अखिलेश यादव किसान आंदोलन के समर्थन में सड़क पर उतरकर संघर्ष कर रहे हैं। इससे उनके आलोचक और समर्थक दोनों ही आश्चर्यचकित हैं। उनके समर्थक कब से इस लम्हे का इंतजार कर रहे थे। वे मानते हैं कि उनके नेता के सड़क पर आए बिना काम नहीं चलेगा। नेताजी मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक हमसफर रहे कुछ वरिष्ठ नेता ज्यादा बेचैन थे। उन्होंने अखिलेश यादव को अपना नेता तो मान लिया है, लेकिन नेताजी की छवि उनके मानस पटल पर अभी भी अंकित है।
'ट्विटर नेता' के तौर पर अखिलेश यादव को देखकर वे हैरान और दुखी थे। अखिलेश यादव का सड़क पर संघर्ष और गिरफ्तारी को देखने के बाद जाहिर तौर पर उन्हें बड़ी खुशी मिली होगी। अपने जुझारू नेताजी की छवि आज वे अखिलेश में देख रहे होंगे।
दूसरी तरफ अखिलेश यादव को 'ट्विटर नेता' और ‘चुका’ हुआ कहने वाले आज खामोश हैं। आलोचक अखिलेश यादव को फॉर्च्यूनर नेताओं से घिरा हुआ और कार्यालय से राजनीति करने वाला कहते थे।
क्या अखिलेश यादव अचानक सड़क पर आ गए हैं क्या अब सड़क पर आना उनकी मजबूरी है अगर इसे मजबूरी माना जाए, तो सवाल उठता है कि आखिर यह मजबूरी थी क्या
अखिलेश यादव का संघर्ष
अखिलेश यादव पहली बार सड़क पर नहीं आए हैं। बल्कि सड़क के जरिए ही उन्होंने यूपी की राजनीति को सीखा है। इसको जानने-समझने के लिए आपको यूपी की राजनीति के फ्लैशबैक में जाना पड़ेगा। 2012 से पहले अखिलेश यादव ने एसपी के नौजवानों की बागडोर संभाली थी। अपनी साइकिल यात्राओं के जरिए उन्होंने पूरे प्रदेश में दौरे किए।
साइकिल पर निकलते नौजवानों के झुंड अखिलेश यादव के नेतृत्व कौशल और उनकी संघर्षशीलता को दर्शाते थे। जबकि नेताजी मुलायम सिंह यादव ने हमेशा की तरह किसानों की समस्याओं को जोर-शोर से उठाया। दरअसल, किसानों के मुद्दों पर उनकी गहरी पकड़ रही है। इसका कारण उनकी ग्रामीण पृष्ठभूमि है। किसान परिवार से निकलकर उन्होंने मुख्यमंत्री और रक्षा मंत्री की जिम्मेदारी संभाली है। जाहिर है, अखिलेश को यह सीख और समझ विरासत में मिली है।
किसान और नौजवान आरंभ से ही समाजवादी पार्टी की ताकत रहे हैं। समाजवादी पार्टी को किसानों और नौजवानों के मुद्दे पर सीधे जूझने वाली पार्टी माना जाता है। यही कारण है कि जब अखिलेश यादव केवल ट्वीट कर रहे थे तो उनके समर्थकों को निराशा हो रही थी।
अखिलेश सरकार का कार्यकाल
एसपी बुनियादी मुद्दों पर लड़ने वाली पार्टी रही है। 'दवा-पढ़ाई मुफ्त हो, पानी-बिजली सस्ती हो' - यह पार्टी का प्रमुख नारा होता था। एसपी सरकार में सरकारी अस्पतालों में केवल एक रुपये का पर्चा बनता था। दवाई भी सरकारी मिलती थी। स्कूल-कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालयों में बहुत कम फीस पर पढ़ाई होती थी।
मुलायम सिंह यादव ने बचपन में हल हाँका। अखाड़े में कुश्ती लड़ी और बड़े-बड़े पहलवानों को चित किया। कालेज में पढ़े और फिर अध्यापक बने। इसलिए अध्यापकों के प्रति उनका विशेष प्रेम रहा है। आज भी यूपी के अध्यापक सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से लेकर प्रमोशन और अच्छे वेतनमान के लिए मुलायम सिंह को याद करते हैं।
अखिलेश यादव ने भी अपने कार्यकाल (2012-2017) में इन बुनियादी सहूलियतों का ध्यान रखा। उनकी सरकार में बिजली-पानी की दरें सस्ती थीं और पढ़ाई-दवाई के लिए भी बेहद कम खर्च होता था। इसके अलावा अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी और उसके उसूलों में कुछ परिवर्तन किया।
सोशलिस्ट फैक्टर पत्रिका के संपादक फ्रैंक हुजूर कहते हैं कि अखिलेश यादव ने छात्रों-नौजवानों को सीधे रोजगार से जोड़ने के लिए और दुनिया में हो रहे तकनीकी परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए तकनीकी शिक्षा पर जोर दिया। लैपटॉप वितरण योजना उनका ड्रीम प्रोजेक्ट था। चारों तरफ इस योजना की तारीफ हुई।
