उत्तर प्रदेश की राजनीति में 1990 का दशक आमूल-चूल बदलाव का है। ये वही दिन हैं जब अगड़ा आधिपत्य वाले उत्तर प्रदेश में सवर्ण राजनीति का अंत हुआ। इसमें मुलायम सिंह यादव और कांशीराम को भुलाया नहीं जा सकता। हालाँकि मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक पारी पुरानी है और वे 1989 में प्रदेश के मुख्यमंत्री हो गए थे तथा 1977 में राम नरेश यादव सरकार में वे सहकारिता मंत्री भी रहे थे। लेकिन उनका यह उभार प्रदेश की सवर्ण जातियों के साथ ताल-मेल बिठा कर हुआ था। यहाँ तक कि प्रदेश के मुख्यमंत्री वे वीपी सिंह के जन मोर्चा और चंद्र शेखर की मदद से बने थे। इसके बाद मंडल राजनीति शुरू हुई और उत्तर प्रदेश तथा बिहार समेत कई राज्यों में मध्यवर्त्ती कही जाने वाली यादव-कुर्मी-लोध जातियाँ राजनीति में शिखर पर पहुँचीं। लेकिन दलित राजनीति में तब तक अपनी स्वतंत्र पैठ नहीं बना सके थे। यद्यपि नौकरशाही में आरक्षण के चलते वे सम्माजनक स्थिति में थे, किंतु यह सब कुछ पूर्व की कांग्रेसी सरकारों की अनुकंपा ही माना जाता था। अनुसूचित जाति को तब राजनीति में हरिजन बोलते थे, जो उन्हें अपमान जनक लगता था। लेकिन कांग्रेस में सवर्ण आधिपत्य के चलते वहाँ हरिजनों की स्थिति हक़ के साथ कुछ लेने की नहीं थी। उनका खाता-पीता वर्ग अपनी दोयम दर्जे की स्थिति से खिन्न था। नौकरियों में आरक्षण के बूते वे समृद्ध तो हुए, मगर समृद्धि के साथ जो आत्म-सम्मान चाहिए था, वह नहीं मिल रहा था।
कांशीराम ने जो दलित और पिछड़े सरकारी कर्मियों (मिडिल क्लास) को लेकर जो संगठन बामसेफ खड़ा किया था, उसका फ़ीडबैक था कि दलित पिछड़े हर तरह से सक्षम हैं। वे सत्ता तक पहुँच सकते हैं। किंतु प्रदेश में सरकार बना लेंगे, यह अकल्पनीय था। इसी बीच दो बातें हुईं। एक तो 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने पिछड़े वर्गों के लिए मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की घोषणा कर दी। इससे सवर्ण आधिपत्य वाली पार्टियाँ कांग्रेस और बीजेपी बैकफुट पर आ गए। कांग्रेस ने इसकी काट नहीं सोची लेकिन बीजेपी में गोविंदाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग और लाल कृष्ण आडवाणी के बूते एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ, जिसने पिछड़ी जातियों की अगुआई में हिंदुत्त्व की एक नई राजनीति शुरू की। इसे कमंडल आंदोलन कहा गया, इसके मूल में था अयोध्या में राम जन्मभूमि पर हिंदुओं का सर्वाधिकार। वहाँ तब एक मसजिद भी थी। जिसे 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाक़ी ने बनवाई थी।
हिंदू वहाँ पर रामजन्म भूमि का दावा कर रहे थे। यह एक ऐसा आंदोलन चला, जिसने पिछड़ों को बीजेपी के पक्ष में गोलबंद कर दिया। उधर हिंदुओं की अगड़ी जातियाँ भी बीजेपी के साथ आ गईं। बीजेपी उत्तर प्रदेश में लोध जाति के कल्याण सिंह की अगुआई में पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली। एक तरह से यह मुलायम सिंह यादव की राजनीति के पराभव का संकेत था।
