असम: इस दौर में होगी बीजेपी के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की परीक्षा

03:23 pm Mar 31, 2021 | मुकेश कुमार - सत्य हिन्दी

असम में एक अप्रैल को होने वाले मतदान के लिए तैयारियाँ पूरी कर ली गई हैं। दूसरे दौर की 39 सीटों के लिए 345 उम्मीदवार मैदान में हैं। पहले चरण की सैंतालीस सीटों से उलट इस चरण में मामला एकतरफ़ा नहीं होगा। बीजेपी को एक-एक सीट के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है।

बीजेपी ने इस दौर में अपने चुनाव प्रचार को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित रखा है। हालाँकि विकास के वायदे और पिछले पाँच सालों में किए गए कामों का ब्यौरा भी उसने देने की कोशिश की है। ख़ास तौर पर केंद्र सरकार की योजनाओं का हवाला देते हुए, लेकिन अंतत उसने उसी मुद्दे पर सबसे अधिक ज़ोर दिया है, जो उसकी पहचान भी है और एजेंडा भी।

यह मुद्दा हिंदुत्व और मुसलिम विरोध पर केंद्रित है। इसीलिए हर चुनाव रैली में एआईयूडीएफ़ पर हमला करते हुए बदरुद्दीन अजमल का हौआ खड़ा करने की कोशिश बीजेपी नेताओं ने की है। ख़ास तौर पर मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल और हिमंत बिस्व सरमा ने। मतदाताओं को अजमल के मुख्यमंत्री बनने और मुग़ल राज आ जाने की आशंकाओं से डराने की भरपूर कोशिश की गई। इनका क्या असर हिंदू मतदाताओं पर पड़ा है, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।

कांग्रेस ने सीएए को अपनी चुनाव कैंपेन का मुख्य बिंदु बनाया है। उसे पता है कि बीजेपी इस मुद्दे पर फँसी हुई है और पूरी तरह खामोश है ताकि मतदाताओं का उस पर ध्यान ही न जाए। इसलिए वह बार-बार इसे केंद्र में लाने की कोशिश कर रही है। बारिश के बाद जब बराक घाटी में राहुल गाँधी की रैलियाँ रद्द करनी पड़ीं तो उन्होंने वीडियो के ज़रिए संदेश जारी किया। इस वीडियो में राहुल सीएए विरोधी गमछा गले में डाले नज़र आ रहे हैं।

कांग्रेस का सीधा सा संदेश यह है कि वह असमिया संस्कृति, उसकी भाषा और उसके इतिहास की रक्षा करने की गारंटी दे रही है। लेकिन असमिया हिंदुओं में उसको लेकर गहरे संदेह बैठे हुए हैं, उन्हें दूर कर पाने में वह नाकाम दिख रही है। दरअसल, उसका चुनाव प्रचार बीजेपी के मुक़ाबले बहुत कमज़ोर दिख रहा है।

बीजेपी के पास साधन-संसाधनों की भरमार है। यह साफ़ दिख रहा है कि वह पैसा पानी की तरह बहा रही है। उसने अपने राष्ट्रीय नेताओं के ज़रिए एक तरह से कार्पोरेट बमबारी कर रखी है, जबकि कांग्रेस के नेता कहीं नज़र नहीं आ रहे। राहुल-प्रियंका की रैलियाँ भी बहुत कम हुई हैं।

इस दौर में बराक घाटी के तीन ज़िलों की सभी पंद्रह सीटों के लिए इसी दौर में मतदान होना है। इसके अलावा मध्य असम और निचले असम की कुछ सीटें भी इस चरण में शामिल हैं। कार्बी आंग्लांग और दीमा हसाओ पर्वतीय ज़िले के मतदाता भी अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए वोट डालेंगे।

देखा जाए तो दोनों गठबंधनों के मिले-जुले प्रभाव वाले क्षेत्र इसमें शामिल हैं। इसमें असम के सभी रंग देखे जा सकते हैं। कुछ इलाक़े ब्रह्मपुत्र घाटी के हैं, बराक घाटी की सभी सीटें इसमें शामिल हैं, तो जनजातियाँ भी इसमें हिस्सा लेने जा रही हैं।

पहले दौर के चुनाव क्षेत्र मोटे तौर पर हिंदू बहुल थे और उनमें बीजेपी की अच्छी पकड़ मानी जाती है। ज़ाहिर है कि प्रेक्षकों की नज़र में वहाँ बीजेपी अपने प्रतिद्वंद्वियों से कई क़दम आगे थी। मगर दूसरे दौर में परिस्थितियाँ वैसी नहीं हैं। यहाँ बीजेपी और महागठबंधन का तगड़ा मुक़ाबला ही नहीं है, बल्कि वह आगे निकलता भी दिख रहा है।

उदाहरण के लिए बराक घाटी को ले लीजिए। यहाँ पिछली बार बीजेपी पंद्रह में से सात सीटें जीतने में कामयाब रही थी। ऐसा तब था जबकि करीमगंज और हैलाकांडी ज़िलों में मुसलिम मतदाताओं की तादाद बहुत अधिक है।

मगर कांग्रेस और एआईयूडीएफ़ के बीच गठबंधन होने से वोटों के बँटवारे की संभावनाएँ ख़त्म हो गई हैं इसलिए बीजेपी के लिए उन सीटों को बचाना भी मुश्किल हो गया है। माना जा रहा है कि वह हिंदू बहुल शिलचर ज़िले से बमुश्किल दो सीटें ही जीत पाएगी।

कार्बी आंग्लांग के इलाक़े में बीजेपी को पिछली बार अप्रत्याशित सफलता मिल गई थी, मगर इस बार उसे वहाँ कुछ भी हासिल होता नहीं दिख रहा है। निचले असम की नलबाड़ी, बरपेटा ज़िले की कुछ सीटों पर बीजेपी के लिए अच्छे अवसर दिख रहे हैं, मगर कांग्रेस तथा एआईयूडीएफ़ का गठबंधन उसकी राह का रोड़ा बनकर खड़ा है। 

बीजेपी वोटों के डिवीज़न की रणनीति पर काम कर रही है और विपक्ष के नेताओं को तोड़कर भी अपने हमले को धार देने में लगी हुई है। 

126 सीटों वाली विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 64 सीटें चाहिए, लेकिन मुक़ाबला इतना कड़ा हो गया है कि अब एक-एक सीट के लिए जंग लड़ी जा रही है। ख़ास तौर पर बीजेपी तो उन सीटों पर भी पूरा दम लगा रही है जहाँ उसके जीतने के अवसर न के बराबर हैं।

उसे पता है कि अगर ऊपरी असम में उसकी अपेक्षा के अनुरूप परिणाम न आए तो सत्ता हाथ से फिसल सकती है। इसलिए भरपाई बाक़ी के दो दौर में करनी होगी। तीसरे दौर में उसके लिए गुंज़ाइश और भी कम हो जाएगी, क्योंकि उसमें मुसलिम बहुल सीटों की संख्या ज़्यादा है। इसलिए उसने इस दौर में जान लड़ा दी है।