कई अर्थों में महादेवी वर्मा हिंदी की विलक्षण कवयित्री हैं। उनमें निराला की गीतिमयता मिलती है, प्रसाद की करुण दार्शनिकता और पंत की सुकुमारता- लेकिन इन सबके बावजूद वे अद्वितीय और अप्रतिम ढंग से महादेवी बनी रहती हैं। उनके गीतों से रोशनी फूटती है, संगीत झरता है। शब्द उनके यहाँ जैसे कांपते हुए फूल हो उठते हैं- लेकिन अपनी तरह की आँच और ऊष्मा से भरे हुए और अपनी कोमलता के साथ एक अनूठी दृढ़ता का संवहन करते हुए। उनके व्यक्तित्व की तरह ही उनकी कविता की शुभ्र चादर पर भी जैसे कोई धूल-धब्बा नहीं टिकता। लेकिन अगर वे सिर्फ़ छायावादी संस्कारों तक सिमटी कवयित्री होतीं तो पंत की तरह लगभग अप्रासंगिक सी हो चुकी होतीं या प्रसाद-निराला की तरह ऐसी दूरस्थ, जिनको प्रणाम किया जा सकता है, जिनसे प्रेरणा ली जा सकती है लेकिन जिनका अनुसरण नहीं किया जा सकता है।
अनुसरण महादेवी का भी संभव नहीं है। लेकिन महादेवी ने पीड़ा, करुणा और विद्रोह के मेल से जो एक कालातीत अनुभव रचा है, उसने उनको हिंदी की अब तक के समकालीन संवेदना-संसार में लगातार स्मरणीय बनाए रखा है। यह संयोग भर नहीं है कि हिंदी कविता का उल्लेख आज भी मीरा और महादेवी के साथ ही शुरू होता है। यही नहीं, हिंदी की कई पीढ़ियाँ महादेवी के दुखवाद में, उनकी करुणा में सिंच कर बड़ी हुई हैं। उनकी अपनी कविताओं में दुख और करुणा की जो छाया है, वह जैसे महादेवी की कविता की कोख से ही निकलती है। कविता में वे न जाने कितनी कवयित्रियों की, कितनी पीढ़ियों की, रोल मॉडल रहीं- अब तक हैं।
यह देखकर कुछ आश्चर्य सा होता है कि महादेवी वर्मा की जिन बहुत प्रौढ़ कविताओं को हम आज तक दुहराते रहते हैं, वे सब उन्होंने बहुत कम उम्र में लिख डाली थीं। 'नीहार' सिर्फ़ 22-23 साल की उम्र में आ चुका था, 'रश्मि' 25 साल की उम्र में, 'नीरजा' 27 साल में और 'दीपशिखा' 35 साल में। बाद के जीवन में उन्होंने ज़्यादातर गद्य लिखा। यह गद्य भी हिंदी साहित्य की अनमोल थाती है।
लेकिन फ़िलहाल उनकी कविताओं की बात। वह कौन सी चीज़ है जो महादेवी को हिंदी की विलक्षण कवयित्री बनाती है? हिंदी की पारंपरिक आलोचना बताती है कि उनकी कविताओं में जो दुख और करुणा है वह विरल है। लेकिन भारतीय स्त्री के जीवन में दुख या करुणा कोई नया या अनूठा भाव नहीं है। उस दुख से तो उसका पूरा जीवन बना और सना है।
अगर सिर्फ़ इस दुख का चित्रण होता तो महादेवी एक साझा अनुभव को रचने का काम करने से आगे नहीं जा पातीं। सच यह है कि दुख को महादेवी ने जिस तरह आँख मिलाकर देखा, जिस तरह उसे अपनी रचनात्मक शक्ति में परिवर्तित किया, वह इसे एक विलक्षण अनुभव में बदलता था।
वह पीड़ा के आगे जैसे अपनी पलकें झपकने नहीं देतीं। दीपक उनका सबसे प्रिय प्रतीक है। जलना, घुलना और फिर भी ऊष्मा देते रहना- यह जैसे उनका सबसे सहज स्वाभाविक बिंब है। यह बहुत सारी कविताओं में आया है। लेकिन कहीं यह दीपक कातर नहीं पड़ता है। उल्टे कवयित्री कहती हैं- 'दीप मेरे जल अचंचल घुल अकंपित। पथ न भूले, एक पग भी / घर न खोये, लघु विहग भी / स्निग्ध लौ की तूलिका से / आँक सबकी छाँह उज्ज्वल'।