लेकिन बीजेपी कोई उत्तर प्रदेश की लड़ाई नहीं लड़ रही थी। उसके निशाने पर केंद्र था। वह महसूस कर रही थी, कि कांग्रेस अब बैकफुट पर है, भले राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव की अगुआई में केंद्र में कांग्रेस की अल्पसंख्यक सरकार बनी हो किंतु कांग्रेस का कुनबा बिखर रहा था। इसलिए उसने मंदिर आंदोलन को परवान चढ़ाया और छह दिसंबर 1992 को अयोध्या की बाबरी मसजिद ढहा दी गई। उस समय उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी बीजेपी की सरकारें थीं। उन्हें अपदस्थ किया गया। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। इसी मौक़े पर उत्तर प्रदेश की राजनीति में आते हैं कांशीराम। वह मूल रूप से पंजाब से थे और दलित नौकरशाही के बीच उनका संगठन बामसेफ बहुत प्रभावशाली था।
कांशीराम ने आते ही उत्तर प्रदेश की राजनीति का नक़्शा ही बदल दिया। उन्होंने मुलायम सिंह यादव को अपने साथ किया और 1993 में सपा-बसपा गठबंधन हुआ।
केंद्र में चंद्रशेखर की सरकार के पतन के बाद मुलायम सिंह ने भी अपनी सरकार से इस्तीफ़ा दिया। इसके बाद उन्होंने अपना अलग दल बनाया, जिसका नाम समाजवादी पार्टी रखा। उधर कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) बनाई हुई थी। यह पार्टी सवर्ण जातियों के प्रति बेहद आक्रामक थी। उस समय उसका नारा- “तिलक, तराज़ू और तलवार, इनको मारो जूते चार!” बहुत चर्चित हुआ था।
इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी और कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। 1993 में उत्तर प्रदेश की 422 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इनमें बसपा और सपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। दोनों ने संयुक्त रूप से 420 सीटों पर अपने-अपने प्रत्याशी उतारे थे। दोनों दलों ने संयुक्त रूप से इन चुनावों में 176 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इनमें बसपा ने 164 प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें से 67 प्रत्याशी जीते थे। वहीं सपा ने इन चुनावों में अपने 256 प्रत्याशी उतारे थे। इनमें से 109 ने जीत हासिल की थी। मज़े की बात कि इस चुनाव में बीजेपी ने 177 सीटें हासिल कीं किंतु बीजेपी को रोकने के लिए अन्य दलों ने भी सपा-बसपा गठबंधन को सपोर्ट किया और मुलायम सिंह कांशीराम की मदद से दोबारा मुख्यमंत्री बने। लेकिन सपा और बसपा की यह खिचड़ी तब पकने लगी थी जब 1991 में मुलायम सिंह यादव ने इटावा लोकसभा चुनाव में कांशीराम को संसद पहुँचाया था। यह सीट तब सामान्य थी और उधर कांशीराम का संकल्प था कि वे सामान्य सीट से ही संसद में प्रवेश करेंगे। यह उनकी अप्रत्याशित जीत थी। पहली बार कोई अनुसूचित जाति का व्यक्ति सामान्य सीट से संसद पहुँचा था।
पंजाब के रोपड़ ज़िले में 15 मार्च 1934 को जन्मे कांशीराम ने अच्छी पढ़ाई की और पुणे की एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैबोरेटरी में वैज्ञानिक हुए। लेकिन वहीं उन्होंने पाया कि दलित कर्मचारियों के साथ भेदभाव होता है। जबकि महाराष्ट्र ही बाबासाहब भीम राव आम्बेडकर की कर्मभूमि रही। हालाँकि कांशीराम ख़ुद भी दलित थे। वह पंजाब के रामदासिया सिख परिवार से थे, जिन्हें दलित माना जाता है। पर चूँकि पंजाब में जातिवाद उतना प्रभावी नहीं है, इसलिए उन्हें अपनी पढ़ाई के दौरान इन सब बातों से रू-ब-रू नहीं होना पड़ा।
ऐसे राजनीति में आए...
