मायावती-अखिलेश के गठबंधन ने बीजेपी और कांग्रेस, दोनों की नींद उड़ा दी है। मंगलवार को मायावती का जन्मदिन था। अखिलेश यादव विशेष तौर पर मायावती को बधाई देने पहुँचे। मायावती ने बाहर आकर अखिलेश का स्वागत किया। अखिलेश ने मायावती को शाल ओढ़ाया और बधाई दी। फिर दोनों में बातचीत हुई। दोनों नेताओं में क्या बात हुई, इस बात का ख़ुलासा नहीं हुआ। पर मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं को जो संदेश दिया वह काफ़ी है।
मायावती का संदेश साफ़ है कि वह बीजेपी और कांग्रेस दोनों से अलग एक नये विकल्प की तलाश में हैं और यह विकल्प खोजने में ही उनकी भविष्य की राजनीति छिपी है।
मायावती ने दोनों ही दलों को जमकर कोसा। दोनों की ही तीखी आलोचना की। दोनों की लानत-मलानत की। मायावती-अखिलेश की दोस्ती से पहले यह अटकल तेज़ थी कि क्या यूपी में कांग्रेस के साथ एक महागठबंधन बनेगा या नहीं पर दोनों ने ही कांग्रेस से हाथ मिलाने से इनकार किया।
कांग्रेस को रखा निशाने पर
मायावती ख़ासतौर पर कांग्रेस पर रहम करने को तैयार नहीं दिखीं। बसपा सुप्रीमो ने कहा, 'कांग्रेस ने देश पर सबसे ज़्यादा शासन किया है पर वह लोगों की उम्मीदों पर ख़री नहीं उतरी। विकास की प्रकिया में गरीब, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उनका हक़ नहीं दिया।'
मायावती ने यह भी संदेश दिया कि हाल ही में तीन राज्यों में जीत के बाद भी कांग्रेस में कोई नया बदलाव नहीं दिखा। मायावती ने कहा, 'जीत के बाद सरकार बनी पर इन तीनों राज्यों में किसानों की कर्ज़माफ़ी के मसले पर उँगलियाँ उठने लगी हैं।' उन्होंने कहा कि तीनों राज्यों में क़र्ज़ माफ़ी के लिए 9 महीने पहले की समय सीमा क्यों तय की गई और सिर्फ़़ 2 लाख तक की ही क़र्ज़ माफ़ी क्यों की जा रही है
यह बता दें कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी कांग्रेस की क़र्ज़माफ़ी पर सवाल उठाए हैं। तो क्या दोनों में कोई जुगलबंदी है फ़िलहाल ऐसा लगता नहीं है। मायावती की निगाहें कहीं और हैं। अर्जुन की नज़र चिड़िया की आँख पर है। क्या है चिड़िया की आँख बताते हैं।
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बीजेपी पर भी हमला
ऐसा नहीं है कि मायावती सिर्फ़ कांग्रेस पर ही बरसीं। मंगलवार को वह बीजेपी पर भी हमलावर रहीं। मायावती ने कहा, 'मोदी सरकार ने देश के लोगों को धोखा दिया है। चाहे वह किसान हो या फिर ग़रीब या छात्र, किसी से किए वादे पूरे नहीं किए। मोदी अपनी रैलियों में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी सारे वादे धरे के धरे रह जाएँगे।' यानी वह बीजेपी पर भी रहम नहीं कर रही हैं।
इस बयान के बाद वह दोनों दलों को एक ही वाक्य में निशाने पर लेती हैं। उन्होंने रक्षा सौदे घोटालों के संदर्भ में कहा कि रक्षा मामलों की ख़रीद में उचित प्रक्रिया का पालन होना चाहिए ताकि बोफ़ोर्स और रफ़ाल जैसे गड़बड़झाले न हों।
मायावती ने बीजेपी ओर कांग्रेस दोनों को ही घोटालों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया। यहीं से उनकी भविष्य की राजनीति के सूत्र निकलते हैं।
दरअसल, मायावती को लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिलने वाला है। ऐसे हालात में, जिसके पास ज़्यादा से ज़्यादा सांसद होंगे वह उतनी ही मज़बूत स्थिति में होगा।
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उपचुनाव से बदले हालात
कैराना, फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में अखिलेश से हाथ मिलाने से यह साफ़ हो गया कि दोनों दल, बीएसपी और एसपी, यूपी में बीजेपी से ज़्यादा सीटें जीत सकते हैं। मायावती 38 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं और अखिलेश भी इतनी ही सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं। ज़ाहिर है कि दोनों दलों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने के हालात बन रहे हैं।
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लगभग 50 सीटें जीतने की उम्मीद
अगर 'ओपिनियन पोल्स' और राजनीतिक पंडितों की बात पर भरोसा करें तो मायावती-अखिलेश दोनों मिलकर लगभग 50 सीटें जीत सकते हैं। बीजेपी और कांग्रेस के बाद किसी भी एक गुट के पास सबसे अधिक सीट होंगी, ऐसा अनुमान है। ऐसी स्थिति में वह गुट जिस भी दल या गठबंधन को समर्थन देगा, सरकार उसी की बनेगी। अखिलेश की यह राजनीतिक मज़बूरी है कि वह बीजेपी के साथ नहीं जा सकते।
ऐसे हालात में दोनों नेता या तो कांग्रेस को समर्थन दे सकते हैं या फिर किसी तीसरे को। कांग्रेस अगर ख़ुद सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होगी, जिसकी पूरी संभावना है तो वह बीजेपी को रोकने के लिए किसी तीसरे को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे सकती है। यानी कर्नाटक का मॉडल अपनाया जा सकता है।
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रणनीति के तहत किया हमला
कर्नाटक में कांग्रेस ने कम विधायकों वाली जेडीएस के नेता एस. कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार किया। यह स्थिति मायावती के लिए अद्भुत है। यानी ऐसे हालत बन सकते हैं कि वह ख़ुद को प्रधानमंत्री के दावेदार के तौर पर पेश कर सकती हैं और बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस उन्हें समर्थन के लिए मजबूर हो सकती है। मायावती का कांग्रेस पर हमला इस रणनीति का हिस्सा है।
मायावती को 2014 के चुनाव में 19 फ़ीसद वोट मिलने के बावजूद एक भी लोकसभा की सीट नहीं मिली। अगर इस बार भी वह अकेले लड़तीं तो उनके लिए यह मुश्किल होता।
दलित पीएम पर दावेदारी मजबूत
फिर एक और बात उनके पक्ष में जाती है, जो दूसरे नेताओं पर उनकी दावेदारी को भारी बना देती है। यह है उनका दलित होना। पिछले दिनों दलित चेतना में काफ़ी उभार आया है। दलित अपने हक़ की लड़ाई को निर्णायक मोड़ पर लाने को बेताब है। यह माँग उठ सकती है कि आज़ादी के सत्तर साल बाद देश में दलित प्रधानमंत्री होना चाहिए। देश में मायावती निर्विवाद रूप से दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं।
दलित प्रधानमंत्री के नाम पर उनका दावा सबसे ऊपर होगा। मायावती इस बात को बख़ूबी जानती हैं कि त्रिशंकु लोकसभा में हालात उनका साथ दे सकते हैं। लिहाज़ा वह अपनी पोजीशनिंग करने में लगी हैं। दोनों दलों को आँख दिखा रही हैं। कौन जाने वह अपनी रणनीति में कामयाब हो जाएँ।