
इतिहास की रोशनी में आज़ादी: स्वतंत्रता का असली मतलब क्या?
भारत में आज की राजनैतिक लड़ाई के उत्स तक यदि जाना है तो इतिहास के तथ्यों को खंगालने और इस पर एक सरसरी नज़र डाले बिना यह संभव नहीं है। सच तो यही है कि सोलवीं से सत्रहवीं शताब्दी के जिस दौर से हम गुजर रहे थे वह कूपमंडूपता, सामन्ती व कृषि व्यवस्था का दौर था। सभी भारतीय भाषाओं के मध्ययुगीन कवि अपनी रचनाओं, अपनी वाणी में समाज में व्याप्त जकड़न, धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास, रूढ़िवादी जातीय भेदभाव व कठमुल्लापन आदि के खिलाफ भले ही तल्ख आवाज उठा रहे थे, पर इन परिस्थितियों को बदलने के लिये कोई भौतिक आधार नहीं था।
इसी दौर में यूरोप में वैज्ञानिक खोजों के चलते तर्क और वैज्ञानिक चेतना का अभूतपूर्व विकास हुआ और इसी की वजह से यूरोप में पुनर्जागरण की हवा बही। इस ’’रेनेसां’’ के कारण ही यूरोप में औद्योगिक क्रांति की नींव पड़ी। इस औद्योगिक क्रान्ति ने यूरोप की भौतिक, आध्यात्मिक व राजनैतिक परिस्थितियों को बदलने में बड़ी भूमिका अदा की। सामंती राज व्यवस्था इस औद्योगिक क्रांति के बोझ को संभालने में असफल साबित हुई और अंततः सन् 1789 आते आते फ्रांस में राजशाही व्यवस्था को धरासायी कर पूंजीपतियों के नेतृत्व में किसानों, व्यापारियों व मजदूरों के सहयोग से एक नई लोकतांत्रिक ढंग की सरकार का गठन किया गया। राजशाही की जगह लोकतांत्रिक सरकारों के गठन की शुरुआत पहली बार फ्रांस से शुरू होकर पूरे यूरोप मेंं अलग-अलग ढंग से आकार लेती गई।
यह याद रखना ज़रूरी है कि यूरोप में हुई इस औद्योगिक क्रांति ने एक नई समस्या पैदा की ’’अतिरिक्त उत्पादन’’ की समस्या, इसे खपाने और मशीनों के लिये कच्चे माल की पूर्ति की समस्या। इस अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य पर विश्व के अद्वितीय विचारक कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’’पूंजी’’ में इस पर इतना सटीक अकाट्य और वैज्ञानिक विश्लेषण किया है कि इस व्यवस्था के बने रहने तक संभवतः यह चुनौती जिंदा रहेगी। बहरहाल यहां अतिरिक्त मूल्य पर चर्चा करने की जगह अतिरिक्त उत्पादन पर ही चर्चा प्रासंगिक होगी। यह अतिरिक्त उत्पादन ही वह आधार था, उपनिवेशों के बनने का, अतः उपनिवेशों की तलाश की दौड़ में यूरोप के तमाम देश अपने नाविक बेड़ों के साथ अविकसित एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिकी देशों की ओर भाग-दौड़ करने लगे। अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली सभी उपनिवेश स्थापित करने व व्यापार करने के मुहिम में शामिल हो गये।
लेकिन ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति की लहर भाप की शक्ति की खोज के चलते (जेम्स वॉट) सबसे तेज थी और उसका समुद्री नाविक बेड़ा भी अन्य यूरोपीय देशों के मुकाबले सबसे उन्नत और बेहतर था, परिणाम यह हुआ कि ब्रिटेन अपनी व्यापारिक गतिविधियों को एशिया व अक्रीका के देशों में फैलाने में कामयाब हुआ।
ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि के तौर पर पहला अंग्रेज कैप्टन हाकिन्स नाम का व्यापारी भारत आया और उसने भारत में व्यापार करने की मुगल बादशाह जहांगीर से अनुमति मांगी। कुछ शर्तों के साथ अनुमति मिलने के बाद 1607 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारी थामस मूर ने सूरत में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। इस बीच अंग्रेज व्यापारी चुपचाप अपने व्यापारिक गतिविधियों को अंजाम देते रहे और मुगलों की सत्ता के आगे नतमस्तक बने रहे पर जैसे ही 1707 में मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई, और केन्द्रीय सत्ता का क्षरण होना शुरू हुआ, देश में अराजकता का दौर भी शुरू हो गया। अपने-अपने क्षेत्र के राजे-रजवाड़े, नवाब व सुल्तान ऐश, आराम व रंगरेलियों के साथ सत्ता चलाने लगे परिणाम स्वरूप सत्ता बिखरने और कमजोर होने लगी। चालाक अंग्रेज इससे बेखर न थे, उन्होंने सत्ता अपने हाथ में लेने की ठानी और इसकी शुरुआत की सन 1757 में प्लासी के युद्ध से। अपने कूटनीतिक चाल से अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब सिराजुदौला के सेनापति मीरजाफर को बंगाल की नवाबी का लालच देकर अपनी तरफ़ मिला लिया और नवाब को पराजित कर बंगाल की सत्ता पर कब्जा कर लिया। भारत में लगभग दो सौ वर्षों की सत्ता में 1757 का वर्ष वह मोड़ या क्षण है जिसके बाद अंग्रेजों ने भारत में सत्ता का स्वाद लेना शुरू कर, धीरे-धीरे पूरे भारत में कब्जा कर लिया।
सन 1757 से 1857 के लगभग सौ वर्षों तक अंग्रेजों की यही तोड़-’फोड़ की कूटनीति और अपार शोषण का दमन चक्र जारी रहा। अंग्रेज अपने हितों व सत्ता को पुख्ता करने के लिये ब्रिटेन में विकसित नई तकनीक का उपयोग करते हुए आवागमन के लिये रेल सूचना के लिये मेल व प्रशासनिक व्यवस्था के लिये जेल की नींव डाली। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि सन् 1857 का गदर या प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष सामंतवाद को बचाने की आख़िरी लड़ाई थी जो अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में राजे-रजवाड़ों, नवाबों, जमींदारों, किसानों व सैनिकों के सहयोग से लड़ी गई और असफल रही।
