क्या फासीवाद लौटेगा? इटली में मुसोलिनी क्यों याद आने लगा

06:55 pm Sep 27, 2022 | अमित कुमार सिंह

क्या दुनिया में फासीवाद की फिर से वापसी हो रही है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर जिस फासीवाद और मुसोलिनी को कोसा जाता है, उसी की कभी तारीफ़ करने वाली नेता इटली की प्रधानमंत्री कैसे बनने जा रही हैं? जो पार्टी कुछ समय पहले तक नियो-फासिस्ट यानी नव-फासीवादी कही जाती थी उसकी इटली में जीत कैसे हो गई?

दरअसल, इटली में एक घोर दक्षिणपंथी 'ब्रदर्स ऑफ़ इटली पार्टी' और इसकी नेता जॉर्जिया मेलोनी की जीत हुई है। मेलोनी का देश की पहली महिला प्रमुख बनना तय है। मेलोनी और उनकी पार्टी मुसोलिनी और फासीवाद को लेकर चर्चा में रही हैं। उनकी इसलिए आलोचना की जाती रही है कि मेलोनी ने एक किशोरी के रूप में तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी की प्रशंसा की थी। यदि उनके इतिहास को छोड़ भी दें तो वह जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करती हैं उसकी भी जड़ें फासीवाद में तलाशी जाती हैं। ब्रदर्स ऑफ़ इटली पार्टी एक दक्षिणपंथी लोकलुभावन और रूढ़िवादी राजनीतिक दल है। उसे पहले नव-फासीवादी पार्टी के रूप में भी जाना जाता था। लेकिन मेलोनी ने उसके नव-फासीवादी अतीत से खुद को दूर कर लिया है और खुद को एक सीधी-सादी व अडिग नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की है।

तो सवाल है कि जॉर्जिया मेलोनी या उनकी पार्टी खुद को मुसोलिनी, फासीवाद या नव-फासीवाद से दूर बताने की कोशिश क्यों कर रही है। आख़िर मुसोलिनी, फासीवाद में ऐसा क्या है कि वे खुद को उनसे जोड़ना नहीं चाहते हैं? यदि फिर से फासीवाद या फासीवादी पार्टी आ जाए तो क्या हो सकता है?

फासीवाद का जन्मदाता मुसोलिनी को ही माना जाता है। मुसोलिनी का पूरा नाम बेनिटो मुसोलिनी था। वह इटली का एक राजनेता था जिसने राष्ट्रीय फासिस्ट पार्टी का गठन किया था। वह फासीवाद के विचार की नींव रखने वालों में से प्रमुख था। मुसोलिनी किस तरह का शख्स था इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब 1914 में प्रथम विश्व युद्ध में उसकी बात नहीं सुनी गई तो उसने फासीवादी विचार वाली पार्टी का गठन कर लिया। वह चाहता था कि इटली प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन और फ्रांस की ओर से लड़े और वह इसके निष्पक्ष रहने के ख़िलाफ़ था। तब वह वहाँ के समाजवादी दल के मुखपत्र 'आवांति' का संपादक था, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध को लेकर दिये गये उसके बयान के बाद उसे संपादक पद से हटा दिया गया था। 

इसी घटना के बाद मुसोलिनी ने 1919 में अपना एक अलग दल बनाया। उसने उसका नाम फासी-दि-कंबात्तिमेंती रखा। इसमें उसने उन्हीं लोगों को रखा जो 1914 में उसके विचार वाले थे। इसमें खास तौर पर भूतपूर्व सैनिक आए। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद माहौल ऐसा था कि मुसोलिनी और उसकी पार्टी काफी तेजी से आगे बढ़ी। तब समाजवादी कमजोर हो रहे थे, भूतपूर्व सैनिकों में बेकारी फैल गई थी, भ्रष्टाचार बढ़ गया था और राष्ट्रीयता जोर पकड़ रहा था। इसी के साथ मुसोलिनी ताक़तवर होता गया। 

इस फासीवादी पार्टी के दम पर ही मुसोलिनी एक दिन इतना ताक़तवर हो गया कि उसने सीधे रोम शासन को चुनौती दे डाली।

वर्ष 1922 का अक्टूबर महीना था। रोम की सड़कों पर मुसोलिनी की फासीवादी दल के हजारों सदस्य थे। अपने पक्ष में हालात देख मुसोलिनी ने चेतावनी दे डाली कि या तो बिना खून खराबे के उसे सत्ता सौंप दी जाए या फिर वह चढ़ाई कर देगा। वहाँ के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सेना बुलाने का आदेश दिया, लेकिन वहाँ के किंग ने गृह युद्ध की आशंका को देखते हुए सेना बुलाने के बजाए मुसोलिनी को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया। 

मुसोलिनी प्रधानमंत्री बना और इसके साथ ही उसने दिखा दिया कि क्रूरता किस हद तक जा सकती है। फ़ासिस्टों ने इटली के संविधान में अनेक बदलाव किए। ये बदलाव पार्टी और राष्ट्र दोनों को मुसोलिनी के अधिनायकवाद में जकड़ते चले गए। उसने शासन का तरीका तानाशाही का चुना। यानी आम लोगों के कोई अधिकार नहीं, सत्ता से कोई सवाल नहीं, विरोधियों को ख़त्म करने की नीति, कोई जवाबदेही नहीं, मनमाने फ़ैसले, आदि। इसी क्रम में 1935 का साल काफ़ी अहम है। इसी साल इसने अबीसीनिया पर हमला किया। कहा जाता है कि यहीं से द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ। 

अंतरराष्ट्रीय मामलों में मुसोलिनी ने हिटलर के साथ संधि कर ली थी। जब द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा तो हिटलर और मुसोलिनी यूरोप में एक तरफ थे और दूसरी तरफ़ ब्रिटेन और फ्रांस। इस युद्ध में फासिस्टों की हार हो रही थी। इन हार की वजह से 1943 तक ऐसी स्थिति हो गई कि मुसोलिनी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। उसे हिरासत में ले लिया गया। लेकिन उसी साल बाद में हिटलर ने उसे छुड़ा लिया।

हालाँकि, इसके बाद भी फासिस्ट हारते चले गए और 1945 में मित्र सेनाएँ इटली पहुँच गईं। कहा जाता है कि मुसोलिनी स्विट्जरलैंड भागने के प्रयास में देश के ही विरोधियों के हाथ लग गया। क्रूरता के लिए उसे मौत की सजा दी गई।

मुसोलिनी का तो अंत हो गया और साथ ही उसकी पार्टी भी तब ख़त्म हो गयी। लेकिन बाद में नव-फासीवाद आ गया। नव-फासीवाद द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की एक विचारधारा है जिसमें फासीवाद के महत्वपूर्ण तत्व शामिल हैं। नव-फासीवाद में आमतौर पर अल्ट्रानेशनलिज्म, नस्लीय वर्चस्व, लोकलुभावनवाद, सत्तावाद, स्वदेशीवाद, ज़ेनोफोबिया और आप्रवास-विरोधी भावना शामिल हैं। इसके साथ ही इसमें उदार लोकतंत्र, सामाजिक लोकतंत्र, संसदवाद, उदारवाद, मार्क्सवाद, नवउदारवाद, साम्यवाद और समाजवाद का विरोध भी शामिल है।