भारत के लगभग हर मीडिया आउट्लेट में चुनावी राजनीति की ही चर्चा है। कौन सी सरकार गिरने वाली है और कौन सी गिरते गिरते रह गई, कौन सा नेता कब पाला बदलेगा; इसे बताने के लिए राजनैतिक मौसम विज्ञानियों की कमी नहीं है।
लेकिन जलवायु परिवर्तन का मुद्दा जो कि मानवता के अस्तित्व के लिए ख़तरा बनता जा रहा है उस पर महीनों तक कोई बहस नहीं होती। इस मुद्दे पर बहस या ख़बर सिर्फ तब बनती है जब प्रकृति हजारों इंसानों को बिना किसी भेदभाव के लाशों की कतार में बदल देती है। 2013 में केदारनाथ, उत्तराखंड में घटी त्रासद घटना से लेकर हाल में हुई बादल फटने की घटनाओं में प्रकृति अपना रुख साफ कर चुकी है।
2022 के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में 180 देशों को शामिल किया गया था। इन 180 देशों में भारत को अंतिम अर्थात 180वां स्थान प्राप्त हुआ है। इस सूचकांक को प्रत्येक दो वर्षों में, येल विश्वविद्यालय, कोलम्बिया विश्वविद्यालय, विश्व आर्थिक मंच व यूरोपियन आयोग के सहयोग से जारी किया जाता है। तीन नीतिगत उद्देश्यों और 40 संकेतकों पर आधारित यह सूचकांक दुनिया का सबसे भरोसेमंद और प्रतिष्ठित पर्यावरण सूचकांक है।
2020 में आए इसी सूचकांक में भारत को 168वां स्थान मिला था। इससे पता चलता है कि पर्यावरण की गुणवत्ता को सुधारने के सरकारी वादे के उलट भारत इस सूचकांक में लगातार निम्नतम स्तरों को छू रहा है। मीडिया में पर्यावरण संबंधी मुद्दों को लेकर व्याप्त निरक्षरता इस मुद्दे को कभी भी प्रकाश में नहीं आने देती। और यह मुद्दा कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता।
ग्लासगो में हुए UNFCCC के COP-26 सम्मेलन में भारत की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘पंचामृत’ नाम का विजन पेश किया था। और यह प्रतिबद्धता जाहिर की थी कि भारत 2070 तक ग्रीन हाउस गैसों के ‘नेट ज़ीरो’ उत्सर्जन लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। लेकिन 2022 की पर्यावरण प्रदर्शन की रिपोर्ट वर्तमान प्रगति को, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपर्याप्त मानती है। रिपोर्ट में भारत को ‘डर्टी टू डजन’ देशों में शामिल किया गया है। इसका अर्थ है कि भारत 2050 तक उन 24 देशों में शामिल होगा जो दुनिया की 80% ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार होंगे। भारत की जलवायु नीतियों को दोष देते हुए रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के 30 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं और इसकी पूरी संभावना है कि भारत 2050 तक वैश्विक उत्सर्जन के 11% के लिए जिम्मेदार होगा। हमेशा की तरह भारत ने इस अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट को भी नकार दिया है। जबकि रिपोर्ट में शामिल संकेतकों में भारत का प्रदर्शन भारत के वर्तमान से साफ साफ मेल खाता है।
जैव विविधता (179वां), वायु गुणवत्ता (179वां), स्वच्छता व पेयजल (139वां), पर्यावरण में भारी धातुओं की उपस्थिति (174वां) और अपशिष्ट प्रबंधन में (151वां) भारत की स्थिति से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत की प्रगति कैसी है।
चेतावनियों और रिपोर्टों को नकार देने की प्रवृत्ति से जनता को धोखा दिया जा सकता है लेकिन जलवायु परिवर्तन को नहीं।
घटती हुई वायु गुणवत्ता और बढ़ते हुए प्रदूषित शहर, उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन को समझने के लिए सरकारी नीतियों की जन्मकुंडली है। नकारने की प्रवृत्ति भाग जाने और टाल देने की प्रवृत्ति है। साथ ही यह नेतृत्व विशेष की प्राथमिकताओं का भी प्रतिबिंब है।
5 डिग्री तक बढ़ सकता है तापमान!