1857 का विद्रोह भले ही असफल हो गया हो, लेकिन ब्रिटिश सत्ता चौकन्नी हो गई और जल्द ही उसने सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से छीनकर अपने हाथों में ले ली।
ब्रिटिश साम्राज्य को यह समझने में देर नहीं लगी कि भारत में अब हिन्दू मुस्लिमों की एकता की डोर बहुत मज़बूत है और इस एकता की डोर को तोड़े बगैर वे भारत में ज्यादा दिन तक सत्ता में काबिज नहीं रह सकते। एकता के इस डोर को तोड़ने के लिये उन्होंने जो क़दम उठाये वह बड़ा अकादमिक था। इतिहास लेखन से अंग्रेज शासकों ने इसकी शुरुआत की। नौकरशाह जेम्स मिल एक इतिहासकार के रूप में सामने लाये गये और उसने भारतीय इतिहास का विकृत काल विभाजन भाववादी रूप में धर्म के आधार पर करते हुए चालाकी यह की गई कि प्राचीनकाल को हिन्दूकाल मध्य को मुस्लिम व वर्तमान को ब्रिटिशकाल के रूप में व्याख्यायित कर, इस विना पर ’’फूट डालो और राज करो’’ की नीति की आधारशिला रखी, इतिहास के इस विकृतकाल विभाजन का परिणाम यह हुआ कि भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकारों के मूल्यांकित व्याख्याओं में भावनिष्ठ व वस्तुनिष्ठता का द्वन्द उभरकर सामने आया।
लार्ड मैकाले ने इसी दौर के आस पास भारत में नई शिक्षा व्यवस्था की नींव डाली जिससे अंग्रेजी पढ़े लिखे भारतीय नौजवान अंग्रेजों की शासन व्यवस्था का सुचारू संचालन कर सकें। इन पढ़े लिखे नौजवानों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ने लगी तो उन्हें यह महसूस होने लगा कि वे गुलाम हैं और गुलामी से मुक्त हुये बिना न तो वे सम्मान के साथ जी सकते हैं और न देश अंग्रेजों के अबाध शोषण चक्र से आज़ाद हो सकता है। आज़ादी कि इसी भूख के चलते सन् 1885 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये बने इस प्रथम संगठन पर ब्रिटिश सत्ता की कुटिल दृष्टि न पडे़, यह कैसे संभव था? 1906 में मुस्लिम नवाबों, जमींदारों, उच्च सैनिक अफसरों और मुस्लिम नौकरशाहों को उकसाकर तथा हिन्दू बहुमत का भय खड़ाकर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समानांतर मुस्लिम लीग को खड़ा करने में साम्राज्यवाद ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, साथ ही जेम्स मिल के सपने को पूरा करते हुये ब्रिटिश सत्ता ने बाद में इसी तर्ज पर आर.एस.एस. व हिन्दू महासभा की स्थापना में मदद कर स्वतंत्रता आंदोलन की धार को कमजोर करने में कोई कसर नहीं रखी।
अंग्रेजों के इस घिनौनी चाल के बावजूद स्वतंत्रता आंदोलन की रफ्तार जोर पकड़ती रही, बाल, पाल और लाल अर्थात बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्रपाल और लाल लाजपत राय के सामूहिक सदारत के दौर में तिलक का यह नारा सारे देश में गूंजा। स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे। इस नारे की राष्ट्रवादी लहर ने देश में एक नये जोश का संचार किया, पर यह राष्ट्रवादी नारा या आंदोलन किसी धर्म, जाति व नरल के संकीर्ण राष्ट्रवाद से अलग अंग्रेजी उपनिवेश से मुक्ति के आह्वान के रूप में था।
स्वतंत्रता आंदोलन के और विवरण में गये बिना सीधा गांधी के प्रवेश से आज़ादी के आंदोलन को किस तरह से गति और धार मिली इसका संक्षिप्त उल्लेख प्रेरणास्पद होगा। बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी अंग्रेजी उपनिवेश दक्षिण अफ्रीका से अंग्रेजों की यातनाओं को झेलते व लड़ते हुए अपने वतन लौटे थे और वे यह अच्छी तरह समझ गये थे कि ताक़तवर अंग्रेजी सत्ता, जिसके राज में कभी सूरज नहीं डूबता था, के ख़िलाफ़ किन अस्त्रों से लड़ना है। यह जानते हुए भी पहले उन्होंने देश की हालात और लोगों की स्थिति परिस्थिति को समझने के लिये देशव्यापी यात्रा की और गांधी को यह समझने में देर नहीं लगी कि यदि इन अधनंगे भूखे लोगों को अंग्रेजी दमन चक्र से मुक्ति दिलानी है तो उन्हें इसी तरह अधनंगे रहकर ही इनको लड़ने के लिये प्रेरित करना पड़ेगा। इसी का परिणाम था कि गांधी ने अपने बैरिस्टरी का बाना उतारकर करोड़ों साधारण भारतीयों की तरह अधनंगे रहने व सदा जीवन जीने का फैसला किया, इतना ही नहीं, वे यह कि अच्छी तरह समझ गये थे कि देश के करोड़ों हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई व पारसियों तथा हरिजन, आदिवासी, महिला व उत्पीड़ित जनों की एकता को मजबूत किये बिना देश को अंगरेजों की गुलामी से मुक्ति नहीं दिलाई जा सकती है और न ही देश आजादी की साँस ले सकता है। गांधी ने इसके लिये रास्ता चुना अहिंसा के मार्ग का, जिसका प्रयोग वे दक्षिण अफ्रीका में करके आये थे। गांधी इसी सत्य और अंहिसा का आधार बनाकर असहयोग, आंदोलन चंपारण सत्याग्रह, दांडी मार्च व उपवास के रास्ते चलते हुए अंततः ’’अंग्रेजों भारत छोड़ो’’ का बिगुल फूंककर ’करो या मरो’ के नारे तक अपार जन समूह के साथ पहुंचे और अंग्रेजों को सचमुच में भारत छोड़ने के लिये मजबूर कर दिया। यह दुनिया में सत्य, अहिंसा पर आधारित पहला अद्वितीय संघर्ष था, और इस शांतिपूर्ण आंदोलन में गांधी के आव्हान पर देश के करोड़ों-करोड़ लोग अपना घर बार, अपना कारोबार छोड़कर एकजुट होकर शामिल हुए, यातनायें झेलीं और जेल गये। यह विश्व के लिये एक अद्भुत घटना थी। अपने इस पूरे संघर्ष में गांधी पल भर के लिये सत्य और अहिंसा के मार्ग से विचलित नहीं हुए, चाहे जितनी बड़ी कठिनाई उनके सामने क्यों न आई हो? इस रास्ते पर चलकर ही गांधी ‘‘ईश्वर ही सत्य है की जगह सत्य ही ईश्वर है’’ की खोज तक पहुंचे और सत्य को ईश्वर के समकक्ष खड़ा किया। एक धार्मिक गांधी की सत्य की यह खोज मानव जाति के लिये एक बड़ी उपलब्धि है।
