हर राज्य की तरह असम के शिक्षक संगठन आंदोलन के मूड में हैं। अस्थायी शिक्षकों, शिक्षामित्रों की स्थायीकरण, वेतनमान की मांग से जुड़ी परेशानियाँ तो हर राज्य में हैं लेकिन असम में एक नई स्थिति आ गई है। जल्दबाजी में और बड़े फ़ैसले लेने के अभ्यस्त मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने राज्य के सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के 8000 स्थायी शिक्षकों के पद समाप्त करने की घोषणा की है। उनका कहना है कि सरकार की प्राथमिक शिक्षा मिशन को चलाने और उसमें तैनात ठेके के 11000 शिक्षकों को बेहतर भुगतान देने के लिए बजट में स्थायी कटौती के मद्देनज़र यह क़दम उठाना ज़रूरी है। यह फ़ैसला मई 2020 में लिए गए कैबिनेट के फ़ैसले के अनुकूल भी है।
असम सर्व शिक्षा अभियान मिशन के ये शिक्षक 2017 से अध्यापन में लगे हैं और पूरी तनख्वाह नहीं पाते। सामान्य तौर पर ऐसी ख़बर की ज्यादा विस्तार से चर्चा की जरूरत नहीं रहती लेकिन अभी इसकी चर्चा करना कई कारणों से ज़रूरी है। एक तो यह कि यह ‘बोल्ड’ क़दम है। शिक्षक संगठन ही नहीं, कोई भी इसका हिसाब रख सकता है कि फ़ैसले का एक क़दम उठाया तो दूसरा पूरा किया गया या नहीं। लेकिन उससे भी ज़्यादा दिलेरी इस स्वीकारोक्ति में है कि हम किस तरह के संकट में हैं और ख़र्च का इस तरह का बोझ नहीं उठा सकते।
पर इस दिलेरी का तब मतलब होता जब सरमा जी ही यह घोषणा भी करते कि असम ग़रीब राज्य है और जिस तरह एक मिशन के लिए धन जुटाने का काम बिना कहीं और से कटौती किए नहीं हो सकता वैसे ही हम अन्य मदों में कमी कर रहे हैं। उनको यह घोषणा भी करनी चाहिए थी कि प्राथमिक शिक्षा जैसे बुनियादी काम के लिए सरकार अपने ख़र्च में और क्या-क्या कटौतियाँ कर रही है। जिस तरह उनकी पार्टी के नेतृत्व की आदत है वह गरीब राज्यों के लिए एक मॉडल पेश कर सकते थे कि हम लोग पंजाब-हरियाणा या फिर महाराष्ट्र-तमिलनाडु जैसे अमीर राज्यों की तरह शासन नहीं चला सकते। हम गरीब हैं तो हमारा शिक्षक कम वेतन-भत्ते लेगा और मुख्यमंत्री और मंत्री भी कम साधनों से काम चलाएंगे, ख़र्च कम करेंगे।
गरीब राज्य का मुख्यमंत्री अमीर राज्य से बराबरी क्यों करे। जाहिर है कि ऐसा होता तो हम भी सरमा जी की ‘जै जै’ कर रहे होते। पर वे ऐसा नहीं कर सकते। इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो शिक्षकों का संगठन ही बता रहा है कि सरकारी स्कूलों में स्थायी शिक्षकों के करीब तीन हजार पद खाली पड़े हैं जबकि मुख्यमंत्री आठ हजार की छँटनी की योजना लेकर पहुँचे हैं। उसका यह सुझाव भी है कि इन खाली पदों पर अस्थायी शिक्षकों को ही पक्का कर दिया जाए।
सरमा जी ही क्यों, कोई भी मुख्यमंत्री ऐसा कुछ नहीं कर सकता क्योंकि विश्व बैंक और आईएमएफ़ जैसी संस्थाओं की निगरानी में जो शिक्षा मिशन चल रहे हैं उनमें खिचड़ी के लिए धन है, भवन निर्माण के लिए पूरा पैसा है, लेकिन स्थायी शिक्षक बोझ माने जाते हैं। यह अकेला असम का मामला नहीं है। हर राज्य में यही हो रहा है और हर राज्य में ऐसे अस्थायी शिक्षक रोज जुलूस धरना दे रहे हैं और पुलिस के डंडे खा रहे हैं। किसी भी पार्टी की सरकार हो वह यही कर रही है।