दुख का, आत्मविसर्जन का, करुणा का- यह रचनात्मक इस्तेमाल महादेवी वर्मा को एक अलग ऊँचाई देता है। यह अनायास नहीं है कि उनकी कविता दुख और आँसुओं के बीच बनने के बावजूद जैसे लगातार झिलमिलाती रहती है- यह सिर्फ़ दीपक की उपस्थिति का प्रभाव नहीं है- उसमें एक पूरा पर्यावरण है जो कहीं 'लहराती आती मधु बयार' से बनता है तो कहीं श्वासों में झरते स्वप्न परागों से, कहीं उनमें मधुमास बोलता है, कहीं स्वप्न और सुरभि के संकेत मिलते हैं। कहीं उनमें अपने सारे दुखवाद, अपनी सारी करुणा के बावजूद उनकी कविता में एक अद्भुत चमक और स्पंदन है। यह दुख और करुणा की आकर्षक पैकेजिंग का मामला नहीं है- यह दुख और करुणा के पार जाकर जीवन को जीने योग्य बनाए रखने के उद्यम की परिणति है।
दरअसल, मीरा का मामला हो या महादेवी का- हिंदी आलोचना में एक रूढ़ दृष्टि इनको प्रेम की, त्याग की, करुणा की, दुख की कवयित्री मानती रही।
यह बात बहुत बाद में समझ में आई कि इन कविताओं में जितना दुख है, उससे ज़्यादा विद्रोह है और इन दोनों से कम उल्लास नहीं है। महादेवी में जितने आँसू हैं, उनसे ज़्यादा मोती हैं- 'पंथ रहने दो अपरिचित, प्राण रहने को अकेला। दुखव्रती निर्माण उन्मद / यह अमरता नापते पद / बांध देंगे अंक-संसृति / से तिमिर में स्वर्ण बेला / दूसरी होगी कहानी / शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी / आज जिस पर प्रलय विस्मित / मैं लगाती चल रही नित / मोतियों की हाट औ’ / चिनगारियों का एक मेला'।
महादेवी के यहाँ मोतियों की हाट और चिनगारियों का मेला सिर्फ़ यहीं नहीं है। एक अदम्य-अपूर्व जीवट- सीमांतों को अतिक्रमित करने का मानवीय साहस महादेवी की कविता का एक बहुत सुंदर पहलू है। उन जैसी कवयित्री ही लिख सकती हैं- 'फिर विकल हैं प्राण मेरे! / तोड़ दो यह क्षितिज, मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है। / जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है। / क्यों मुझे प्राचीर बन कर आज मेरे श्वास घेरे?'
यह महादेवी की अनूठी शक्ति है- दुख के सागर में तैर कर भी जैसे उसके पार जाने की क्षमता, ‘विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास, उमड़ी कल थी मिट आज चली, लिखने के बावजूद आकाश को इतने रंगों से सज़ा देने की गहन संवेदना कि वह एक विराट कविता हो जाए, मिट कर भी जीवन को सार्थक-समृद्ध कर जाने का उदात्त स्वप्न। यहाँ वे अपनी कविता में, अपनी दार्शनिकता में बुद्ध की भी याद दिलाती हैं और उन संतों की भी जिनके लिए त्याग का अपना एक अलग मोल रहा है। यह अनायास नहीं है कि छोटे-छोटे गीतों से बना उनका कविता संसार महाकाव्यों और खंड काव्यों जैसे विराट दिखने वाले उद्यमों के बावजूद और समानांतर अपनी अलग चमक के साथ न सिर्फ़ टिका हुआ है, बल्कि लगातार संबल का भी काम करता रहा है।
(प्रियदर्शन के फ़ेसबुक पेज से साभार।)