आजादी की लड़ाई इतनी सपाट नहीं थी जितनी समझी जा रही है, विशेषकर सन 45 से 47 के दौरान आज़ादी मिलने की बेला में इसका रौद्र रूप देखने को मिला। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अंग्रेजी साम्राज्यवादियों ने जो विष बीज बोया था उसका असर द्विराष्ट्र के सिद्धांत के रूप में अपने विभत्सता के साथ प्रगट हुआ।
जिन्ना पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग पर अड़ गये, भारी खून खराबे को देखते हुए कांग्रेस को यह मांग माननी पड़ी गांधी के न चाहते हुए भी, पर अंग्रेज अपने उद्देश्य में सफल हुए। बाद में पाकिस्तान ब्रिटिशर की जगह अमेरिकी साम्राज्यवाद की गोद में बैठकर सेन्टो का सदस्य बना और कश्मीर समस्या का अर्न्तराष्ट्रीयकरण किया जिसको लेकर आज भी दोनों ओर की साम्प्रदायिक ताकतें इसे मुद्दा बना रही हैं। वहीं दूसरी ओर भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने और अंग्रेजों का साथ देने वाले सावरकर और संघ टोली यह हवा बनाती रही कि जिनकी पुण्य भूमि इस भू-भाग में नहीं है वे इस देश के नागरिक नहीं हो सकते, इस तरह वे अराजकता में हिस्सेदार बनकर पृथक हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देख रहे थे।
लेकिन इस साम्प्रदायिक सिद्धांत को नकार कर अंततः ‘देश गांधी, नेहरू, सुभाष, पटेल, मौलाना आजाद व सरहदी गांधी के रास्ते चलते हुए आज़ादी प्राप्त करने में कामयाब हुआ त्रासद विभाजन के बावजूद। यह आजादी हमने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ही नहीं प्राप्त की बल्कि सामंतवाद से भी मुक्त हुये और साम्प्रदायिकता से भी।
विभाजन की इस भीषण त्रासदी के दौरान दोनों हिस्सों के हजारों हजार लोग बेघर हो दर-बदर हुए, लाखों जानें गईं, संपत्ति और औरतों की इज्जत लूटी गई, दरिंदगी का नंगा नाच हुआ, पर सबसे बढ़कर इस विभाजन ने आज़ादी की लड़ाई के मूल्य धर्म-निरपेक्षता व भाईचारे को गहरी चोट पहुंचाई, इतना ही नहीं, इन मूल्यों के सबसे बड़े पैरोकार गांधी को हमसे छीन लिया।
आज़ादी की इस घड़ी में आपसी घृणा का जो विषाक्त वातावरण बना वह अकल्पनीय है। विशेषकर बंगाल, पंजाब व बिहार में। गांधी इस माहौल से इतने उद्विग्न और दुखी हुए कि वे दिल्ली छोड़कर नोवाखाली पहुंच गये और तीन महीने तक इस क्षेत्र की गली-कूचों में पैदल घूम-घूमकर शांति व सद्भाव कायम करने के काम में जुटे रहे। और इस काम को पूरा करके ही वे दिल्ली लौटे।
इस असीमित घृणा का ही परिणाम था कि उग्र हिन्दुत्ववादी गोडसे ने गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी। अहिंसा के पुजारी, शांति व साम्प्रदायिक सद्भाव के मसीहा की इस हत्या के बाद आर.एस.एस. की शाखाओं में खुशियां मनाई गईं, मिठाई बांटी गई और इस हत्या को हत्या नहीं, वध कहा गया।
यह याद रखना जरूरी है गृह मंत्री सरदार पटेल ने (संघी भाजपायी जिन्हें आजकल अपना बताने की कोशिश कर रहे हैं) खुफिया जानकारी के आधार पर प्रधानमंत्री नेहरू को पत्र लिखकर बताया था कि महात्मा की बेशकीमती जान न जाती यदि आर.एस.एस. ने घृणा का यह माहौल न बनाया होता, बाद में पटेल ने ही आर.एस.एस. पर बैन लगाकर गोलवलकर, सावरकर जैसे हिन्दू नेताओं को गांधी हत्या के षड्यंत्र में जेल में डाला था। यह अलग बात है कि पुख्ता गवाही के अभाव में संघी जेल से तो छूट गये, पर आर.एस.एस. संगठन से प्रतिबंध तभी हटा जब इसने सरकार को वचन दिया कि वह भविष्य में राजनीति में कभी भाग नहीं लेगा और केवल सांस्कृतिक संगठन बना रहेगा। पर आज क्या हो रहा है सभी जानते हैं।
लंबी जद्दोजहद और भारी कुर्बानी से मिली यह आजादी जितनी पेचीदा थी आजाद देश का पुनर्निर्माण और कृषि युगीन मूल्य मान्यताओं वाली पिछड़ी अर्थ व्यवस्था को आधुनिक व औद्योगिक अर्थव्यवस्था में तब्दील करने का रास्ता कम कठिन नहीं था। वैज्ञानिक चेतना व इतिहास बोध से लवरेज गांधी के सच्चे उत्तराधिकारी नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को लाल किले के प्राचीर से आधी रात को आजाद हिन्दुस्तान का तिरंगा फहराते हुए ’’नियति से साक्षात्कार’’ की जो ऐतिहासिक तकरीर की थी वह था दृढ़ता के साथ देश को आगे ले जाने का संकल्प। नेहरू इस संकल्प से तमाम चुनौतियों के बावजूद अपने मृत्यु पर्यन्त तक कभी एक क्षण के लिये भी नहीं डिगे।
नेहरू जब 15 अगस्त 1947 को देश का झंडा फहरा रहे थे तब वे अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री थे और इस सरकार में गांधी जी की इच्छा के अनुसार कांग्रेस नेताओं के अलावा शिखों के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार बलदेव सिंह, हरिजन मोर्चे के प्रतिनिधि हेतु बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर तथा हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि के तौर पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को शामिल किया गया था। मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि भी इस मंत्रिमंडल में शामिल थे, लेकिन वे पाकिस्तान बनने के कुछ पहले ही इस मंत्रिमंडल से अलग हो गये थे। एक संप्रभु सरकार किस आईन के आधार पर चले और देश के पुनर्निर्माण के कदम उठाये इस दिशा में 09 दिसंबर 1946 को संविधान सभा गठित कर इसकी पहली बैठक हुई।
संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को चुना गया और प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर डॉ. भीमराव आंबेडकर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। दुनिया का यह सबसे अद्भुत लिखित संविधान था जिसकी एक एक धारा पर लम्बी बहस के बाद 11 सत्र, 165 दिनों की अनवरत बैठक के बाद अंततः 26 नवंबर 1949 को यह संविधान अंगीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे संप्रभु राष्ट्र के रूप में लागू किया गया।
विभाजन की कड़वाहट और पीड़ा को झेलते हुए तथा भारी मारकाट के बीच देश को एक धर्म निरपेक्ष वास्तविक संप्रभु गणराज्य बनाने की राह में सबसे बड़े रोड़ा थे राजे रजवाड़े और नवाब जिन्हें अंग्रेज इस शर्त के साथ स्वतंत्र करके गये थे कि वे चाहें तो भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनें या पाकिस्तान के और चाहें तो दोनों देशों का हिस्सा न बनकर स्वतंत्र भी रही सकते हैं। पर गृहमंत्री सरदार पटेल के प्रयत्न व नेहरू के सहयोग से कुछ अवरोधों के बाद देशी रियासतों का विलीनीकरण भारतीय गणराज्य में कर 26 जनवरी 1950 को ’’भारत के लोगों के लिये’’ भारत का संविधान समर्पित किया गया। जिसमें राजे-महाराजे, नवाबों, आमजन, महिला-पुरूषों तथा जाति धर्म, भाषा व अन्य सभी भेदभाव के बिना सभी को समान कानूनी अधिकार तथा बालिग मताधिकार के आधार पर सभी को समान रूप से मत देने और अपने मन की सरकार चुनने का अधिकार देकर प्रजा को नागरिक बनाने का ऐतिहासिक काम किया गया। और देश में एक मज़बूत लोकतंत्र की नींच डाली गई।
15 अगस्त 1947 को आज़ाद होने के बाद देश में समावेशी व सर्वर्स्पशी संविधान तो लागू हो गया पर इसकी असली परीक्षा होनी थी देश की सरकार चुनने के बाद। देश के एक लम्बे काल खंड में 1952 पहला अवसर था जब देश की अशिक्षित और प्रायः अपढ़ जनता ने अपने भाग्य का निर्णय स्वयं किया। नेहरू के नेतृत्व में एक सदस्यीय चुनाव आयोग का गठन कर इसे स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव संपन्न कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई, और इसे दी गई भरपूर स्वायत्तता। नेहरू स्वयं देशव्यापी दौरा कर लोगों को चुनाव में भाग लेने और अपनी सरकार चुनने के लिये प्रेरित कर रहे थे। साक्षरता दर को ध्यान में रखते हुए चुनाव चिन्हों वाली मत पेटी रखी गई, जिससे अपढ़ लोग चुनाव चिन्ह के आधार पर अपना मत दे सकें। चुनाव परिणाम आने के बाद स्वतंत्रता आंदोलन की पार्टी भारी मतों से विजयी हुई।
कांग्रेस को 489 की संसद में 364 सदस्यों का बहुमत मिला। भारत की कम्प्युनिष्ट पार्टी दूसरे स्थान पर और कांग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़ी समाजवादी पार्टी तीसरे स्थान पर रही। इन्हें क्रमशः 16 एवं 9 सीटें मिलीं लेकिन आर.एस.एस. की कोख से जन्मे भारतीय जनसंघ को मात्र 3 सीटें ही प्राप्त हो सकीं।
इस प्रकार इतिहास में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने न केवल इस लोकतंत्र का सम्मान किया, बल्कि इसे मजबूत करने में भी अपनी पूरी ताक़त लगा दी। आज़ादी, समाजवाद, लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता के मूल्यों के जिस अग्रिम मोर्चे के वे सिपाही थे उसकी रक्षा के लिये नेहरू राष्ट्रीय व अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर जीवन भर लड़ते रहे? पर देश की बदहाली, गरीबी व अशिक्षा की समस्यायें उनकी आंख से ओझल नही थीं, इसके लिये वे मध्ययुगीन मूल्य मान्यताओं जैसे दकियानूसीपन, रूढ़िवादिता और अंधविश्वास को दोषी मानते हुए, इन्हें बदलने का फ़ैसला कर तेजी से औद्योगीकरण की दिशा में कदम उठाया। पारंपरिक भौतिक आधार की जगह नये भौतिक आधार या उत्पादन की नई पद्धति शुरू करने का ही परिणाम था सिंचाई का रकवा बढ़ाने के लिये भाखड़ा नंगल जैसे बांधों का निर्माण, लोहे का उत्पादन बढ़ाने के लिये भिलाई दुर्गापुर व राउरकेला जैसे स्पात कारखानों की स्थापना, अंतरिक्ष अनुसंधान के लिये इसरो, आधुनिक ऊर्जा के लिये भाभा परमाणु व अनुसंधान केन्द्र, भेल, सेल, आधुनिक शिक्षा व दक्ष पीढ़ी पैदा हो, इसके लिये आई.आई.टी. व आई.आई.एम. ,नये कल कारखानों को खड़ा करने के लिये हिन्दुस्तान मशीन टूल्स व नये अस्त्र, शस्त्र के निर्माण के लिये डी.आर.डी.ओ. की स्थापना नेहरू की दूरदृष्टि की देन थी। देश को आत्मनिर्भर बनाने व पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों के दबाव से मुक्त होने, स्वतंत्र आर्थिक विकास के रास्ते पर ले जाने व पिछड़ी कृषि युगीन व्यवस्था को औद्योगिक व्यवस्था में रूपांतरित करने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो वे नेहरू थे।
दूसरी तरफ़ संसद में दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आई थी भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी और इसकी स्थापना आज़ादी के आंदोलन के दौरान औद्योगिक नगर कानपुर में 1925 में हुई थी। लेनिन के नेतृत्व में 1917 में संपन्न हुई अक्टूबर समाजवादी क्रांति से प्रभावित होकर भारत में कम्युनिष्ट पार्टी का जन्म हुआ। देश की आज़ादी यह पार्टी क्रांति के रास्ते लाना चाहती थी। प्रयत्न भी किये पर यह संभव नहीं हो सका। लेकिन आजादी को अधूरा बताकर कम्युनिष्ट पार्टी ने नारा दिया ’’देश की जनता भूखी है यह आजादी झूठी है’’ इस तरह आजादी को अधूरी बताकर वामपंथी पूरी आजादी प्राप्त करने के काम में जुट गये। वस्तुस्थिति का आकलन किये बिना।
