क़ाबुल पर क़ब्ज़े के तीन हफ़्ते बाद भी अफ़ग़ानिस्तान में सरकार क्यों नहीं?

02:25 pm Sep 06, 2021 | प्रमोद मल्लिक

काबुल पर बग़ैर किसी प्रतिरोध के क़ब्ज़े के तीन हफ़्ते बाद भी अफ़ग़ानिस्तान में अब तक कोई सरकार नहीं बनी है। समझा जाता है कि इसमें और समय लगेगा।

सवाल यह है कि आनन फानन में अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण कर लेने वाले और नेटो समेत अमेरिका को हरा देने वाले तालिबान आपस में बैठ कर मिलजुल कर सरकार क्यों नहीं बना लेते हैं?

यह सवाल भी और जवाब भी। अमेरिका और नेटो को हरा देना और आपसी मतभेद भुला देना दोनों बिल्कुल अलग बातें हैं। इसी तरह अलग हैं किसी समान शत्रु को मिलजुल कर हरा देना और आपसी दुश्मनी भुला कर भाईचारा कायम कर लेना।

तालिबान ने पहला काम तो कर लिया, पर वह दूसरा काम नहीं कर पा रहा है। 

विदेशी दुश्मन, आपसी दुश्मनी

अफ़ग़ानिस्तान के बारे में एक पुरानी कहावत है कि देश के तमाम गुट व क़बीले आपस में न लड़ें इसके लिए एक विदेशी दुश्मन का होना ज़रूरी है।

यही बात अंग्रेजों के बारे में कही गई थी, जिससे अफ़ग़ानिस्तान को 1921 में आज़ादी मिली, रूसियों के बारे में यही सच है जिसने अपनी सेना 1989 में वापस बुला ली और यही बात अमेरिका के बारे में सच साबित हो रही है, जिसने 20 साल बाद अपनी सेना 30 अगस्त 2021 को वापस बुला ली।

अमेरिकी सेना के हटते ही अफ़ग़ानिस्तान के पुराने 'फ़ॉल्ट लाइन्स' यानी अंदरूनी द्वंद्व फूट पड़े हैं, जिसमें कोई किसी दूसरे को स्वीकार नहीं कर रहा है। सब पुराना हिसाब चुकता करने में लगे हुए हैं।

अखुंदज़ादा क्यों स्वीकार्य नहीं?

तालिबान के सर्वेसर्वा नेता के रूप में हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा उभरे, जिनके बारे में कहा गया कि वे सबसे ऊपर होंगे, लेकिन सीधे सरकार में नहीं होंगे। उनका काम यह देखना होगा कि सरकार शरीआ के रास्ते पर चल रही है या नहीं। वे एक तरह से अफ़ग़ानिस्तान सरकार के 'गार्जियन' होंगे। यह स्थिति वैसी ही होगी जैसी ईरान में अयातुल्ला की होती है।

मुल्ला हबितुल्लाह अखुंदज़ादा, धार्मिक प्रमुख, तालिबान

लेकिन ईरान के अयातुल्ला धार्मिक प्रमुख वाकई होते हैं, वे इसलाम के प्रकांड विद्वान होते हैं। पहले अयातुल्ला रूहल्लाह खुमैनी भी इसलामिक विद्वान थे और मौजूदा अयातुल्ला अली खामेनी भी हैं। 

अखुंदज़ादा इसलामी विद्वान नहीं हैं। वे लड़ाके हैं। वे मुल्ला उमर की तरह के ज़बरदस्त लड़ाके भी नहीं हैं, न ही उनके पास संगठन का बहुत बड़ा तजुर्बा है।

वे हीरो बन कर तब उभरे जब उनके बेटे ने आत्मघाती हमला किया। इसलिए उन्हें उनके विश्वस्त लोगों के अलावा कोई स्वीकार नहीं कर रहा है। पाकिस्तान और उसका मजबूत हक्क़ानी नेटवर्क तो उन्हें बिल्कुल तरजीह नहीं दे रहा है। 

बरादर के साथ क्या दिक्क़त है?

