दुनिया को जितने दूरगामी और नाटकीय बदलावों की उम्मीदें अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक ओबामा से थीं उतनी हाल के दशकों में अमेरिका के किसी और राष्ट्रपति से नहीं रहीं। इसकी दो वजहें थीं। एक तो अफ़्रीकी मूल का अश्वेत व्यक्ति पहली बार अमेरिका का राष्ट्रपति बन रहा था। दूसरे दुनिया राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की आठ साल की निरंकुशता और टकराव की नीतियों से उकता चुकी थी।
ओबामा ने सत्ता संभालते ही अपने कुछ यादगार लयात्मक भाषणों से ऐसा आभास भी दिया था कि मध्यपूर्व और अफ़्रीका को लेकर अमेरिका के पारंपरिक दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव आने वाले हैं। लेकिन ओबामा अपने आठ सालों में उन बदलावों को मूर्त रूप नहीं दे पाए जिनकी उनके भाषणों से आहट मिली थी। वे अपने हर मंसूबे पर प्रतिनिधि सभा और सीनेट में विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों का समर्थन जुटाने और आमराय बनाने में उलझ कर रह गए जो कभी नहीं बन पाई।
अमेरिकी इतिहास के सबसे नाटकीय चुनाव में डोनल्ड ट्रंप को हरा कर सत्ता में आए 46वें राष्ट्रपति जोसेफ़ बाइडन से दुनिया को ओबामा से भी बड़े और दूरगामी बदलावों की उम्मीदें हैं। उसकी वजह है ओबामा के बाद सत्ता में आए ट्रंप के चार साल जिनमें उन्होंने अमेरिका के पारंपरिक मित्रों, संधियों और साख को ताक पर रख कर ऐसी मनमानी की कि अब अमेरिका को उसी मुकाम पर लाना बड़े बदलाव जैसा लग रहा है जहाँ ओबामा ने उसे छोड़ा था।
राष्ट्रपति बुश ने संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का अपने हितों के लिए खुला इस्तेमाल किया था। इसलिए उनके शासन में अमेरिका को निरंकुश माना जाने लगा था। लेकिन ट्रंप ने तो संयुक्त राष्ट्र और उसकी संस्थाओं के तत्वावधान में हुई संधियों और कूटनीतिक परंपराओं को ही ताक पर रख दिया और अमेरिका फ़र्स्ट के नाम पर मनमाने काम किए जिन्हें बदलना जो बाइडन की मजबूरी बन गया।
इसलिए सत्ता संभालते ही उन्होंने तीन बड़े ऐलान किए। पैरिस में हुई जलवायु संधि में अमेरिका की सदस्यता बहाल की, विश्व स्वास्थ्य संगठन में अमेरिका की सदस्यता बहाल करते हुए कोविड-19 का टीका सभी देशों तक पहुँचाने के लिए बनी COVAX में शामिल होने और अपना योगदान करने की घोषणा की और मुसलिम बहुल आबादी वाले 12 देशों पर लगे यातायात प्रतिबंधों को हटा लिया। उन्होंने यूरोप और नेटो (नाटो) सामरिक गुट के मित्र देशों के नेताओं को आश्वासन दिए कि अमेरिका ट्रंप की निरंकुश नीति छोड़ कर मित्र देशों के साथ सहयोग और मंत्रणा की परंपरा को बहाल करेगा। विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की सदस्यता फिर से लेने का ऐलान भी किया है। अमेरिका के परिषद में शामिल होने से चीन जैसे मानवाधिकारों का हनन करने वाले देशों पर दबाव पड़ेगा। भारत को भी आलोचना झेलनी पड़ सकती है।
जो लोग बाइडन से दूरगामी बदलावों की उम्मीद लगाए बैठे थे उन्हें इस बात से निराशा हुई होगी कि बाइडन ने ईरान के साथ हुई परमाणु संधि को बहाल करने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया।
बातचीत के दरवाज़े ज़रूर खोले हैं लेकिन ईरान से माँग की जा रही है कि पहले वह संधि की शर्तों का पालन करे, उनके पालन का प्रमाण दे और प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को भी संधि की शर्तों में शामिल करने को तैयार हो, जो शायद इस समय ईरान के लिए घरेलू राजनीति को देखते हुए संभव न हो। ईरान का कहना है कि संधि अमेरिका ने तोड़ी है। इसलिए पहले अमेरिका को संधि की शर्तों का पालन करते हुए आर्थिक प्रतिबंध हटाने चाहिए। जो कि सच भी है। लेकिन लगता है जो बाइडन को भी ट्रंप की तरह ही इस्राइल की आपत्तियों का ध्यान रखना पड़ रहा है। इस्राइल इस परमाणु संधि को अपने लिए और पूरे मध्यपूर्व के लिए ख़तरा मानता है।
इस्राइल पर बाइडन
यही नहीं, जो बाइडन ने येरुशलम को इस्राइल की राजधानी की मान्यता देने और अपने दूतावास को वहाँ रखने के ट्रंप के फ़ैसले को भी नहीं बदला है। इससे फ़िलस्तीनियों को निश्चित रूप से निराशा हुई होगी। पश्चिमी किनारे की ज़मीन पर अवैध यहूदी बस्तियों के निर्माण को रोकने के बारे में भी अभी तक बाइडन और उनके विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन का कोई बयान नहीं आया है। जो बाइडन ने पिछले पाँच साल से हो रहे यमन के विध्वंस को रोकने के लिए सऊदी अरब पर ज़रूर दबाव डालना शुरू किया है। विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा है कि अमेरिका यमन पर हो रही सऊदी बमबारी का साथ देना बंद करेगा और यमन के हूती विद्रोहियों को आतंकवादी संगठन की श्रेणी में रखने की ट्रंप की नीति पर पुनर्विचार होगा।