आर्थिक सवाल को राजनैतिक सवाल से अलग नहीं किया जा सकता। उपनिवेश से मुक्त भारत, जिसने विकास का गैरपूंजीवादी रास्ता नहीं चुना और लोकतांत्रिक ढंग से मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढांचे के तहत देश के विकास का फैसला किया, मरणोन्मुख पूंजीवाद या पतनोन्मुख पूंजीवाद की श्रेणी में रखकर कोई सही निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता और वामपंथी इसी में चूक गये।
साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की चरम अवस्था का विश्लेषण करते हुए महान लेनिन ने इस बात को बार-बार रेखांकित किया है कि, मरणोन्मुख पूँजीवाद या पतनोन्मुख पूँजीवाद ही साम्राज्यवाद है। यदि इस निष्कर्ष को अपनी तरह व्याख्यायित करने, वैज्ञानिक समझ को तिलांजलि नहीं देने व मार्क्सवाद के शब्दों में ‘‘तोता रटंत’’ नहीं हो गये हैं तो तीसरी दुनिया के प्रमुख देश भारत की सम सामयिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के विश्लेषण में वामपंथी पूरी तरह असफल रहे हैं, और इसी का परिणाम रहा भारत में दक्षिण पंथ की बढ़त का।
दुर्भाग्य से भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना का वस्तुवादी मूल्यांकन करने व तदानुरूप कार्यनीति निर्धारित कर समाज के सबसे प्रगतिशील ताक़तों को गोलबंद करने और सामाजिक मुक्ति का उदाक्ततम रास्ता तय करने की ज़िम्मेदारी इतिहास ने जिन क्रांतिकारी अग्रदस्तों पर डाली थी वे न केवल गफलत में रहे हैं, त्रासदी यह रही है कि वे साम्राज्यवादियों के गुर्गों व घोरतम प्रतिक्रियावादी ताक़तों के साथ गलबहियाँ डाले मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाते रहे हैं।
‘न जनता न कांग्रेस तीसरा विकल्प’ के नारों का धूम मचाने वाला शोर, पता नहीं इतिहास की किन अतल गहराइयों में खो गया, और कोई यह नहीं जानता कि ‘वामपंथी एकता किसी भी कीमत पर’ जैसे नारों का क्या हुआ? वाम जनवादी विकल्प जैसे नारों की दुर्गति यह हुई कि भौचक जनता इस बात को समझ पाने में तो असमर्थ रही ही स्वयं नारा देने वाले यह नहीं जान पाये कि कौन वाम है और कौन जनवादी।
बाद में एक और नया नारा सुनाई देने लगा, और वह है धर्मनिरपेक्ष जनवादी ताक़तों की एकता का, पर कोई भी यह बताने को तैयार नहीं कि यह धर्म निरपेक्ष तत्व भारत के किस भाग में और किस राजनैतिक पार्टी में पाये जाते रहे हैं। कांग्रेस में तो पाये जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
लेकिन वे इतने कमजोर नहीं हैं वे हमेशा इन नारों का स्पष्टीकरण भोथरे और रटे हुए कुछ निश्चित शब्दों में सधे ढंग से देने के आदी रहे हैं- वे हमेशा यह कहते पाये जाते रहे, कि संघर्ष के मैदान में ही यह तय होगा कि कौन वामपंथी है और कौन जनवादी- धर्मनिरपेक्ष और साथ ही वे यह भी कहते रहे हैं कि यह ‘‘विकल्प’’ संघर्ष के दौरान ही बनेगा लेकिन दुर्भाग्य से वे अपनी अवसरवादी कार्यनीति और दिवालिया समझ के चलते यह देख पाने में बिल्कुल असमर्थ रहे हैं कि यार्थथ को न तो झूठलाया जा सकता है और न इतिहास की मनमानी व्याख्या कर इसे तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है।
देश के वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में इस वक्त जैसा घना धुंध छाया हुआ है, जड़ता की जैसी स्थिति बनी हुई है, आजादी के बाद ऐसी स्थिति कभी नहीं रही, क्या यह आकस्मिक है? या फिर उन सामाजिक-राजनैतिक शक्तियों की दिशाहीनता का सूचक है जो वक्त की तल्खी को पकड़ने-समझने में असफल रहे हैं।
निःसंदेह रूप से न तो वक्त ठहरा है और न ही इतिहास लेकिन स्पष्ट उद्देश्य और दिशा के बिना स्वतः प्रेरित संघर्ष अंतत्वोगत्वा पुंसत्वहीन और निरर्थक होकर उन शक्तियों को ही निराश और पस्त बनाता है जो पूरे उत्साह और जोश के साथ इसमें हिस्सा लेते हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है और इससे निजात पाने की संभावना निकट भविष्य में दिखाई नहीं देती।
यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि भारत की वास्तविक मजदूर वर्ग की पार्टी एक बेमेल विवाह करने की धुन में पिछले कई वर्षो से कहाँ से कहाँ पहुँच गई है- ये पिछले वर्ष न केवल भारत के लिये वरन् दुनिया के लिये कितने तूफानी रहे हैं। इसके आकलन की आज सबसे अधिक जरूरत है।
लेकिन दुर्भाग्य से कम्युनिष्ट पार्टी इन दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी दलों के बीच धर्मनिरपेक्ष जनवादी तत्वों की तलाश करते-करते अन्ततः इन ताक़तों द्वारा चलाये जाने वाले साम्राज्यवाद प्रेरित राजनैतिक मुहिम में (मुहिम चाहे तानाशाही विरोधी मोर्चे के रूप में रही हो, चाहे केन्द्र बनाम राज्यों के अधिकार संबंधी प्रश्न को लेकर या भ्रष्टाचार के मुद्दे से संबंधित) ‘‘गाहे बगाहे’’ शामिल होकर उस तर्क की ही पुष्टि करती नजर आती है- जिसके अनुसार- ‘‘सत्ता के बाहर के बुर्जुआ दलों के साथ मिलकर सत्ता में बैठे बुर्जुआ दल की खिलाफत करना क्रांतिकारिता है।’’