अमेरिकी प्रशासन ने प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी विलियम निरेनबर्ग की अध्यक्षता में जलवायु परिवर्तन और कार्बन डाईऑक्साइड से संबंधित पनप रही चिंताओं को देखते हुए एक कमेटी बनाई। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट ‘चेंजिंग क्लाइमेट’ 1983 में दी। कमेटी की रिपोर्ट से साफ था कि जलवायु परिवर्तन अवश्यंभावी है। साथ ही इसने अनुमान लगाया कि यदि सब कुछ इसी तरह से चलता रहा तो 2065 तक CO2 की मात्रा दोगुनी हो जाएगी और 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 1.5 से 5 डिग्री तक बढ़ जाएगा (पूर्व औद्योगिक स्तर के सापेक्ष)। इस चेतावनी को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के प्रशासन ने गंभीरता से नहीं लिया और रीगन प्रशासन के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार जॉर्ज कीवर्थ ने रिपोर्ट की गंभीरता को नकारते हुए इसे ‘अनावश्यक रूप से भय उत्पन्न करने वाला’ बता डाला। आज इतिहास गवाह है कि जॉर्ज कीवर्थ न सिर्फ गलत थे बल्कि मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार होने के बावजूद घोर ‘अवैज्ञानिक’ भी थे।
‘मर्चेंट्स ऑफ डाऊट्स’ के लेखक नाओमी ऑरेसकीज और एरिक कॉनवे ने अपनी पुस्तक में इस बात का ज़िक्र किया है कि कैसे मुट्ठी भर अमेरिकी वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन की अवधारणा को ही धुंधला कर दिया था। लगभग यही काम फ़्रेडमन सिंगर ने किया जो निरेनबर्ग कमेटी के सदस्य थे। उन्होंने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और ‘अम्ल वर्षा’ (ऐसिड रेन) की घटनाओं को आपस में जोड़ने से इंकार कर दिया। उन्होंने विवाद पैदा करते हुए पूछा (जिसका उत्तर उनकी नजर में ‘न’ था) कि क्या ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को जिस सीमा तक कम किया जाएगा तो उसी सीमा तक ऐसिड रेन भी कम हो जाएगा? आज यह बिल्कुल साफ है कि सिंगर द्वारा उठाया गया प्रश्न अप्रासंगिक था क्योंकि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कमी करके ऐसिड रेन को कम किया जा सकता है। आज 40 सालों बाद जबकि जलवायु परिवर्तन एक सच्चाई साबित हो चुकी है तब भी सरकारों का उत्सर्जन और प्रदूषण जैसे मुद्दों को लेकर नकारने का दृष्टिकोण सरकार के भीतर किसी जॉर्ज कीवर्थ और फ़्रेडमन सिंगर के छिपे होने की कहानी बताता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस बात की पूरी संभावना है कि वर्ष 2100 तक पृथ्वी का तापमान इतना अधिक बढ़ जाएगा कि लोगों का ज़्यादातर जीवन घरों के अंदर ही बीतेगा। इस बात की पुष्टि करती हुई एक रिपोर्ट पृथ्वी मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 2020 में जारी की गई। भारत के लिए जलवायु परिवर्तन के मूल्यांकन के लिए इस पहली रिपोर्ट में कहा गया है कि 2100 तक भारत के औसत तापमान में 4.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। जबकि पेरिस समझौते में वैश्विक तापमान वृद्धि को 2.0 डिग्री सेल्सियस तक ही रखे जाने का लक्ष्य है। शोध से यह भी पता चलता है कि यदि पेरिस समझौते के सभी टारगेट पूरे भी कर लिए गए तब भी 2100 तक पृथ्वी के औसत तापमान को 3 डिग्री सेल्सियस के नीचे लाना संभव नहीं होगा। उस पर पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक की यह रिपोर्ट डराने वाली है कि, ज्यादातर देश पेरिस समझौते में तय किए गए लक्ष्यों की प्रतिबद्धताओं को भी पूरा करने की स्थिति में नहीं है।
जलवायु परिवर्तन हो रहा है और यह नागरिकों और राष्ट्रों से अपने आने की कीमत वसूल रहा है, यह एक सच्चाई बन चुकी है। एबेंस्टीन एवं अन्य, 2017, के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण रोगों की संख्या में वृद्धि हो गई है और जीवन-काल कम हो गया है। जीवन प्रत्याशा पर खराब वायु गुणवत्ता का प्रभाव धूम्रपान, शराब, मलेरिया, अस्वच्छता या एचआईवी से अधिक है। अलग अलग शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के ऐसे प्रभावों की ओर ध्यान दिलाया है जिनसे सचेत होने की जरूरत है। बर्नी और रामनाथन, 2014 के अनुसार जलवायु परिवर्तन देश के एक बड़े हिस्से में कम फसल पैदावार के लिए जिम्मेदार है। तो भारद्वाज एवं अन्य, 2017 का मानना है कि पर्यावरण में हो रही लगातार क्षति छात्रों के शैक्षिक परिणामों पर भी प्रभाव डाल रही है।
जलवायु परिवर्तन से संबंधित कारणों से उत्पन्न आकाशीय बिजली के गिरने से 2021 में लगभग 1700 भारतीयों की मौत हो गई थी। 2021 में हुई इन मौतों की संख्या 2020 की तुलना में 34% अधिक थी।
2021 में महाराष्ट्र के रायगढ़, रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग समेत 6 ऐसे जिले थे जहां बारिश की मात्रा में पिछले वर्ष की तुलना में 600 से 900% तक की वृद्धि हुई थी। 2017 में प्रतिष्ठित जर्नल, नेचर, में छपे एक शोध के अनुसार, 1950-2015 के बीच जब पूरे भारत में मानसून कमजोर पड़ रहा था तब इसी दौरान मध्य भारत में ‘अत्यधिक वर्षा’ की घटनाओं में 300% की वृद्धि हो गई।