इसके अलावा अमेरिका के राष्ट्रीय ख़ुफ़िया विभाग की निदेशक एवरिल हेंस ने पत्रकार जमाल ख़शोजी की हत्या की ख़ुफ़िया रिपोर्ट को जल्द ही जारी करने का ऐलान किया है। ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में हत्या के पीछे सऊदी शहज़ादा मोहम्मद बिन सलमान का हाथ होने के संकेत मिलते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी और तालिबान के साथ हुए समझौते के बारे में भी जो बाइडन सरकार अभी कोई फ़ैसला नहीं ले पाई है। समझौता एक मई को लागू होना है। लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के लगभग हर प्रांत में तालिबान की हिंसा बढ़ रही है और अफ़ग़ानिस्तान का लगभग 80 प्रतिशत इलाक़ा तालिबान के क़ब्ज़े में है। ऐसे में अमेरिका और नेटो की सेना को वापस ले जाना अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान के हाथों में सौंपने जैसा होगा। अमेरिका और नेटो सेना के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान की ग़नी सरकार का हश्र वैसा ही हो सकता है जैसा सोवियत सेना की वापसी के बाद सोवियत समर्थित नजीबुल्लाह सरकार का हुआ था।
बीस साल लंबी लड़ाई के बाद भी अगर अफ़ग़ानिस्तान में फिर से मुजाहिदीन जैसा तालिबान गृहयुद्ध छिड़ जाता है तो यह अमेरिका की जीत नहीं, हार होगी।
पाकिस्तान और चीन तो शायद इसी इंतज़ार में हैं कि कब अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से भागे और वे वहाँ पर अपने पैर पसारें। बाइडन को चीन की इसी विस्तारवादी नीति का भी तोड़ निकालना है। चीनी राष्ट्रपति के साथ इसी महीने टेलीफ़ोन पर दो घंटे की बातचीत से पहले उन्होंने कहा था कि वे अमेरिकी लोगों और मित्र देशों के हितों के लिए चीन के साथ परिणाम-मूलक बातचीत के लिए तैयार हैं। लेकिन बातचीत के दौरान, उससे पहले और उसके बाद वे कई बार चीन के विस्तारवादी इरादों, धौंस की नीति, बौद्धिक संपदा की ठगी और मानवाधिकारों के हनन की बात कर चुके हैं। दक्षिण चीनी समुद्र में व्यापार मार्ग खुले रखने के लिए अमेरिका ने इसी महीने दो अमेरिकी युद्ध पोतों के साथ युद्धाभ्यास भी किया था।
राष्ट्रपति बाइडन और विदेश मंत्री ब्लिंकन ने अभी तक अपनी चीन संबंधी नीति के पत्ते तो नहीं खोले हैं लेकिन उनके अब तक के नरम-गरम बयानों से लगता है कि वे चीन से निपटने की किसी ऐसी रणनीति को तैयार कर रहे हैं जिसमें मित्र देशों की सलाह और उनके हितों की भूमिका भी रहेगी। वे जानते हैं कि चीन के सहयोग के बिना व्यापार, अर्थव्यवस्था, जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य सुरक्षा जैसे काम नहीं किए जा सकते। लेकिन वे चीन को अंकुश में भी रखना चाहते हैं ताकि वह अंतरराष्ट्रीय क़ायदे-क़ानून में रहे और शक्ति संतुलन को न बिगाड़े। इसलिए उन्होंने अभी तक ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए शुल्क भी नहीं हटाए हैं। वह चाहते हैं कि चीन अपनी मंडियाँ खोले। भारत और दूसरे कई व्यापारिक देश भी यही चाहते हैं ताकि उनका व्यापारिक घाटा कम हो। चीन से सख़्ती से पेश आने के लिए बाइडन पर राजनीतिक दबाव भी है। उनके सख़्त बयानों के बावजूद ट्रंप और उनकी रिपब्लिकन पार्टी के नेता बाइडन पर चीन के हाथों बिकने के आरोप लगा रहे हैं।
जो बाइडन को सत्ता में आए एक महीना से ज़्यादा हो चुका है। कुल मिलाकर बाइडन सरकार ने अभी तक जो कुछ किया है उससे किसी दूरगामी बदलाव की बजाए निरंतरता की तसवीर उभरती है। उन्होंने कुल मिला कर नौ राष्ट्रपतियों के साथ काम किया है। इसलिए उनके पास अनुभव की कमी नहीं है। उन्हें जनादेश भी बदलाव का मिला है। उनके सामने चुनौतियाँ भी ऐसी हैं जो दूरगामी बदलाव चाहती हैं। जैसे जानवरों से फैलने वाली महामारियों की चुनौती। जलवायु परिवर्तन की चुनौती। अक्षय ऊर्जा के संग्रहण की चुनौती। बेरोज़गारी और आर्थिक विषमता की चुनौती। साइबर सुरक्षा और आतंकवाद की चुनौती।
इन सब चुनौतियों का सामना करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग और नेतृत्व की ज़रूरत है। उसे हासिल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं में सही प्रतिनिधित्व की ज़रूरत है और इन सभी को हासिल करने के लिए दूरगामी बदलावों की ज़रूरत है। जो बाइडन की बातों से लगता है कि वे यह सब समझते तो हैं लेकिन कितना कर पाएँगे यह देखना है।