ध्यान रखा जाए कि यह वह दौर भी था जब स्व. इंदिरा गांधी के नेतृत्व में प्रगति और जनवाद की ताक़तें बैंक, धातु खनन, प्रीवी पर्स, कोयला खदानें, अनाज, व्यापार, पेट्रोलियम व ऊर्जा के अन्य स्रोतों के राष्ट्रीयकरण व भूमि हदबंदी, पोखरण विस्फोट सहित अन्य अनेक कदमों द्वारा एक कठिन लड़ाई लड़ रही थीं, न केवल देश के स्तर पर इजारेदारों-सामान्तों के विरूद्ध, बल्कि दुनिया के पैमाने पर गुट निरपेक्ष आन्दोलन में एक नई धार आ रही थी- ओपेक, अकटांड जैसे तेल व खनिज उत्पादक देशों के संगठनों के मार्फत- नई विश्व अर्थव्यवस्था व मुद्रा प्रणाली द्वारा साम्राज्यवाद के नव उपनिवेशवादी चालों को न केवल सीमित किया जा रहा था, वरन् शांति की तेज आवाज के जरिये युद्ध की शक्तियों को बेनकाब कर, उनके विरूद्ध मोर्चाबन्दी भी की जा रही थी।
इसका ही प्रत्युत्तर था साम्राज्यवादियों की मदद से देश की धुर दक्षिणपंथी व धुर वामपंथी ताक़तों के सहमेल से चलाया गया ‘‘सम्पूर्ण क्रांति’’ आन्दोलन, जिसके तहत फतवा दिया गया, दल विहीन जनतंत्र व भ्रष्टाचार रहित सरकार का- और लोगों ने इस आन्दोलन के ज्वार पर उस दल विहीन व भ्रष्टाचार रहित सरकार के उस दल-दल को न केवल देखा है बल्कि देश लगातार उस साम्राज्यवाद समर्थित सरकार जिसे उन्होंने दूसरी आजादी की सरकार का नाम भी दिया था के कारनामों का प्रतिफल लगातार अब तक भोग रहा है।
इस लेख का मुद्दा दक्षिण पंथियों के अनर्गल प्रलाप व नकारात्मक नारे के तहत चलाये जाने वाले आन्दोलनों का विश्लेषण करना नहीं है- दक्षिणपंथ-साम्राज्यवाद की शह व इशारे और अपने निहित हितों के चलते तो वह यह सब करेगा ही। आकाशवाणी व बी.बी.सी. के बीच 1977 में चली लड़ाई की तरह 1987 में आकाशवाणी व स्वीडन रेडियो के बीच भी लड़ाई का बिगुल बजा किन्तु साम्राज्यवाद का मात्र भोंपू बदला हथकण्डा नहीं।
मुख्य मुद्दा है वामपंथ के अवसरवादी कार्यनीतिक विश्लेषण का और उस राजनैतिक पार्टी के वर्गगत स्वरूप की पहचान का, जो आज़ादी की लड़ाई की अगुआई से लेकर देश की एकता सम्मान व प्रगति का नेतृत्व करती रही है। ध्यान रहे कि इस सच्चाई को आजादी के वर्षों बाद मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने 2004 में स्वीकारा तथा कांग्रेस के नेतृत्व में बने यूपीए को समर्थन देकर सरकार बनवाई और परिणामतः विनिवेश मंत्रालय का समापन हुआ, मनरेगा व सूचना के अधिकार जैसे अनेक जनवादी उपलब्धियाँ हासिल की गयी। दुर्भाग्य से सुरजीत के निधन के बाद बने महासचिव प्रकाश करात ने यूपीए से समर्थन वापस लेकर वामपंथ और देश के जनवादी विकास को भारी क्षति पहुंचाई।
जैसा कि इशारा किया गया है कि- देश की सामाजिक-आर्थिक संरचना का वस्तुवादी मूल्यांकन-विश्लेषण न कर सकने या इससे रू-ब-रू होने से कतराने के कारण ही वामपंथ दक्षिण या वाम भटकाव के बीच पेंडुलम की तरह लटकता रहा है।
प्रसंगवस देश के जनवाद के विकास में कम्युनिष्ट पार्टी के सकारात्मक योगदन का उल्लेख यहां आवश्यक है। 1925 में अपनी स्थापना से लेकर आजादी प्राप्ति तक कम्युनिष्ट पार्टी ब्रिटिश साम्राज्यवाद क विरूद्ध लड़ते हुए न केवल अनगिनत कुर्बानी दी बल्कि मजदूरों-किसानों को संगठित कर अथक लड़ाई में शामिल रही, बॉम्बे की गिरणी कामगार यूनियन सहित सैकड़ों मजदूर यूनियनों व नौसैनिक विद्रोह द्वारा साम्राज्यवाद की चूल हिलाने में बड़ी भूमिका अदा की। तेलंगाना आन्दोलन हो या बंगाल का तेभागा किसान आन्दोलन आदि का नेतृत्व कर कम्युनिष्ट पार्टी ने देश में जनवाद को मज़बूत करने का अहम काम किया जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता, भले ही यह पार्टी कभी भूमिगत रही हो या कांग्रेस में शामिल रहकर अपना काम किया हो पर इसने अपने लक्ष्य को कभी ओझल नहीं होने दिया।
यह कम्युनिष्ट पार्टी ही थी जिसने ‘‘इष्टा’’ के माध्यम से सारे देश में व विशेष कर दृश्य के सबसे ताक़तवर माध्यम फिल्म में कलाकारों, गीतकारों की न केवल चेतना संपन्न लम्बी फौज खड़ी की बल्कि बंगाल के भीषण अकाल में इष्टा के कलाकारों ने अपनी महती भूमिका भी निभाई।
1936 में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ ने देश के लेखकों, कवियों को नयी विश्व दृष्टि से लैस करने के साथ ही हजारों-हजार बुद्धिजीवियों में नई चेतना भी पैदा की। देश के वैज्ञानिक, इतिहासविद, नर्तक, चित्रकार आदि इसी प्रगतिशील चेतना के कारण अंधेरे के खिलाफ नयी रोशनी की तलाश कर सके।
इन्हीं वर्षों में स्थापित ऑल इण्डिया स्टूडेन्ट फेडरेशन (ए.आई.एस.एफ.) ने महाविद्यालयों- विश्वविद्यालयों में छात्रों के बीच वैज्ञानिक सोच की लहर पैदा की- यह थी कम्युनिष्टों की देश के आजादी के लड़ाई व देश में जनवाद के विकास में साम्प्रदायिक फासीवाद के बरक्स भूमिका।
आजादी के कुछ वर्ष बाद ही कम्युनिष्ट पार्टी वैधानिक रूप से काम कर सकी, और काफी बहस-मुहावसे के बाद अपना कार्यक्रम निर्धारित कर सकी। कार्यनीति थी ‘‘राष्ट्रीय जनवादी क्रांति’’ और इस जनवादी क्रांति में साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग को साथ लेकर जनवादी क्रांति संपन्न करने की, जिससे समाजवाद का रास्ता आगे बढ़ सके पर इस कार्यनीति की हर पार्टी कांग्रेस में पार्टी के उग्रवादी तत्वों द्वारा आलोचना जारी रही और अंततः 1964 में पार्टी के इसी धड़े ने पार्टी को दो फाड़ कर दिया और चीन से प्रेरित हो अकेले जनवादी क्रांति करने की ठानी। कार्यनीति निर्धारित की ‘‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’’। दोनों कम्युनिष्ट पार्टियों ने अपनी-अपनी अलग राह चुनी पर जल्द ही वे साम्राज्यवाद की कुटिल चाल में फंस अपनी कार्यनीति को अलविदा कह ‘‘नार जनता, नार कांग्रेस’’ के अवैज्ञानिक सोच के तीसरे ध्रूव में उलझ गयी।
