वैसे तो चीन में अक्सर स्थानीय स्तर पर अधिकारियों की ग़लत नीतियों और उनकी मनमानी के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन होते रहते हैं लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जीरो कोविड नीति के ख़िलाफ़ हो रहा देशव्यापी प्रदर्शन कोई आम प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता। स्थानीय स्तर पर अधिकारियों के ख़िलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों का कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं होता, लेकिन जीरो कोविड नीति के ख़िलाफ़ हो रहा प्रदर्शन सीधा राष्ट्रपति शी जिनपिंग की नीतियों और उनके व्यक्तित्व पर चोट कर रहा है इसलिये इसे सख्ती से कुचल दिया जाए तो कोई हैरानी की बात नहीं होगी।
जीरो कोविड नीति के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के अब राजनीतिक सुधार की मांगों में तब्दील होने की सम्भावना लग रही है और इसे देखकर 1989 के जून में बीजिंग के तियानमेन चौक पर पर हुए क़त्लेआम का स्मरण होता है जब दस लाख से अधिक बीजिंग वासी वहां जनतांत्रिक सुधार की नीतियों को लागू करने की मांग करने सड़क पर उतर आए थे। तब के और आज के दौर के कोविड नीति विरोधी प्रदर्शनों में बड़ा फर्क यह है कि 1989 में जनतंत्र की मांग के लिये प्रदर्शन मुख्यत: बीजिंग तक ही सीमित था। इस बार जीरो कोविड के खिलाफ प्रदर्शन ने देशव्यापी शक्ल ले लिया है।
तियानमेन चौक पर प्रदर्शनकारियों को खदेड़ने के लिये तत्कालीन चीनी नेता तंग श्याओ फिंग ने सेना के जवानों को तैनात करवा दिया था जो प्रदर्शनकारियों को कुचलने के लिये लड़ाकू टैंक लेकर चौक तक जब पहुंचने लगे, लोगों ने सड़कों पर बैठकर उनका रास्ता जाम कर दिया था लेकिन बेरहम चीनी नेताओं ने उन प्रदर्शनकारयों पर न केवल उन्हें तितर-बितर करने के लिये गोलियाँ चलवा दीं बल्कि उन्हें टैंकों से भी रौंद दिया था। बीजिंग में सरकार ने मार्शल लॉ लगा दिया और रातों रात तियानमेन चौक को खाली करवा लिया गया। तब हजारों गिरफ्तार किये गए प्रदर्शनकारियों पर जेलों में क्या गुजरी होगी इसकी कल्पना कर ही आज भी चीनी लोग सिहर उठते होंगे। इसके बावजूद यदि चीनी लोग सड़कों पर उतर आए हैं तो इससे उनके भीतर सुलग रही आग का अंदाज हम लगा सकते हैं।
जीरो कोविड नीति की वजह से आम चीनियों को असहनीय परेशानी का सामना करना पड़ रहा था लेकिन हद तो तब हो गई जब विद्रोहग्रस्त शिनच्यांग प्रांत की राजधानी उरुमछी की एक अपार्टमेंट इमारत में आग लगने से दस लोग इसलिये झुलस गए कि इमारत से बाहर निकलने के लिये कोविड घेराबंदी को पार नहीं कर सके। इसके कुछ दिनों पहले ही कोविड के क्वारंटीन सेंटर में रखने के लिये संदिग्ध कोविड पीड़ित लोगों से भरी एक बस पहाड़ी घाटी में गिर गई जिससे सभी बस यात्री मारे गए।
चीन के अधिकारियों को निर्देश हैं कि किसी कॉलोनी या अपार्टमेंट में एक भी कोविड संदिग्ध व्यक्ति मिला तो उस पूरी कॉलोनी को ही इस तरह सील कर दिया जाए कि वहाँ से कोई आवाजाही नहीं कर सके। ऐसी हालत में लोगों को महीनों अपने घरों में कैद रहने को मजबूर होना पड़ा। इस दौरान दैनिक ज़रूरतों की चीजों की सप्लाई नहीं हो सकने से भारी परेशानी से लोग जूझ रहे थे।
आख़िर लोगों के सब्र का बांध जब टूट गया तो लोग सड़कों पर उतर आए। इसके बाद भी जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी जिद पर अड़े रहे और प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया जाने लगा तो लोग बोलने की आजादी की मांग करने लगे।
चीन सरकार ने सोशल मीडिया को जब सेंसर करना तेज कर दिया तो लोग वीचैट (वाट्सऐप) पर संदेशों का आदान-प्रदान कर सरकार की अंधी नीतियों को कोसने लगे।
बीजिंग के विश्व स्तर के माने जाने वाले छिंगह्वा विश्वविद्यालय के एक छात्र ने विरोध का एक अनोखा तरीका निकाला। वह सादा कागज की तख्ती बना कर विश्विद्यालय के गेट पर अकेला ही खड़ा हो गया तो अधिकारियों ने उसे गिरपतार कर लिया। इसके बाद तो पूरा विश्वविद्यालय ही मानो आगबबूला हो गया। सैंकड़ों छात्र सादा कागज लेकर प्रदर्शन में शामिल हो गए। सादा कागज सेंसरशिप की नीतियों के विरोध का प्रतीक माना जा रहा है। सादा कागज का मतलब समझाते हुए एक छात्रा ने कहा कि सादा कागज पर हमने कुछ नहीं लिखा लेकिन हमारा दिल हमारी भावनाएँ व्यक्त कर रहा है। चीन में समाचार जगत तो पूरी तरह सरकार की नज़र में तो रहता ही है सोशल मीडिया के चप्पे-चप्पे पर सरकार की निगाह रहती है और विरोध के किसी भी स्वर को तुरंत सेंसर कर दिया जाता है। चीनी पुलिस इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तकनीक का इस्तेमाल करती है। बिग डेटा की तकनीक के ज़रिये तत्काल सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वाले व्यक्ति के घर पुलिस पहुँच जाती है।
राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी किसी भी आलोचना को चीन के ख़िलाफ़ षडयंत्र मानते हैं इसलिये इसे दबाने के लिये वह राज्य के हर तंत्र का इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करते। कोई एक महीना पहले ही उन्होंने राष्ट्रपति पद का पाँच साल का तीसरा कार्यकाल सम्भाला है और वह यह मान कर चल रहे थे कि चीन पर उनका एकछत्र व निर्विरोध शासन आजीवन चलना सुनिश्चित हो गया है लेकिन चीन में चल रहे सरकार विरोधी ताजा प्रदर्शनों ने उनके इस सपने पर सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या उनका भविष्य निष्कंटक रहेगा।
उनकी जीरो कोविड नीति का पार्टी के भीतर भी दबी जुबान से विरोध हो रहा है लेकिन राष्ट्रपति शी इसे अनदेखा कर रहे थे। पार्टी के भीतर अपने विरोधियों का वह भ्रष्टाचार उन्मूलन के बहाने सफाया कर चुके हैं। लेकिन शी के ख़िलाफ़ जो ताजा प्रदर्शन हो रहे हैं उससे उनकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा व छवि पर भी आँच आएगी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर उनका विरोध कुचलने और अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिये शी जिनपिंग को और भी कड़ा रुख अपनाना होगा। इसका नतीजा होगा कि चीन में आम लोगों के ख़िलाफ़ भी सख्ती बढ़ेगी। चीन के जो युवा देश में आई नई अमीरी का मजा लूट रहे थे उन्हें अब बोलने की आज़ादी की भी दरकार होने लगी है।
विदेशों में लाखों की संख्या में पढ़ने जा रहे चीनी छात्रों को अभिव्यक्ति की आजादी भी चाहिये क्योंकि उन्होंने विदेशी विश्वविद्यालयों का स्वच्छंद माहौल देखा है। इसका स्वाद उन्हें लग गया है जिसे वे अपने दिमाग से नहीं उतार सकते।
यही वजह है कि लंदन में पढ़ रहे चीनी छात्रों ने छिंगह्वा विश्वविद्यालय के छात्रों के सादा कागज आन्दोलन का समर्थन करते हुए लंदन में चीनी दूतावास के सामने प्रदर्शन किया है।
यह आन्दोलन वास्तव में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता को चुनौती देने वाला साबित हो सकता है जो चीन में एक पार्टी का ही स्थायी शासन नहीं चाहते हैं। रोचक यह भी है कि प्रदर्शनकारी किसी संगठित समूह से संचालित नहीं हैं। लोग अपने स्तर पर सरकार विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं। चीनी राष्ट्रपति के लिये सबसे चिंताजनक और चुनौती पैदा करने वाली बात यह है कि प्रदर्शनकारी खुलेआम उनके इस्तीफे की मांग करने से भी नहीं हिचके। साफ है कि चीन के आम लोगों ने ही चीनी राष्ट्रपति की सत्ता को सीधी चुनौती दी है। ऐसी मांग तो 1989 में तियानमेन चौक के प्रदर्शनकारियों ने भी नहीं की थी। तब केवल जनतांत्रिक सुधारों को लागू करने की मांग सरकार से की जा रही थी।
शी जिनपिंग अघिक वक़्त तक इन विरोध-प्रदर्शनों को चलने नहीं दे सकते। वह इन विरोध-प्रदर्शनों को न केवल जीरो कोविड नीति के खिलाफ समझ रहे हैं बल्कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की वैचारिक श्रेष्ठता के लिये भी एक बड़ी चुनौती समझेंगे। 2013 में राष्ट्रपति पद सम्भालने के तुरंत बाद उन्होंने कहा था कि हर हाल में कम्युनिस्ट पार्टी की वैचारिक श्रेष्टता बरकरार रहनी चाहिये। शी के मुताबिक एक बार जब वैचारिक कवच टूट जाता है तब अन्य रक्षात्मक उपाय भी बेअसर साबित होते हैं।
तीसरी बार राष्ट्रपति बनने की चाह में शी जिनपिंग ने चीन के महान पुनर्जीवन की बात की थी और यह भी कहा था कि पश्चिम का पतन हो चुका है और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी इतिहास की धारा बदलने की ताक़त रखती है। लेकिन उनकी जीरो कोविड नीति के विरोध में खड़ा राष्ट्रव्यापी आन्दोलन उनके इस सपने पर अट्टहास करता लगता है।