EPI सूचकांक 2022, जिसका भारत ने विरोध किया है और जोकि जैव विविधता से संबंधित है, में भारत की रैंक 179वीं है। यह उतनी अमान्य नहीं की जानी चाहिए जबकि नासा के द्वारा किए गए एक सैटेलाइट अध्ययन में पाया गया है जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते निकोबार द्वीप समूह में स्थित कटचल आइलैंड के 90% मैंग्रोव वन नष्ट हो गए हैं। सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनवायरनमेंट 2021, के द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत में जैव विविधता हॉटस्पॉट के तहत आने वाला 90% से अधिक क्षेत्र नष्ट हो गया है। साफ है कि जैवविविधता नष्ट हो रही है। जैवविविधता पर्यावरण की रीढ़ है और मैंग्रोव जैवविविधता की रीढ़ है।
किसी समस्या को सुलझाने की शुरुआत स्वीकारोक्ति से हो सकती है। यह सच है कि भारत पेरिस समझौते के अपने लक्ष्यों की तरफ ठीक तरीके से बढ़ रहा है। यह भी सच है कि भारत उत्सर्जन तीव्रता को 45% कम करने (2005 के सापेक्ष) और 50% ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए गैर-जीवाश्म श्रोतों की अपनी नई प्रतिबद्धताओं को 2030 तक शायद पूरी कर लेगा। लेकिन मानवता के पतन की ओर तेजी से बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन नामक दानव से निपटने के लिए और अपने देशवासियों को इससे सुरक्षित रखने के लिए सिर्फ़ यही पर्याप्त नहीं है। पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान अपने साथ ढेरों नवीन और असहनीय बीमारियों को जन्म देगा, क्या इसके लिए स्वास्थ्य अवसंरचना पर ध्यान दिया जा रहा है? एक दिन यह तापमान कृषि उपज को उस स्तर पर ले आएगा जब सिर्फ एक खास वर्ग ही संतुलित आहार ले पाएगा। जलवायु परिवर्तन के लिए सभी के लिए भविष्य की खाद्य सुरक्षा हेतु सरकार के पास क्या विजन है? भीषण गर्मी से लड़ने के लिए उच्च स्केल पर वहनीय ऊर्जा की आवश्यकता होगी, इतनी बड़ी जनसंख्या को कैसे जलवायु परिवर्तन वहनीय आवास व ऊर्जा की आपूर्ति होगी? क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता है तो वर्ष 2100 तक भारत में हर साल 15 लाख से अधिक लोग गर्मी के प्रभाव से मर सकते हैं (ग्रीनस्टोन और जीना 2019)।
क्या पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक को जारी करने वाली संस्थाओं की भारत से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है, या उनका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से लड़ने की बजाय भारत से लड़ना है, ऐसी सोच नकारात्मक और हानिकारक है।
परेशानी भारत की अपनी व्यवस्था में है जिसके लिए किसी अन्य संस्था को दोष देने की आवश्यकता नहीं। भारत की पर्यावरण नियामक एजेंसियाँ स्टाफ की कमी से पंगु हो रही हैं। भारत के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में लंबे समय से कर्मचारियों की कमी है और उन्हें बोर्ड की व्यवस्था को चलाने के लिए फंड भी पर्याप्त नहीं मिलता है (ग्रीनस्टोन एवं अन्य 2017)। क्या इसके लिए सरकार को स्वयं पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए?
प्रतीकात्मक तसवीर।
वास्तविकता तो यह है कि देश में जलवायु परिवर्तन को अब राष्ट्रीय मुद्दा बनना चाहिए। देश का अगला प्रधानमंत्री वह नहीं हो जो मुफ़्त बिजली बांटे या समुदायों के नाम पर देश को बांटे बल्कि एक ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है जो जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए अगले 50 वर्ष के भारत की संकल्पना को देश के सामने रखे। यह सच है कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा है लेकिन जिस तरह अलग-अलग देश अलग-अलग राह पर हैं उससे नहीं लगता कि वो कभी मिलकर प्रतिबद्धता से वो काम करेंगे जिससे सदी के अंत तक तापमान की वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सके। ऐसे में गरीब देशों के नागरिकों की हालत जलवायु परिवर्तन से वैसी ही होगी जैसी आज अफ्रीकी देशों की भूख और बीमारी से है। यह एक कड़वा सच है कि जलवायु परिवर्तन की तैयारी देशों को अलग अलग ही करनी पड़ेगी, कोई भी विकसित राष्ट्र अपने नागरिकों की कीमत पर विकासशील देशों को धन व सुविधाएं मुहैया नहीं करवाएगा। 2015, पेरिस समझौते में विकसित देशों द्वारा प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर की प्रतिबद्धता के बावजूद लगातार आनाकानी इसी का एक प्रोटोटाइप है। विधायक, सांसदों और पार्टियों के बेचने, बिकने, खरीदने और मिलने मिलाने के कार्यक्रम को तेजी से खत्म करके इस नई समस्या जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए देश को तैयार होना होगा और मीडिया को भी इस दिशा में जागरूकता और बहसों का सिलसिला शुरू करना होगा।