ग्रीक पौराणिक कथाओं में प्रॉमिथियस नाम के शापित पात्र का जिक्र आता है जिसने स्वर्ग के देवताओं से आग चुराकर पृथ्वी पर मनुष्य जाति को दे दी थी जिससे नाराज़ होकर देवताओं के राजा ने उसे सज़ा दी कि उसे एक पर्वत से बाँध दिया जाए और एक गिद्ध उसका कलेजा नोचता रहे, नया कलेजा बने, गिद्ध उसे अनंत काल तक नोच-नोच कर खाते रहें। ग्रीक पौराणिक मान्यताओं और दंत कथाओं के मुताबिक प्रॉमिथियस मानव जाति के कल्याण के लिए अनंत काल तक यह मर्मांतक पीडा झेलने के लिए अभिशप्त है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराये गये परमाणु बम के जनक कहे जाने वाले अमेरिकी भौतिकशास्त्री जूलियस रॉबर्ट ऑपेनहाइमर पर क्रिस्टोफ़र नोलन की फिल्म ऑपेनहाइमर के एक दृश्य में एक पात्र ऑपेनहाइमर को अमेरिकी प्रॉमिथियस कहता है। नोलन ने अपनी फिल्म के लिए जिस किताब को आधार बनाया है उसका शीर्षक भी अमेरिकन प्रॉमिथियस है। नोलन की फिल्म किस अद्भुत किस्सागोई से ग्रीक पौराणिक कथाओं के एक नायक का रूपक बीसवीं सदी के एक बहुत चर्चित, विवादास्पद, सम्मानित और अपमानित वैज्ञानिक पर आरोपित करती है, यह देखने लायक है।
गीता में कुरुक्षेत्र के मैदान में मोह और विषादग्रस्त अर्जुन को युद्ध के लिए तमाम तरह से प्रेरित करते हुए कृष्ण अपना विराट स्वरूप दिखाकर उसे समझाते हैं कि संहार करने वाला अर्जुन नहीं, स्वयं कृष्ण अर्थात् ईश्वर है इसलिये वह अपनों को मारने के अपराध बोध की चिंता न करे।
क्रिस्टोफ़र नोलन ने अपनी फिल्म में ग्रीक पुराण कथा और गीता के कर्मवाद को गूँथ कर परमाणु बम बनाने और उसके इस्तेमाल को लेकर ऑपेनहाइमर के बौद्धिक कौशल, मेहनत, महत्वाकांक्षा, प्रेम, निराशा, नैतिक द्वंद्व, अपराध बोध और ऊहापोह को बहुत शानदार अंदाज में पेश किया है। एटम बम की चेन रियेक्शन की आशंका और उससे जुड़ा नैतिक द्वंद्व ऑपेनहाइमर के मन में थे जिसे मुख्य भूमिका निभाने वाले किलियन मर्फी ने बहुत असरदार तरीके से उभारा है।
ऐसा कहा जाता है कि पहले परमाणु परीक्षण की कामयाबी के लम्हे में विस्फोट से उठते धुंए के बीच ऑपेनहाइमर ने गीता 11वें अध्याय के इस 32वें श्लोक को याद किया था जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाने के बाद उससे कहते हैं -
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः |ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः |
( मैं लोकों का नाश करने वाला, बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ । (इसलिए) जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करने से भी इन सब का नाश हो जाएगा। ) ( भगवद्गीता, गीता प्रेस,, गोरखपुर)
नोलन ने इस श्लोक का इस्तेमाल परमाणु परीक्षण के दौरान न करके एक अंतरंग दृश्य में किया है जिस पर बवाल मच गया है।
नोलन ने यह पहली बायोपिक बनाई है और पहली ही बार उनकी किसी फिल्म के अंतरंग दृश्य पर विवाद खड़ा हो गया है। फिल्म के एक दृश्य में रॉबर्ट ऑपेनहाइमर और उनकी महिला मित्र जीन टैटलॉक की नज़दीकी के बीच गीता के इस श्लोक की वजह से हिंदुओं की भावनाओं को ठेस लगने का मामला फिर खड़ा हो गया है।
फिल्म के इस अंतरंग दृश्य में ऑपेनहाइमर की महिला मित्र जीन टाटलॉक अचानक अन्यमनस्कता की स्थिति में किताबों की अलमारी के पास जाकर एक किताब उठाती है, उसका पन्ना खोलती है, संस्कृत में लिखा हुआ दिखता है । जीन टैटलॉक ओपनहाइमर से पढ़ने को कहती है। ओपनहाइमर जो बोलते हैं वो श्लोक है, जिसका संक्षिप्त अर्थ है "मैं काल हूं, लोकों का संहार करता हूं।"