अखुंदजादा के बाद मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर सबसे मजबूत नेता हैं, उन्होंने मुल्ला उमर के साथ मिल कर तालिबान का गठन किया था, बाद में उनकी बहन से शादी कर उनके रिश्तेदार भी बन गए। मुल्ला उमर के बीमार पड़ने पर संगठन का काम वे ही देख रहे थे।

तालिबान को जब 2001 में अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर पाकिस्तान आना पड़ा तो मुल्ला बरादर ने ही मुल्ला उमर के साथ मिल कर 'क्वेटा शूरा' का गठन किया था। यह 'क्वेटा शूरा' ही पूरा आन्दोलन चला रहा था। उस समय पाकिस्तानी खुफ़िया एजेन्सी आएसआई के चहेतों में वे भी थे।

मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर, तालिबान नेता

आईएसआई को लगा कि यदि अभी अफ़ग़ानिस्तान से कोई बातचीत हुई तो उसमें पाकिस्तान को वह महत्व नहीं मिलेगा जो उसकी इच्छा से बात होने पर मिलेगा। 

पाकिस्तान ने फरवरी 2010 में मुल्ला बरादर को गिरफ़्तार कर लिया, जेल में डाल दिया, जहाँ से वे 2018 में ही निकल पाए और वह भी अमेरिका के चाहने पर। उनके लिए इससे बड़ी विडंबना की बात क्या होगी कि उन्हें अमेरिका ने पाकिस्तानी जेल से बाहर निकलवाया।

मुल्ला बरादर आईएसआई को नहीं सुहाते, बरादर के मन में भी पाकिस्तान को लेकर गुस्सा है, जिसकी जेल में उन्हें आठ साल बिताना पड़ा।

सिराजुद्दीन हक्क़ानी

इसलिए आईएसआई का खड़ा किया हुआ हक्क़ानी नेटवर्क मुल्ला बरादर को स्वीकार नहीं कर रहा है। 

आईसआई हक्क़़ानी नेटवर्क के प्रमुख सिराजुद्दीन हक्क़ानी को सबसे ऊँचे पद पर बिठाना चाहता है। तालिबान के तमाम नेता इसका विरोध कर रहे हैं। 

उन्हें डर है कि सिराजुद्दीन के प्रमुख बन जाने से पूरी सरकार आईएसआई के नियंत्रण में होगी और वे अपने मन के हिसाब से कुछ नहीं कर पाएंगे।

चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ मुल्ला बरादरChina MEA

बीजिंग फ़ैक्टर!

उन्हें यह भी डर है कि चीन, ईरान और भारत से उसके रिश्ते भी पाकिस्तान ही तय करेगा। तालिबान ईरान से नजदीकी चाहता है, उसे चीन से पैसे चाहिए। उसे क़तर से तेल और पैसे चाहिए तो मुसलिम जगत में जगह पाने के लिए वह तुर्की को स्वीकार करने को तैयार है। ऐसे में वह पाकिस्तान की धौंस क्यों सहे?

तालिबान भारत से एक संतुलित रिश्ता चाहता है। जम्मू-कश्मीर तालिबान के एजेंडे पर कभी नहीं रहा, आज भी नहीं है। लेकिन उसे डर है कि आईएसआई उसका इस्तेमाल करेगा और वह एक फिजूल की लड़ाई में फंस जाएगा।

ग़ैर-पश्तून

इसके अलावा लड़ाई का दूसरा छोर ग़ैर-पश्तूनों से मिलता है। चीन, ईरान के अलावा तुर्की और क़तर भी तालिबान पर दबाव डाल रहे हैं कि वह उज़बेक, ताज़िक, हज़ारा और तुर्कमान को भी सत्ता में शामिल करे। तालिबान यह मानने को तैयार है। पर तालिबान इन गुटों को कोई अहम पद नहीं देना चाहता है।

इसकी तीन वजहें हैं-

  1. तालिबान के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में इन गुटों का योगदाम कम रहा है, कम से कम तालिबान का यह मानना ज़रूर है।
  2. वे अतीत की यादों से बाहर नहीं निकल पाए हैं, जहाँ उनकी इन सभी क़बीलों से लड़ाई एक नहीं कई बार हुई है। उनका मानना है कि यह लड़ाई पश्तूनों ने लड़ी है और उनके मुताबिक ही सबकुछ होगा।
  3. इसके अलावा हज़ारा को वे स्वीकार धार्मिक कारणों से नहीं कर पा रहे हैं। हज़ारा शिया मुसलमान हैं, जिन्हें ज़्यादातर सुन्नी पश्तून मुसलमान किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।

तो अफ़ग़ानिस्तान में एक विदेशी दुश्मन था, जिसने सबको एकजुट कर रखा था और सब आपसी रंजिशों को भुला कर उससे लड़ रहे थे। वह दुश्मन जा चुका है, लिहाज़ा अब ये सब आपस में लड़ेंगे और पुराना हिसाब चुकाने का मौका हाथ से नहीं जाने देंगे।

ऐसे में भला समावेशी सरकार कैसे बनेगी?