‘‘न जनता पार्टी न कांग्रेस तीसरा विकल्प’’ की भटिंडा लाइन 1978 का ही यह परिणाम है कि राष्ट्रीय जनवादी क्रांति को दफनाकर मजदूर वर्ग की इस पार्टी ने ‘‘राजा नही फकीर है भारत की तकदीर है’’ की एक टांग पकड़कर दक्षिण पंथी सहयोग से उसे सत्ता तक पहुँचाया और बोफोर्स दलालों को ढूंढने में लग गई। साम्राज्यवाद द्वारा प्रेरित इस महाअभियान को हवा दी भारत के सबसे दक्षिण पंथी ताकतों ने, भाजपा नामक दल इसके अग्रिम मोर्चे में रही और इस अभियान में शामिल हो गये वामपंथी एकता के सिपहसालार-धर्मनिरपेक्ष और जनवादी तत्वों की पहचान करते-करते। हश्र जो होना था वह हुआ। वी.पी.सिंह सरकार द्वारा जैसे ही मंडल आयोग की सिफारिस लागू कर पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की गई, भाजपा ने वी.पी.सिंह सरकार से समर्थन वापस लेकर कमंडल का तांडव खड़ा कर दिया और साम्प्रदायिकता का ऐसा जहर घोला जिससे देश आज तक बावस्ता है।
पिछली शताब्दी का अंतिम दशक भारी उथल पुथल से गुजरा न केवल भारत में वरन, पूरी दुनिया के पैमाने पर इस उथल पुथल का असर हुआ। सोवियत संघ में अधिक समाजवाद के लिये अधिक जनवाद तथा खुलेपन की गोर्वाचोव की सैद्धांतिकी पेरोस्त्रोइका तथा ग्लासनोस्त औंधे मुंह गिरी मार्क्स के दर्शन के विपरीत गढी गई इस थ्योरी का विनाशक असर हुआ और साम्राज्यवाद ने पूरे पूर्वी यूरोप व सोवियत संघ को धराशायी कर एक ध्रुवीय दुनिया का डंका पीटते हुये यह घोषणा कर दी कि अब पूंजी के रास्ते दुनिया की समस्यायें चुटकी में हल हो जायेंगी। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, बीमारी और विनाशक युद्ध पलक झपकते सदा के लिये खत्म। अमेरिकी विचारक फ्रांसिस फुकुयामा ने अपने बहुचर्चित पुस्तक ’’दि एंड ऑफ हिस्ट्री में यह भविष्यवाणी कर दी कि अब विचारधाराओं के संघर्ष का अंत हो गया है और पूंजीवादी जनतंत्र ही इतिहास का अंतिम विकल्प है। सोवियत संघ के विघटन के बाद दूसरे प्रमुख अमेरिकी विचारक हाटिंगटन ने यह घोषणा कर दी कि अब दुनिया में समस्या सभ्यताओं के संघर्ष का है। ईसाइयत और इस्लाम के बीच एक नकली और तथ्यहीन दर्शन खड़ा कर अमेरिकी साम्राज्यवाद को मध्य पूर्व एशिया के इस्लामिक देशों के तेल भंडारों पर कब्जा करने की पृष्ठभूमि तैयार की जिसके चलते अमेरिका ने इराक में कथित जन संहारक हथियारों की उपलब्धता के बहाने न केवल ईराक को क्षत-विक्षत कर राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटकाया बल्कि उसने लीबिया, सीरिया कुवैत व अन्य महत्वपूर्ण तेल उत्पादक इस्लामिक देशों को भी भारी तबाही में डाल दिया। इस सेखी बघारने के बावजूद 2008 आते आते पूरी पूंजीवादी दुनिया विशेषकर अमरीकी साम्राज्यवाद भारी मंदी की चपेट में फंसा और किसी तरह इस मंदी के दुष्चक्र से मुक्त हो पाया। यह है इस पूंजीवादी दुनिया का सच। भविष्य में भी मंदी की चेतावनी के संकेत मिलने लगे हैं।
25 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय हुई। श्रम की दुनिया पराजित हुई और पूंजी की दुनिया की जीत। इस एक ध्रुवीय दुनिया का असर भारत में भी पड़ा। 06 दिसंबर 92 को बाबरी मस्जिद ढहाने के साथ भारतीय संविधान की आत्मा धर्मनिरपेक्षता को ढहाने की कोशिश शुरू हुई। आर्थिक क्षेत्र में दखलंदाजी का दौर चला, डंकल प्रस्ताव को लागू करने के प्रयास हुए, साथ ही वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की मुहिम भी तेज हुई। इतना ही नहीं देश में राजनैतिक अस्थिरता के चलते सन 89 से 99 के बीच (91 से 96 के नरसिंहा राव के कार्यकाल को छोड़कर) शेष पांच वर्षों में 10, 6, 13 महीने सहित 13 दिन की सरकारों के पांच प्रधानमंत्रियों वी.पी.सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल, और दो बार अटल बिहारी बाजपेयी जैसे विभूतियों के दर्शन लाभ का मौका भी देश को मिला। इस राजनैतिक अस्थिरता के चलते लोकतांत्रिक मूल्यों का हृास तो हुआ ही देश के विकास की गति पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ा।
दो हजार चार से दो हजार चौदह के बीच के कार्यकाल को देश में राजनैतिक स्थिरता को कार्यकाल के रूप में चिहिन्त किया जा सकता है। कांग्रेस के नेतृत्व में बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने इस दौर में अनेक लोक कल्याणकारी कदम उठाये जैसे मनरेगा, भूमि अधिग्रहण कानून, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार व भूख के अधिकार को कानूनी जामा पहनाकर जी.डी.पी. में वृद्धि की गई किसानों के कर्ज माफ किये गये और इन सबके चलते देश में शांति व साम्प्रदायिक सदभाव का महौल बनाने में मदद मिली।