ओपनहाइमर के बारे में यह जानकारी मिलती है कि उन्होंने संस्कृत सीखी थी और अपने समकालीन दिग्गज वैज्ञानिकों नील्स बोर और आइंस्टाइन की तरह वो भी भगवद्गीता से प्रभावित थे।
भारत सरकार से लेकर तमाम हिंदूवादी संगठन इस दृश्य पर उबल पड़े हैं। भारत सरकार के सूचना आयुक्त उदय माहुरकर ने क्रिस्टोफर नोलन के नाम खुला खत लिखकर इसे हिंदू संस्कृति पर हमला बताया है। केंद्र सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने नोलन से इस दृश्य को हटाने की मांग करने के साथ साथ सेंसर बोर्ड पर भी नाराजगी जताई है कि यह दृश्य सेंसर की कैंची से कैसे बच गया। हालांकि इस दृश्य में ऐसा कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है जिसे भावनाओं के आहत होने के दायरे में रखा जाए ।
सेक्स को लेकर दोनों पात्रों की अन्यमनस्कता दिखती है। क्या सेक्स सीन में श्लोक रखकर क्रिस्टोफ़र नोलन ऑपेनहाइमर के मन में चल रहा नैतिक द्वंद्व उभारना चाहते थे या उन्हें उससे मुक्त होता हुआ दिखाना चाहते थे, इस सवाल का जवाब वह दर्शकों पर अपने अपने विश्लेषण के आधार पर ढूँढने के लिए छोड देते हैं।
क्रिस्टोफ़र नोलन अपने अब तक के सिनेमा में इंसान के दिलोदिमाग़ में चल रहे अंतर्द्वंद्वों, मन की जटिलताओं को अपने पात्रों के जरिये अभिव्यक्त करने की अद्भुत कारीगरी के चलते वर्तमान समय के महान वैश्विक फ़िल्मकारों की क़तार में बहुत आगे खड़े दिखते हैं। ऑपेनहाइमर क्रिस्टोफर नोलन की तमाम फिल्मों की तरह ही दर्शक से एक खास तरह की बौद्धिक परिपक्वता की मांग करती है। हालांकि उनकी पिछली कुछ फिल्मों- ‘टेनेट’, ‘इंटरस्टेलर’ और ‘इन्सेप्शन’- की तुलना में यह अपनी संरचना में अपेक्षाकृत कम गूढ़ है लेकिन उसका संदर्भ गंभीर है, वर्तमान वैश्विक राजनीति से जुड़ा है । विज्ञान का उद्देश्य समस्त मानवता के कल्याण के लिए सृजन करना है या राजनीतिक दबदबे के लिए संहार, फिल्म यह महत्वपूर्ण सवाल भी उठाती है । फिल्म में एक जगह ऑपेनहाइमर को साइंस का सेल्समैन भी कहा गया है।
फिल्म दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियों के बीच आणविक हथियारों के मुकाबले की राजनीति की पर्तें खोलती है। क्रिस्टोफर नोलन का सिनेमा वैसे भी बहुत बौद्धिक होता है और गंभीर विश्लेषण की मांग करता है। यह फिल्म दर्शक को युद्ध और आणविक हथियारों के इस्तेमाल के विरोध में खड़े होने के लिए प्रेरित करती है और विज्ञान की नैतिक जिम्मेदारी और जवाबदेही की तरफ भी इशारा करती है।
क्रिस्टोफ़र नोलन के पटकथा लेखन और निर्देशन की ख़ूबी यह है कि उन्होंने ऑपेनहाइमर का किरदार इस निरपेक्ष कसावट से गढ़ा है कि दर्शक उन्हें अपने विश्लेषण के मुताबिक नायक या खलनायक मानने के लिए स्वतंत्र है। फिल्म में ऑपेनहाइमर की यह सोच ग़लत साबित होती है कि एटम बम बन जाने के बाद उससे होने वाली तबाही के डर से दुनिया में अब कोई बड़ी जंग नहीं होगी। अपराध बोध से ग्रस्त ऑपेनहाइमर फिल्म के एक दृश्य में अमेरिका और रूस दोनों को दो बिच्छुओं की संज्ञा देते हैं। परदे के बाहर ऑपेनहाइमर के जीवन की वास्तविक कहानी बताती है कि उनके जीवन के आखिरी साल वाकई हथियारों की होड़ के खिलाफ मुहिम छेड़ते हुए बीते थे। फिल्म में उन्हें इन्हीं वजहों से उसी अमेरिकी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ता है जिसके लिए उन्होंने बम बनाया।
