अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद विचलित करने वाली तसवीरें आ रही हैं। चारों तरफ़ अफरा तफरी है। हत्या की ख़बरें हैं। लोगों के पलायन की रिपोर्ट है। हवाई जहाज के ऊपर, चक्के पर चढ़ बच निकलने की तसवीरें हैं। तालिबान के डर से महिलाओं व पुरुषों द्वारा अपने बच्चों को कंटीले तारों के ऊपर से अमेरिका और यूके के सैनिकों के सामने फेंकने की तसवीरें हैं।
तालिबान पर क़त्लेआम के आरोप लगते रहे हैं। मानवाधिकार के भयावह उल्लंघन की शिकायतें भी हैं। और तो और तालिबान को आईएसआईएस और अल-कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ रखकर तुलना की जाती है। इसके आतंकवादी संगठनों से संबंध की रिपोर्टें भी आती रही हैं।
तालिबान ने दुनिया के सबसे वांछित व्यक्तियों में से एक ओसामा बिन लादेन को शरण दी थी। इसके बावजूद तालिबान अमेरिका की आतंकवादी संगठनों की सूची में क्यों नहीं है?
इसे जानने से पहले यह जान लें कि आतंकवादी संगठन क्या है? टेरर या आतंक का शाब्दिक अर्थ है- डर, आतंक या दहशत फैलाना। एक आतंकवादी संगठन वह है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर या घरेलू स्तर पर आतंकवाद के कृत्यों का समर्थन और प्रचार करता है। यूएस फेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन आतंकवाद को 'व्यक्तियों और / या समूहों द्वारा किए गए हिंसक, आपराधिक कृत्यों' के रूप में परिभाषित करता है। किसी देश के राष्ट्रीय हितों, सुरक्षा और नागरिकों के लिए ख़तरा पैदा करने वाले संगठनों को उस विशेष देश में प्रतिबंधित या आतंकवादी संगठनों के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है।
तालिबान अमेरिकी विदेश विभाग की विदेशी आतंकवादी संगठनों की सूची में नहीं है। अमेरिका तालिबान को एक आतंकवादी संगठन के बजाय एक विद्रोही, एक क्रांतिकारी समूह के रूप में मानता है। ऐसा क्यों है कि तालिबान के कृत्य आतंकवादियों या आतंकी समूहों से इतने मिलने-जुलने के बावजूद उसको आतंकी संगठन नहीं माना गया है?
इसका सीधा सा यह जवाब हो सकता है कि इसका राजनीतिक कारण है। या फिर इसे राजनीतिक मजबूरी भी कह सकते हैं। इसको और आसानी से समझना है तो अफ़ग़ानिस्तान को लेकर तालिबान के साथ हुई वार्ता से समझा जा सकता है।
तालिबान के साथ अमेरिका ने समझौता किया था। फ़रवरी 2020 में डोनल्ड ट्रंप प्रशासन के कार्यकाल में तालिबान के साथ समझौते पर दस्तख़त किए गए थे। ट्रंप प्रशासन ने वार्ता के लिए विशेष दूत भेजे थे जो सीधे तालिबान से वार्ता कर रहा था। फ़रवरी 2020 में उस समझौते के बाद से ही तालिबान ने देश में कई जगहों पर कब्जे जमाने शुरू कर दिए थे। अमेरिका ने तय दोहा समझौते के मुताबिक़ 1 मई 2021 से अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस निकाले जाने की घोषणा की और इसके बदले में तालिबान ने आश्वासन दिया कि वह अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल आतंकवादी संगठनों को नहीं करने देगा।
अब जाहिर सी बात है कि एक आतंकवादी संगठन के साथ वार्ता करने पर अमेरिका की ज़्यादा किरकिरी होती। एक उग्रवादी समूह के साथ बातचीत करना अपेक्षाकृत ज़्यादा आसान है और आधिकारिक तौर पर बातचीत करना क़ानूनी रूप से भी कहीं अधिक आसान है। आतंकवादी संगठन का ठप्पा लगने पर तालिबान के साथ राजनयिक संपर्क और शांति वार्ता को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया होता।
'सीएनबीसी टीवी 18' की रिपोर्ट के अनुसार तालिबान भारत के ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 की पहली अनुसूची में भी नहीं है। ऐसा तब है जब तालिबान इंडियन एयरलाइंस के विमान के अपहरण में शामिल था, जब विमान तालिबान के नियंत्रण वाले कंधार में उतारा गया और उसके मिलिशिया विमान को घेरे हुए थे।
अमेरिका और भारत जैसे देशों की आतंकवादी सूची में तालिबान शामिल क्यों नहीं है, इसे समझना अब इतना मुश्किल भी नहीं है। आतंकवादी सूची में शामिल किए जाने से बचने के लिए तालिबान भी अपनी तरफ़ से कोशिश कर रहा है। 15 अगस्त को बिना ख़ून ख़राबा के ही काबुल पर कब्जा करना, इसके बाद प्रेस कॉन्फ़्रेंस करना, पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करते रहने देने का आश्वासन देना, महिला अधिकारों का आश्वासन देना भी उसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। हालाँकि तालिबान के ये दावे भी अब ग़लत साबित होते दिख रहे हैं। सवाल है कि तालिबान कब तक संयम बरतता है और कब तक देशों की राजनीतिक मजबूरी बनी रहती है।