समकालीन भारत के राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श में एक महानायक के रूप में डॉ. आंबेडकर का उदय हुआ है। बीसवीं सदी के एक 'अछूत' के इक्कीसवीं सदी में महानायक बनने की दास्तान आश्चर्यजनक है। दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ तक उनके विचारों की आवाजाही और किए गए संघर्ष काबिलेगौर हैं। आज संविधान और लोकतंत्र को महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के विचारों और संघर्षों से भी ज़्यादा ताक़त डॉ. आंबेडकर के विचारों से मिलती है।
लेकिन विडंबना यह है कि संविधान और लोकतंत्र का गला घोंटने वाले भी बाबा साहब के नाम का इस्तेमाल करते हैं। हिन्दू धर्म की जिस सामाजिक व्यवस्था से बाबा साहब जीवन भर पीड़ित रहे और जिसके ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे, उसी हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले भी बाबा साहब को पूजने का ढोंग रचते हैं।
राजनीति से लेकर साहित्य, धर्म, दर्शन, समाज, अर्थनीति पर कोई भी बहस आज डॉ. आंबेडकर के विचारों और मूल्यों की चर्चा के बिना मुकम्मल नहीं हो सकती।
डॉ. आंबेडकर के विचार जितने प्रासंगिक हैं, उनका जीवन भी उतना ही प्रेरक है। इसलिए बाबा साहब के जीवन-संघर्ष के तमाम प्रसंगों पर चर्चा होती रहती है।
एक सवाल अक्सर पूछा जाता है कि उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म क्यों अपनाया। 1935 में बाबा साहब ने हिन्दू धर्म छोड़ने का एलान कर दिया था। लेकिन बीस साल बाद उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। एक सवाल यह भी है कि धर्म परिवर्तन करने में इतना लंबा वक्त उन्होंने क्यों लिया।
दरअसल, डॉ. आंबेडकर उस धर्म को अपनाना चाहते थे जो उनके तर्क और बुद्धि-विवेक की कसौटी पर खरा उतरता हो। हालांकि धर्म और आस्था व्यक्ति का नितांत निजी मामला है लेकिन बाबा साहब अपने लिए नहीं बल्कि समूचे दलित समाज के लिए विकल्प की तलाश करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने पहले तमाम धर्मों का अध्ययन किया।
ईसाई और इसलाम धर्म के आचार्यों ने उन्हें प्रभावित करने का भी प्रयास किया। इस संदर्भ में एक बात गौरतलब है कि इस दरम्यान सनातन या हिन्दू धर्म का कोई मठाधीश या शंकराचार्य आंबेडकर को हिन्दू धर्म त्यागने के संकल्प को छोड़ने के लिए प्रेरित करने को आगे नहीं आया। इसके बरक्स रामराज्य परिषद के अध्यक्ष और बनारस के महंत स्वामी करपात्री सहित तमाम मठाधीश डॉ. आंबेडकर को अछूत कहकर उनका तिरस्कार कर रहे थे।
सच्चाई तो यह है कि महात्मा गाँधी को छोड़कर उस समय का कोई भी स्वघोषित सनातनी हिन्दू धर्म की असमानता और शोषण पर आधारित भेदभावपरक नीतियों और आचरण को छोड़ने की अपील भी नहीं करता था।
हिन्दू धर्म त्यागने के एलान के बाद बीस साल तक इंतजार करने का एक कारण तो भारत का स्वाधीनता आंदोलन है। यह वह दौर था जब आजादी का आंदोलन अपने चरम पर था। भारत के भविष्य का फ़ैसला होने जा रहा था। तमाम राजनीतिक और सामाजिक संगठन भारत के भविष्य के बारे में अंग्रेजों से बातचीत कर रहे थे।
हिन्दू वर्ण व्यवस्था में हजारों साल से पीड़ित-दलित समाज बाबा साहब की चिंता के केन्द्र में था। बाबा साहब हिन्दू धर्म के मठाधीशों और पुरोहितों के चरित्र को बखूबी समझते थे। इनमें न्यायिक चरित्र और समता आधारित स्वभाव की हमेशा कमी रही है। इसलिए डॉ. आंबेडकर अंग्रेजी हुकूमत के सामने दलितों के सवाल को प्रमुखता से रखना चाहते थे।
बाबा साहब के लिए भारत की राजनीतिक आजादी से बड़ा सवाल अछूतों की सामाजिक और आर्थिक आजादी का था। हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था दलितों के लिए आर्थिक गुलामी का कारण थी। इस व्यवस्था में अछूत लोग जानवरों से भी ज्यादा बदतर जीवन जीने के लिए अभिशप्त थे।
वर्ण व्यवस्था मूलतः ब्राह्मणों के वर्चस्व की व्यवस्था थी। यही कारण है कि बाबा साहब ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में साम्राज्यवाद से मुक्ति के साथ सामंतवाद और ब्राह्मणवाद से मुक्ति के सवाल को प्रमुख रूप से उठाया। इसके लिए उन्होंने अंग्रेजों का सहयोग लिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि डॉ. आंबेडकर अंग्रेजी राज के समर्थक थे।