लोहिया जी के समय से समाजवादी नेता अंग्रेजी के विरोधी थे। लेकिन अखिलेश यादव ने अंग्रेजी विरोध छोड़ दिया। तकनीकी शिक्षा और अंग्रेजी माध्यम 21वीं सदी के भारत की जरूरत है। उनके कार्यकाल में इस विचार को बहुत महत्ता मिली।
लखनऊ में एक मध्यम व्यापारी के बेटे ने बातचीत में एक बड़ी मजेदार बात कही। अखिलेश यादव की तारीफ करते हुए उसने कहा, “मैं चाहता हूं कि अखिलेश यादव बीजेपी में आ जाएं। ताकि मैं उन्हें वोट कर सकूँ।” जाहिर है कि वह नौजवान बीजेपी का कोर वोटर (बनिया) है। लेकिन वह व्यक्तिगत तौर पर अखिलेश यादव और उनके काम को पसंद करता है।
अनुशासनहीन कार्यकर्ता
फ्रैंक हुजूर भी कहते हैं कि अखिलेश यादव की स्वीकार्यता हर वर्ग-समुदाय में है। नौजवानों के लिए अखिलेश सबसे ऊर्जावान और प्रेरक नेता हैं। लेकिन पार्टी में नौजवानों पर लगने वाले अनुशासनहीनता के आरोपों पर उनका कहना है कि नौजवान कार्यकर्ताओं को सही दिशा देने के लिए कैडराइजेशन की जरूरत है। उन्हें विचारधारा से मजबूत करना होगा और लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा देनी होगी।
अखिलेश यादव सरकार पर जातिवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। मसलन, पीसीएस परीक्षा 2015 के नतीजों में 86 एसडीएम के पदों पर 56 यादवों के चयन होने की खबर, देश में नंबर एक होने का दावा करने वाले चैनल द्वारा चलाई गई थी। जबकि सच्चाई यह है कि 2015 में एसडीएम की कुल विज्ञापित सीटें भी 56 नहीं थीं। ताज्जुब तो यह है कि सही जानकारी होने के बाद भी ना तो चैनल ने इसका खंडन किया और ना माफी माँगी।
इसी तरह से भ्रष्टाचार के आरोपों को प्रचारित किया गया। दरअसल, सवर्ण-ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोगों का मीडिया पर कब्जा है। इसलिए मायावती, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव सरीखे दलित-पिछड़े समाज से आने वाले नेताओं को भ्रष्टाचारी और जातिवादी कहकर प्रचारित किया जाता है।
मीडिया को राफेल घोटाला, नोटबंदी घोटाला से लेकर कोरोना फंड में होने वाले घपले-घोटाले नहीं दिखाई देते। इसी तरह एसपी के नौजवान कार्यकर्ताओं को गुंडा बताने वाली मीडिया को बजरंगी और कट्टर हिंदूवादी संगठनों की गुंडई नहीं दिखाई देती।
बावजूद इसके एसपी के लिए अपने कार्यकर्ताओं की अनुशासनहीनता एक चुनौती है। ऐसे कार्यकर्ताओं के जुझारूपन को बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष में लगाने की जरूरत है।
एसपी को सफलता मिलेगी
अब सवाल यह है कि अखिलेश यादव के सड़क पर संघर्ष करने से आई ऊर्जा से क्या एसपी को चुनावी सफलता मिलेगी देश और प्रदेश के बिगड़ते हालातों से बीजेपी सरकार का विरोध बढ़ता जा रहा है। किसान, नौजवान, दलित और पिछड़े सभी हलकान हैं। स्त्रियों और दलितों पर अत्याचार निरंतर बढ़ रहे हैं। कानून व्यवस्था पस्त है। थाना-कचहरियों में बीजेपी नेताओं और उनके समर्थकों का दबदबा है। बीजेपी नेता और हिन्दुत्ववादी संगठनों की मनमर्जी के खिलाफ पुलिस भी लाचार है।
अब तीन काले कानूनों को जबरन किसानों पर लादकर मोदी सरकार खेती-किसानी को पूंजीपतियों के हवाले करने जा रही है। यूपी में सरकारी शिक्षा व्यवस्था चौपट हो गई है। स्कूल-कॉलेज में रोज सरकारी फरमान जारी हो रहे हैं।
यूपी में मुसीबतों का अंबार
स्वच्छता अभियान से लेकर मिशन शक्ति जैसे अभियानों से अध्यापक और विद्यार्थी परेशान हैं। अध्यापक और बच्चे पढ़ाई की जगह इन अभियानों में व्यस्त हैं। अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सों को कोविड के समय पर्याप्त सुरक्षा उपकरण भी उपलब्ध नहीं हैं। किसी भी मांग या हड़ताल को महामारी कानूनों से दबा दिया जाता है। पिछले एक माह में रसोई गैस की कीमत में ₹100 की बढ़ोतरी हुई है। पेट्रोल और डीजल की कीमतें तो पहले ही शतक बनाने को बेताब हैं।