गुवाहाटी की तरह ही हर राज्यों की राजधानी आए दिन अस्थायी शिक्षकों से पट जाती है। खिचड़ी का हिसाब जो व्यवस्था रोज सुबह लगवा लेती है, उसे धन की बंदरबाँट की ख़बर न हो, यह संभव नहीं।
यह बंदरबाँट पंचायत वार्ड से लेकर ऊपर तक होती है जिसकी ख़बर किसको नहीं है! पर किफायत और बचत की गाज गिरेगी मास्टरों और असल में बेरोज़ग़ार युवक-युवतियों पर। भवन निर्माण के धन का क्या क्या होता है उसकी खबर गाँव स्तर पर न भी हो तो ऊपरी स्तर पर ज़रूर होती है। और इसी असम में इसी मिशन के तहत पढ़ा रहे अस्थायी शिक्षकों की संख्या 2929-21 के 2.15 लाख की जगह 2021-22 में दो लाख ही रह गई, वह ‘बचत’ कहाँ गई यह बताने की ज़रूरत असम सरकार को नहीं है।
असल में हुआ यह है कि प्राथमिक शिक्षा के ऊपर सारा जोर देने के साथ सरकार आगे की पढ़ाई से हाथ खींचने भी लगी है। यह चीज हाई स्कूल से ही दिखाई देती है और उच्चतर शिक्षा में तो एकदम नंगा खेल शुरू हो गया है। इसी साल अकेले दिल्ली विश्वविद्यालय में कथित साझा प्रवेश परीक्षा, पुराने नंबर और प्रवेश परीक्षा का साझा अंक तैयार करने और नामाँकन में तीन महीने का महत्वपूर्ण समय लगा दिया गया और क़रीब डेढ़ लाख बच्चे कम आए। वे सभी निजी शिक्षण संस्थानों में चले गए। निजी शिक्षण संस्थाएँ देश में सबसे तेज़ आर्थिक विकास का रिकॉर्ड बना रही हैं और वहाँ के शिक्षक निजी कमाई का। दूसरी ओर, अगर सरकारी स्कूलों में छात्र कम हो रहे हैं तो वहाँ ‘बेकार’ या कम काम वाले शिक्षक रहेंगे। इसलिए सरकार जब ऐसे लोगों को बाहर करके ख़र्च में कटौती करने का दावा करती है तो उस पर सवाल उठता है।
दिल्ली की सरकार शिक्षा (और स्वास्थ्य) के मामले में क्रांति का दावा करती है- सरकारी स्कूलों पर खास ध्यान देने, उनका बजट बढ़ाने का दावा करती है। अब उसके स्कूलों में भी प्राचार्य और उप-प्राचार्य तथा शिक्षकों के कितने पद खाली हैं या कितने शिक्षक वर्षों से अस्थायी हैं इसका हिसाब अलग है, पर उसके यहां से बच्चे ही ‘गायब’ होने लगे हैं। पुरानी दिल्ली के तो ज्यादातर सरकारी स्कूलों, खासकर उर्दू वालों, का यही हाल है और उनकी क़ीमती ज़मीन पर बिल्डर माफिया और सरकार के धंधेबाजों, दोनों की नज़र है। यूनिफ़ाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस की नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि सरकारी स्कूलों के क़रीब तीन लाख बच्चे ‘क्रोनिक एबसेनटिज़्म’ के शिकार हैं यानी वे स्कूल आ ही नहीं रहे हैं, सिर्फ़ उनका नाम चल रहा है। इनमें 71 फ़ीसदी से ज़्यादा बच्चे 11 से 13 साल की उम्र वाले हैं। इसमें कोरोना का भी असर होगा, प्रवासी मज़दूरों के शहर से घर लौटना भी वजह होगी लेकिन असलियत यही है कि शिक्षा की सूई उलटी दिशा में चलने लगी है और यह काम सरकारों और वैश्विक संस्थाओं की देखरेख में चल रहा है।