दरअसल, पुणे की उस लैब में एक दलित कर्मचारी ने डॉ. आम्बेडकर के जन्मदिन पर छुट्टी माँगी, जो उसे नहीं दी गई। उसे अपमानित भी किया गया। तब कांशीराम ने डॉ. आम्बेडकर को पढ़ना शुरू किया। उनकी किताब Annihilation of caste पढ़ी और उन्हें तब महसूस हुआ कि भारतीय समाज में दलितों को किस तरह के उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ता है। इसके बाद 1964 में एक्टिविस्ट हो गए। यह वह दौर था, जब विधायिका में दलितों का प्रवेश सिर्फ़ आरक्षित सीटों के ज़रिए ही होता था। इसलिए कांशीराम ने पिछड़ी और दलित जाति के सरकारी कर्मियों का एक संगठन बामसेफ बनाया और धीरे-धीरे उसे इतना मज़बूत किया कि दलित राजनीति में अपनी सरकार बनाने का सपना देख़ सकें। 1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (DS-फ़ोर) बनाई और 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पर्टी, जिसके वे 18 दिसम्बर 2003 तक अध्यक्ष रहे। 1996 से 1998 तक वे पंजाब की होशियार पुर संसदीय सीट से भी लोकसभा के सदस्य रहे। नौ अक्टूबर 2006 को दिल्ली में उनका निधन हुआ। निधन के पूर्व वे मायावती को बसपा की कमान सौंप गए थे।
उनके बारे में कहा जाता है कि एक बार कांशीराम से किसी ने पूछा कि आप कैसा समाज चाहते हो? उन्होंने अपने फ़ाउंटेन पेन को पलटा और कहा, ऐसा। अर्थात् स्याही जिधर जा रही थी, उसके विपरीत।
यह एक संकेत था, कांग्रेस के परंपरागत हरिजन उद्धार कार्यक्रम को एकदम उलट देने का। उन्होंने कहा, हमारे हिसाब से अब हम दलितोद्धार कार्यक्रम नहीं चलाएँगे, बल्कि ऐसा समाज बनाएँगे, जिसमें दलित अन्य जातियों का उद्धार करने की स्थिति में आ जाए। यह एक क्रांतिकारी सोच था। इस सोच में दलित अनुकंपा पाने की स्थिति में नहीं होगा। वह देने की स्थिति में होगा। कांशीराम के पहले किसी भी समाज सुधारक के मन में ऐसी क्रांतिकारी धारणा नहीं पनपी। इसीलिए कांशीराम ने वह कर दिखाया जो उनके पहले के दलित उद्धारक नहीं कर पाए। किंतु इस स्थिति को पाने के लिए कांशीराम को बहुत जटिल परिस्थितियों से जूझना पड़ा और अपना सब कुछ इस यज्ञ में होम करना पड़ा।
कांशीराम अपनी शुरुआत से ही अनुसूचित जाति, जन जाति, अल्पसंख्यक समुदाय और पिछड़ी जाति के सरकारी कर्मचारियों और नौकरशाहों को एकजुट कर ऑम्बेडकर के सिद्धांतों के अनुरूप मज़बूत संगठन बनाना चाहते थे। इसीलिए वे पहले रिपब्लिकन पार्टी से भी जुड़े किंतु उसका कांग्रेस के प्रति सॉफ़्ट कॉर्नर देख कर उससे अलग हुए। उन्होंने कांग्रेस की हरिजन नीति से सदैव ख़फ़ा रहे। उनको लगता था कि कांग्रेस और दूसरी सवर्ण पार्टियाँ अनुसूचित जातियों को अनुकंपा पर रखना चाहती है। इसी से आहत होकर 1981 में उन्होंने “चमचा युग” नाम से एक पुस्तक लिखी, जिसमें बाबू जगजीवन राम और राम विलास पासवान जैसे दलित नेताओं को कैसे चापलूसी कर राजनीति में रहना पड़ा, इसका खुलासा था।
उनका संगठन बामसेफ कभी भी राजनीतिक संगठन नहीं हुआ न ही इसको वे राजनीति से जोड़ना चाहते थे। पर बाद में उन्हें लगा कि बिना संसद या विधानसभा में दाख़िल हुए वे अपने मक़सद में सफल नहीं हो सकते इसलिए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया।
और पहला चुनाव तत्कालीन मध्यप्रदेश की जांजगीर चम्पा सीट से लड़ा किंतु पार्टी सफल नहीं हुई। बसपा के गठन के बाद ही उन्होंने कहा था कि उनकी 'बहुजन समाज पार्टी' पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा चुनाव नज़र में आने के ले लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ेगी। 1988 में उन्होंने प्रधानमंत्री वीपी सिंह के ख़िलाफ़ इलाहाबाद सीट से चुनाव लड़ा और प्रभावशाली प्रदर्शन किया, लेकिन 70,000 वोटों से हार गए थे। किंतु अपनी हैसियत का अहसास उन्होंने करा दिया था। वह 1989 में पूर्वी दिल्ली (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से लोकसभा चुनाव लड़े और चौथे स्थान पर रहे। उन्हें सफलता 1991 में मिली जब उनका मुलायम सिंह के साथ गठबंधन हुआ। कांशीराम ने इटावा से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया। उन्होंने तब बीजेपी के प्रत्याशी को 20,000 मतों से हराया। 1996 में होशियारपुर से 11वीं लोकसभा का चुनाव जीता और दूसरी बार लोकसभा पहुंचे।
(हिंदुस्तान से साभार)