खाद्य पदार्थों की कीमतों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक और ऑटो सेक्टर में बढ़ती महंगाई से मध्यवर्ग भी बहुत परेशान है। सरकारी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि रोक दी गई है। पेंशन व्यवस्था पहले ही खत्म की जा चुकी है। महंगाई भत्ता भी बंद हो चुका है। अब वेतन आयोग भी समाप्त किया जा चुका है। ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों के प्रमोशन भी अटके पड़े हैं।
लेकिन एसपी की दिक्कतें उसके भीतर ही मौजूद हैं। कैडराइजेशन एक समस्या है। दूसरी बड़ी समस्या रणनीतिक है। एसपी के रणनीतिकार लगातार विफल हो रहे हैं। 2012 के चुनाव के बाद एसपी को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली है।
चापलूसों से घिरे अखिलेश
एक राजनीतिक दल के लिए जरूरी है कि सरकार की एंटी इनकंबेंसी का फायदा उठाने में कोई चूक न करे। दूसरा, विरोधियों पर लगातार बढ़त बनाए रखना भी जरूरी है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है और एसपी के कुछ नेता भी स्वीकारते हैं कि अखिलेश के इर्द-गिर्द चापलूसों का जमावड़ा है। इसलिए पार्टी और समाज के अंतर्संबंधों की वास्तविक सूचना अखिलेश यादव तक नहीं पहुंचती।
खासकर अगड़ी जातियों से आने वाले और अंग्रेजी में बतियाने वाले यही चापलूस रणनीतिकार भी हैं। उनकी सलाह पर होने वाले निर्णयों से पार्टी को फायदा नहीं बल्कि उल्टा नुकसान ही होता है। मसलन, इन्हीं रणनीतिकारों के सुझाव पर एक पूँजीपति को राज्यसभा चुनाव के लिए एसपी ने अपना उम्मीदवार बनाया। हालाँकि इनका पर्चा खारिज हो गया। लेकिन मायावती ने एक दलित को राज्यसभा जाने से रोकने का आरोप एसपी पर मढ़ दिया।
हाथरस में 'गुड़िया' के बलात्कार और मौत के बाद सरकार के खिलाफ बने माहौल में अगर एसपी ने वाल्मीकि समाज के किसी व्यक्ति का नामांकन कराया होता तो इससे मायावती और बीजेपी दोनों को मुश्किलें होतीं। इसी तरह एसपी के रणनीतिकार नरम हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। जबकि इससे एसपी को वोट नहीं मिलने वाला।
अखिलेश के लिए गढ़े नारे
इन रणनीतिकारों के सजातीय चेलों की पार्टी में भरमार है। इनकी प्रतिबद्धता ना पार्टी के प्रति है और ना समाजवादी विचारधारा के प्रति। ये अखिलेश यादव को सिर्फ शक्ल दिखाने और चापलूसी से लबरेज नारे लगाने में बेताब रहते हैं। एसपी के कुछ 'चर्चित' नारे इनके ही दिए हुए हैं। "अखिलेश भैया तुम्हारे नाम, ये जवानी है कुर्बान!", "बेबी को बेस पसंद है, यूपी को अखिलेश पसंद है!", "अखिलेश भैया गोरे-गोरे, वोट पड़ेंगे बोरे-बोरे!" ऐसे नारे समाजवादी विचारधारा पर सवाल खड़ा करते हैं।
इन नारों में अश्लील किस्म की चापलूसी है। ऐसी ही चेला मंडली ने एसपी को बदनाम करने में बड़ी भूमिका अदा की है। लेकिन अपने सजातीय रणनीतिकारों के प्रति वफादारी के चलते चेला मंडली पार्टी के संगठनों में विभिन्न पदों पर काबिज है।
एसपी के कोर वोटर यादव और मुसलिम रहे हैं। मुलायम सिंह यादव ने दलित और पिछड़ी जाति के विभिन्न नेताओं को आगे करके पार्टी को मजबूत किया था। पटेल, जाट, मौर्या, निषाद, पाल, पासी, कोरी बहुसंख्यक जातियों से लेकर नाई, विश्वकर्मा, धोबी, सोनकर और छोटी जातियों से कद्दावर नेता बनाए।
अखिलेश को जुटना होगा
दरअसल, यूपी जैसे बड़े राज्य में विभिन्न जातियों के क्षेत्रीय क्षत्रपों की बहुत जरूरत है। मुलायम ने समाजवादी विचारधारा वाले ब्राह्मण नेता जनेश्वर मिश्र और ठाकुर मोहन सिंह को भी आगे बढ़ाया। तमाम क्षत्रपों से मुलायम सिंह ने एसपी को अभेद्य दुर्ग में तब्दील कर दिया था।
अखिलेश यादव को इसी रणनीति से संगठन को मजबूत करना होगा। बूथ मैनेजमेंट को दुरुस्त करना होगा। विधानसभा चुनाव में केवल एक साल बाकी है। जुझारूपन और सीधा संघर्ष ही एसपी का किलर इंस्टिंक्ट है। लगातार सक्रियता, बूथ प्रबंधन, बेहतर सामाजिक समन्वय और कुशल रणनीति से अखिलेश यादव सत्ता में वापसी कर सकते हैं।