घाघ और अवसरवादी अमेरिकी प्रशासन एक सोची समझी रणनीति के तहत बाकायदा साज़िश करके उनके वामपंथी रुझान की आड़ में उनकी देशभक्ति को ही शक के घेरे में खड़ा कर देता है। हिरोशिमा और नागासाकी पर बमबारी के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन से मुलाकात में ग्लानि और अपराधबोध से भरे ऑपेनहाइमर(मर्फी) कहते हैं- “मेरे हाथ खून से रंगे हैं।” ट्रूमैन तत्काल व्यंग्यात्मक लहजे में अपने कोट की ऊपरी जेब से रूमाल निकालकर उनकी तरफ बढा देते हैं और अपने सेक्रेटरी से कहते हैं इस रोंदू बच्चे (cry baby )को दोबारा कभी न बुलाना। यह दृश्य अमेरिकी राजनीति के दोगलेपन को बेनक़ाब कर देता है।
यह राजनीति की निर्ममता को भी दिखाता है कि किस तरह काम निकल जाने के बाद या विरोधी नज़रिया प्रकट करने के बाद बड़े बड़े लोग भी कूड़े के ढेर पर फेंक दिये जाते हैं। रॉबर्ट ऑपेनहाइमर को जीते जी अमेरिकी प्रशासन ने दोषमुक्त नहीं माना। उनकी मृत्यु के 55 साल बाद 2022 में उन पर लगी रोक हटाई गई। यह फिल्म दिखाती है कि महाशक्तियों की राजनीति किस तरह अपने मक़सद के लिए दुनिया को तबाह करने से भी नहीं हिचकती। हिटलर की मौत के साथ ही दूसरा विश्वयुद्ध एक तरह से ख़त्म हो गया था लेकिन फिर भी अमेरिका ने जापान पर एटम बम गिराकर नरसंहार किया।
ऑपेनहाइमर की शीर्षक भूमिका में किलियन मर्फी ने बहुत अच्छा काम किया है, ऑस्कर लायक। ऑपेनहाइमर की शख्सियत के साथ एकाकार हो गये हैं। एक-एक भंगिमा, उदास, निस्तेज आँखें , चाल-ढाल सब कमाल है। एक दृश्य में मर्फी ढेर सारी किताबें लिए झुके-झुके से चले जा रहे हैं जैसे ऑपेनहाइमर अपनी ही विद्वत्ता के बोझ से दबा हुआ हो। मर्फी के अलावा रॉबर्ट डाउनी जूनियर, मैट डेमोन, एमिली ब्लंट का काम भी बहुत बढ़िया है।ऑपेनहाइमर के राजनीतिक शत्रु की भूमिका में रॉबर्ट डाउनी जूनियर ने बहुत शानदार काम किया है। ऑपेनहाइमर की पत्नी की भूमिका में एमिली ब्लंट प्रभावित करती हैं। नील्स बोर, हाइजेनबर्ग और अल्बर्ट आइंस्टाइन जैसे चर्चित वैज्ञानिक भी ऑपेनहाइमर के चरित्र को गढ़ने और ख़ूबियाँ-ख़ामियाँ उभारने में बख़ूबी इस्तेमाल किये गये हैं।
आइंस्टाइन और ऑपेनहाइमर के बीच का संवाद बहुत गहरे अर्थों वाला है जहाँ आइंस्टाइन ऑपेनहाइमर से कहते हैं कि अब तुम्हारी बारी है अपनी उपलब्धियों के परिणाम भुगतने की। जब वे (सत्तासमूह) तुम्हें भरपूर सज़ा दे चुके होंगे तो तुम्हें एक पदक दे देंगे।
ऑपेनहाइमर का तकनीकी पक्ष क्रिस्टोफ़र नोलन की तमाम बाक़ी फिल्मों की ही तरह बहुत मज़बूत है। नोलन ने इस फिल्म में शानदार सिनेमेटोग्राफी के साथ साथ ध्वनियों का जबरदस्त इस्तेमाल किया है। फ़ौजी बूटों की धमकदार आवाज़ दुनिया को रौंद देने के खतरनाक इरादों का प्रतीक बन कर उभरती है। परमाणु परीक्षण के समय प्रकाश और ध्वनि के संयोजन से नोलन की सूझ और विज्ञान की बुनियादी समझ का पता चलता है। आँखों को चुंधिया देने वाली तेज़ रोशनी पहले आती है, धमाके की आवाज़ बाद में क्योंकि प्रकाश की गति ध्वनि तरंगों से अधिक होती है।
सिनेमा के जरिये इस तरह की तीखी राजनीतिक टिप्पणी के लिए जो हिम्मत चाहिए वह हमारे यहाँ नहीं दिखती।ऐसी बायोपिक, ऐसी गूढ़, गहरी फिल्म बनाने का न तो हमारी फिल्म इंडस्ट्री में किसी के पास सलीका है न ही इतना खरा-खरा बोलने की हिम्मत। फिल्मकार राम गोपाल वर्मा ने कम से कम इतनी ईमानदारी दिखाई कि अपने ट्वीट में यह कहा कि उनका अब तक का सारा काम व्यर्थ है और वह नोलन की पाठशाला में सिर्फ सिनेमा ही नहीं बल्कि जीवन के बारे में भी सीखना चाहेंगे।