नेपाल में राजशाही के लिए हिंसा क्यों, ज्ञानेंद्र समर्थक टकराव के रास्ते पर

06:06 pm Mar 29, 2025 | सत्य ब्यूरो

नेपाल की राजधानी काठमांडू में शुक्रवार को हिंसक प्रदर्शनों ने देश को हिलाकर रख दिया। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के समर्थकों और पुलिस के बीच हुई झड़प में कम से कम दो लोगों की मौत हो गई, जिसमें एक टीवी कैमरामैन भी शामिल है, जबकि दर्जनों घायल हुए। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए नेपाल सरकार ने सेना को तैनात किया और काठमांडू के कुछ हिस्सों में कर्फ्यू लगा दिया। ये प्रदर्शन राजशाही की बहाली की मांग को लेकर हुए, जो 2008 में समाप्त कर दी गई थी। दूसरी ओर, गणतंत्र समर्थकों ने भी एक अलग रैली निकाली, जिससे तनाव और बढ़ गया।

नेपाल में 240 साल पुरानी राजशाही को 2008 में संसद के एक फैसले से खत्म कर दिया गया था, जिसके बाद देश एक धर्मनिरपेक्ष, संघीय गणतंत्र बन गया। इसके पीछे माओवादी विद्रोह (1996-2006) की बड़ी भूमिका थी, जिसने राजशाही को उखाड़ फेंकने का लक्ष्य रखा था। हालांकि, हाल के वर्षों में देश में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट ने कई लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या राजशाही की वापसी स्थिरता ला सकती है।

शुक्रवार को ज्ञानेंद्र समर्थकों ने काठमांडू के तिनकुने इलाके में प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारी "राजा आओ, देश बचाओ" और "भ्रष्ट सरकार को हटाओ" जैसे नारे लगा रहे थे। स्थिति तब बिगड़ गई जब कुछ प्रदर्शनकारियों ने पुलिस बैरिकेड पर हमला किया। जवाब में पुलिस ने आंसू गैस, वाटर कैनन और रबर बुलेट्स का इस्तेमाल किया। हिंसा में एक फोटो जर्नलिस्ट की भी मौत हो गई, जो एक जलते हुए भवन में फंस गया था।

पिछले 16 सालों में नेपाल में 13 अलग-अलग सरकारें बन चुकी हैं, जिससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है। भ्रष्टाचार और आर्थिक बदहाली ने जनता का गुस्सा भड़का दिया है। प्रदर्शनकारी मीना सुबेदी (55) ने कहा, "देश को विकास करना चाहिए था। लोगों को नौकरियां, शांति और अच्छा शासन मिलना चाहिए था, लेकिन हालात बद से बदतर होते गए।" कई लोगों का मानना है कि राजशाही एक स्थिर शासन का प्रतीक थी, जो मौजूदा संकट को हल कर सकती है।

हाल ही में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की सक्रियता ने भी इस भावना को हवा दी है। फरवरी में लोकतंत्र दिवस पर जारी एक वीडियो संदेश में उन्होंने जनता से समर्थन मांगा था। इसके बाद 9 मार्च को उनकी काठमांडू वापसी पर हजारों समर्थकों ने उनका स्वागत किया था। कुछ प्रदर्शनकारियों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीरें भी लहराईं, जो नेपाल की राजशाही के समर्थक माने जाते हैं।

दूसरी ओर, माओवादी और वामपंथी दलों के नेतृत्व में गणतंत्र समर्थकों ने भी काठमांडू में एक रैली निकाली। पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल और माधव कुमार नेपाल ने इसमें हिस्सा लिया। दहाल ने ज्ञानेंद्र को चेतावनी दी कि सत्ता की महत्वाकांक्षा उनके लिए महंगी पड़ सकती है। उन्होंने कहा, "लोगों की उदारता को कमजोरी न समझें।" उनका दावा है कि राजशाही की वापसी असंभव है और गणतंत्र ही देश का भविष्य है।

प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने हिंसा के बाद एक आपातकालीन बैठक बुलाई। वामपंथी नेताओं ने ओली पर कुशासन का आरोप लगाया और कहा कि उनकी नीतियों ने ही राजशाही समर्थकों को प्रोत्साहन दिया। उधर, ज्ञानेंद्र ने अभी तक हिंसा या मांगों पर कोई टिप्पणी नहीं की है।

हालांकि राजशाही समर्थकों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि इसे बहाल करना आसान नहीं होगा। नेपाल की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन गणतंत्र के पक्ष में है। फिर भी, यह हिंसा और प्रदर्शन देश में गहरे असंतोष को दर्शाते हैं, जिसे नजरअंदाज करना सरकार के लिए मुश्किल होगा।

फिलहाल काठमांडू में तनाव बरकरार है और सेना सड़कों पर गश्त कर रही है। भारत का नाम बार-बार राजशाही के समर्थन में आ रहा है। वहां के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली तक आरोप लगा चुके हैं लेकिन भारत की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी जा रही है। आखिर भारत ने सारे मामले में चुप्पी क्यों साधे रखी है। नेपाल में चीन की बढ़ती रुचि किसी से छिपी नहीं है। लेकिन भारत की प्रतिक्रिया न आना कई सवाल खड़े कर रहा है।

रिपोर्ट और संपादनः यूसुफ किरमानी