यही स्थिति देश के इजारेदारो उनके आकाओं व साम्प्रदायिक शक्तियों को नागवर लगी और वे इससे मुक्त होने के लिये अन्ना हजारे के नेतृत्व में दूसरी-तीसरी आज़ादी का बिगुल फूंकने लोगों को मैदान में उतार दिया। भ्रष्टाचार के बढ़-चढ़कर आरोप लगाये गये और लोकपाल व्यवस्था लागू करने की हवाई मांग के आधार पर तूफान खड़ा किया गया। परिणाम हुआ इस आंदोलन के सिपहसलार अरविंद केजरीवाल को दिल्ली राज्य की सत्ता मिली जो अब जा चुकी है। और हिन्दू हृदय सम्राट को देश की बागडोर मोदी ने नौजवानों को प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियाँ देने, विदेशों में छिपाये गये अरबों रुपये के काले धन को वापस लाकर प्रत्येक देशवासी के खाते में 15-15 लाख रुपये डालने, भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने, चीन को लाल आंख दिखाने सहित अच्छे दिन लाने के झांसे के साथ देश की राजसत्ता पर कब्जा कर लिया।
यह कब्जा भारत के वृहद विचार और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों के खिलाफ है जो गांधी-नेहरू के सहयोग से विकसित हुई थी। यह कब्जा 1925 में गठित आर.एस.एस. की हिन्दू राष्ट्र की उस अवधारणा का प्रतिफल है जो झूठ और अफवाह पर आधारित है और उसी के दम पर खड़ी है। और आज भी साम्राज्यवाद की पिछलगू है, ’हाउडी मोदी’ इसका जीता जागता उदाहरण है।
जब से भारत एक ध्रुवीय दुनिया के पूंजीवादी रथ पर सवार हुआ है, देश की साम्राज्यवाद समर्थक व धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की बांछें खिल गई हैं। न केवल इन पार्टियों की प्रसन्न्ता अपने चरम पर है, बल्कि वे यह भी मानने लग गए हैं कि अब देश ’’हिन्दू राष्ट्र बनने के बहुत कीरब है’’। यही है इनके विकास का असली सच।’’ सबका साथ, सबका विकास सबका विश्वास’’ के नारे को यदि किसी ने ठीक से पहचाना है तो वह आज के दौर में एक अकेला व्यक्ति है राहुल गांधी, जिसने इस वास्तविकता को ठीक से समझा है और इस कारण ही महात्मा गांधी के पदचिन्हो पर चलते हुये देश के अंतिम पीड़ित व्यक्ति के आंसू पोछने का बीड़ा बिना डरे उठाया हुआ है। और लोगों को ‘डरो नहीं’, ‘नफरत छोड़ो’, ‘भारत जोड़ो’, व ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने’ की अलख जगाते तथा नेहरू की ’’भारत एक खोज’’ को साकार करते कन्याकुमारी से श्रीनगर तक की चार हजार किमी की दूरी अपने पैरों से नापी है, इतना ही नहीं, आंबेडकर के उस न्याय संदेश को जाति, धर्म, खान पान भाषा, वेषभूसा और क्षेत्र प्रांत के विभेद बिना देश के हर नागरिक को समान अधिकार व समान न्याय प्राप्त करने का हक है, पूरब से पश्चिम तक की राहुल की न्याय यात्रा भी इसी उददेश्य से प्रेरित रही है।
आज़ादी की लड़ाई को विलंबित करने के ब्रिटिश सत्ता के सहयोग व प्रेरणा से गठित आर.एस.एस. हिन्दू मुस्लिम राग को अलापते हुये आज सत्ता के जिस शिखर पर है उसे बचाये रखने तथा वर्तमान समस्याओं से ध्यान भटकाने में अब इतिहास के गडे़ मुर्दे उखाड़ने, कब्र खोदने के अभियान को और तेज कर दिया है, यह है आज की सच्चाई।
जोर देकर कहा जाना चाहिए कि देश की वर्तमान दिशा और दशा एक बड़े ख़तरे की ओर इशारा कर रही है, इस ख़तरे के संदर्भ में मैं देश के जाने माने सांस्कृतिक कर्मी, शायर व विज्ञानवेत्ता गौहर रजा के लेख ‘जिस दौर से हम गुजर रहे हैं’, के एक छोटे से हिस्से को प्रस्तुत कर इन लक्षणों के आधार पर फासिज्म को पहचानने की अपील के साथ लेख समाप्त करूंगा।
लोकतंत्र के हर उस लक्षण पर नजर रखनी चाहिए जो फासीवाद की सामाजिक बीमारी के बढ़ने का संकेत दे रहा हो। फासीवादी ताक़तों ने दूसरे युद्ध के बाद अपने को फासीवादी कहना लगभग बंद कर दिया है और अलग-अलग देशों में खुद को नए-नए स्वरूपों में भी ढाला है। वे ऐसे रूप हैं जिनसे उनकी पहचान छुप जाए। लोग उन्हें पहचानने में ग़लती कर बैठे। लोग इस बहस में पड़ जाएँ कि जो कुछ हो रहा है वो असल में फासीवाद है भी कि नहीं। दूसरे शब्दों में सिर्फ प्रगतिशील ताकतों ने नहीं, फासीवाद ने भी इतिहास से बहुत कुछ सीखा है। इसके बावजूद कुछ ऐसी विशेषताएं और लक्षण हैं जिनसे हम पहचान सकते हैं कि किसी समाज में फासीवाद किस हद तक अपने पैर पसार चुका है।
पिछले 80 वर्षों में न जाने कितनी किताबें और लेख सिर्फ इन लक्षणों को चिन्हित करने के बारे में लिखे गए हैं। कई इतिहासकारों और विशेषज्ञों ने फासीवाद की विशेषता और उसके लक्षण तलाश करने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी। डॉ. लॉरेंस ब्रिट ने हिटलर (जर्मनी), मुसोलिनी (इटली), फ्रेंको (स्पेन), सुहार्तो (इंडोनेशिया), सालाज़ार (पुर्तगाल), पापा डोपोलोस (ग्रीस) और पिनोशे (चिली) के शासन का गहरा अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि प्रत्येक फासीवादी शासन की 14 सामान्य विशेषताएँ हैं। उनके अनुसार ये लक्षण हैं- 1-हिंसक राष्ट्रवाद की लगातार दुहाई। 2- मानवाधिकारों का रौंदा जाना। 3-लोगों को लामबंद करने के लिए शत्रुओं को चिन्हित करना। 4-सेना की सर्वोच्चता पर बल देना। 5-बड़े पैमाने पर लैंगिक भेदभाव। 6- मास मीडिया पर कब्जा करना। 7-राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जुनून। 8-धर्म, राजनीति और सरकार का आपस में गहरा रिश्ता बना देना। 9-कॉर्पोरेट पावर को सुरक्षित करने की सुरक्षा सुनिश्चित करना। 10-श्रमशक्ति का दमन करना, मजदूरों और किसानों के हक छीन लेना। 11-बुद्धिजीवियों और कलाकारों को अपमानित करना, कला के प्रति घृणा पैदा करना। 12-अपराध और सजा के प्रति जुनून। 13-बड़े पैमाने पर क्रोनी कैपिटलिज्म और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना। 14-चुनाव में धोखाधड़ी करना, अवाम से वोट का हक छीन लेना।