ही बीता था एक-दूसरे के पड़ौसी घरों में जन्म लेने वाले डॉक्टर वैदिक और हमारा बचपन। जब कभी बात होती वे देर-देर तक उस बाड़े के एक-एक व्यक्ति और चेहरे का स्मरण करके पूछते : याद है कि नहीं? उन गुम हो चुके बाड़े के लोगों में अब वैदिक का चेहरा भी शामिल हो गया है!
मुझे उस छोटे से जुलूस की आज भी याद है जब इन्हीं घरों से सड़कों पर उतरकर नज़दीक में किबे कंपाउंड स्थित आर्यसमाजी फोटोग्राफर ख़यालीराम जी के निवास के बाहर वैदिक मित्रों के साथ जमा हुए थे। तेरह साल के वैदिक हाथ में झंडा उठाए हुए थे और हिन्दी के आंदोलन में गिरफ़्तारी देने पंजाब रवाना हो रहे थे। हमारे बाड़े से कोई सौ-दो सौ गज़ की दूरी पर ही वह जगह थी जहाँ एम एफ़ हुसैन अपने प्रारंभिक दिनों में सिनेमा के पोस्टर पेंट करते थे। डेढ़-दो फ़र्लांग की दूरी पर कैप्टेन मुश्ताक़ अली का मकान था। वैदिक हम सब के कप्तान थे। फुटबॉल टीम के भी और उस ज़माने की एक मासिक पत्रिका ‘अग्रवाही’ के भी। वे मेरे पहले संपादक थे। दहेज और पर्दा प्रथा के विरोध को समर्पित थी वह मासिक पत्रिका। यह बात 1963-64 की है। साल 1965 में वैदिक दिल्ली के लिए रवाना हो गये थे।
कहानी का सार यह है कि तब एक छोटे से शहर और मध्यमवर्गीय बनिया व्यापारी परिवार से निकल सरकारी स्कूल और क्रिश्चियन कॉलेज से पढ़ाई समाप्त कर दिल्ली पहुँचने वाले डॉ. वैदिक ने बाराखंभा रोड स्थित सप्रू हाउस के अंग्रेज़ी आतंक वाले बौद्धिक संसार को हिन्दी में चुनौती दी और उनकी उस साहसपूर्ण लड़ाई में डॉक्टर लोहिया सहित उस ज़माने की तमाम राजनीतिक हस्तियों ने संसद में उनका साथ दिया।
असली डॉ. वैदिक वे नहीं थे जो दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के लाउंज, उसके लंच-डिनर हॉल, सार्वजनिक समारोहों या राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में बोलते नज़र आते थे। हाल के सालों में तो वे अपने बाहरी स्वरूपों से अलग भीतर के एकांत में ज़्यादा विचरण करने लगे थे।
फ़ोन पर बातचीत में कभी-कभी पीड़ा व्यक्त कर देते थे कि कुछ करना चाहिए, कोई बड़ा आंदोलन खड़ा करना चाहिए। पूछते थे : क्या किया जा सकता है? तुम क्यों नहीं कुछ करते? उन्हें शायद भीतर से कोई दर्द सताता था कि उनके द्वारा जो किया जा सकता था वे वह कर नहीं पा रहे हैं!
वे तमाम लोग जो डॉ. वैदिक के मित्र और शुभचिंतक रहे हैं उन्होंने शायद ही कभी महसूस किया हो कि इतनी अद्भुत प्रतिभा के धनी और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विषयों के ज्ञाता व्यक्ति की उपस्थिति का उपयोग किसी भी राजनीतिक सत्ता ने देश के भले के लिए क्यों नहीं किया? क्या सत्ता के शिखरों पर बैठे तमाम लोग डॉ. वैदिक की अपने बीच बौद्धिक उपस्थिति मात्र से भी ख़ौफ़ खाते थे? शायद ऐसा ही रहा हो! उनकी अंत्येष्टि और श्रद्धांजलि सभा में ऐसे बहुत सारे चेहरे लगभग अनुपस्थित थे जिनके साथ संबंधों का डॉ. वैदिक अपने आलेखों और निजी चर्चाओं में आत्मीयता के साथ उल्लेख किया करते थे। हाँ, उनके मित्र और चाहने वाले एक बड़ी संख्या में दोनों स्थानों पर सैंकड़ों की संख्या में मौजूद थे। विनम्र श्रद्धांजलि।