दरअसल, तीन हजार साल पुरानी हिंदू वर्ण व्यवस्था के इलाज के लिए बाबा साहब एक डॉक्टर की ज़रूरत महसूस कर रहे थे। बीमारी का इलाज करते हुए डॉक्टर के प्रति जो भाव रहता है, अंग्रेजों के प्रति वही भावना बाबा साहब के मन में थी। बाबा साहब दलितों की बेहतर स्थिति के लिए अंग्रेजों की ज़रूरत महसूस करते थे।
अंग्रेजों ने किया आर्थिक दोहन
अंग्रेजी व्यवस्था में शिक्षा, न्याय और कानून जैसे तमाम साधन बीमार भारतीय सामाजिक व्यवस्था को ठीक करने के लिए अपरिहार्य थे। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि अंग्रेज यहाँ समाज सुधार के उद्देश्य से आए थे। उनका मकसद भारत का आर्थिक दोहन करना था।
करीब दो सौ साल की औपनिवेशिक व्यवस्था में ब्रिटिश हुकूमत ने भारत का भरपूर शोषण किया। एक अनुमान के मुताबिक़, औरंगजेब के अंतिम समय (1707) में भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक जीडीपी का करीब 33.1 फीसद थी। अंग्रेजों की विदाई के वक्त अगस्त, 1947 में यह महज 0.1 फीसद रह गई थी।
औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए शोषण के चलते आर्थिक असमानता की खाई बहुत चौड़ी हो गयी थी। सामाजिक असमानता की स्थिति तो पहले से ही बदतर थी। राजनीतिक आजादी हासिल होने के बाद सामाजिक और आर्थिक असमानता दूर करने की बड़ी चुनौती देश के सामने थी। यह असमानता नासूर की तरह थी।
डॉ. आंबेडकर को सौंपी जिम्मेदारी
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व और महात्मा गांधी के अभिभावकत्व में बनी सरकार ने रोगग्रस्त भारत का इलाज करने की जिम्मेदारी स्वयं डॉ. आंबेडकर को सौंपी। उनसे बेहतर भारत के इस मर्ज को जानता भी कौन था! संविधान बनाकर बाबा साहब ने बीमारी के लक्षण और उनका ठीक इलाज दोनों ही उपलब्ध करा दिए थे। यह दीगर बात है कि उनकी दवा का कितना उपयोग हुआ है।
आज की सच्चाई यह है कि संघ-बीजेपी की राजनीतिक सत्ता राष्ट्रवाद और धर्म जैसी पुरानी दवाइयों को भारतीयों पर आजमा रही है। इससे पूरे देश का जनमानस एक महामारी की गिरफ्त में फंसता जा रहा है।
पाँच लाख समर्थकों संग अपनाया बौद्ध धर्म
संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में बाबा साहब ने जो भूमिका अदा की, उससे एक बेहतर भारतीय संविधान बनकर तैयार हुआ। स्वतंत्र भारत में कानून मंत्री रहते हुए बाबा साहब के कामों का मूल्यांकन होना अभी बाकी है। 1954 में हिंदू कोड बिल के मुद्दे पर उन्होंने नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद 1956 में डॉ. आंबेडकर ने अपना पुराना संकल्प पूरा किया। पाँच लाख समर्थकों के साथ उन्होंने नागपुर की दीक्षाभूमि में बौद्ध धर्म अपनाया।
लेख के प्रारंभ में यह सवाल उठाया गया है कि तमाम प्रगतिशील और नवीन धर्मों के बीच बाबा साहब ने बौद्ध धर्म को ही क्यों स्वीकार किया। 1935 से लेकर 1955 यानी बीस साल तक क्या डॉ. आंबेडकर धर्म को लेकर पसोपेश में थे दरअसल, बौद्ध धर्म अपनाने से पहले उन्होंने तमाम धर्म और उनकी संस्थाओं का बारीकी से अध्ययन किया।
कुछ लोग कह सकते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा और संस्कृति को पसंद करने के बावजूद उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार क्यों नहीं किया। उनके पास सामाजिक समता पर विश्वास करने वाले इसलाम को अपनाने का भी विकल्प था। भारतीय संत परंपरा से उत्पन्न सबसे नवीन सिख धर्म को भी बाबा साहब स्वीकार कर सकते थे। इनको नहीं अपनाने के पीछे एक बड़ा कारण दिखता है।
दरअसल, इन तीनों ही धर्मों का आधार एक-एक पवित्र पुस्तक है। इन पुस्तकों में उल्लिखित विचारों और उपदेशों को ईश्वर की वाणी माना गया है। यानी, इनका प्रतिकार नहीं किया जा सकता। इन विचारों पर बहस नहीं की जा सकती। नए संदर्भ में इनका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
बाबा साहब ऐसे किसी भी धर्म को स्वीकार नहीं करना चाहते थे जिसमें मनुष्य के विवेक के लिए कोई स्थान ना हो।
मजहबी किताबों में दर्ज वचन या उपदेश उस समय के लिहाज से सार्थक और ज़रूरी हो सकते हैं लेकिन बदलते समय और समाज के लिए यही विचार कट्टरता और रूढ़िवाद का अवसर भी बनते हैं। इसलिए बाबा साहब ने इन धर्मों को नहीं अपनाया। उनकी नज़र में जैन धर्म परवर्ती काल में हिंदू धर्म के ब्राह्मणवादी संस्कारों से प्रभावित हो गया था। इसलिए जैन धर्म को भी अपनाने का कोई मतलब नहीं था।
'अप्प दीपो भव' का मतलब
बाबा साहब द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे दो बड़े कारण हैं। पहला, बौद्ध धर्म अपने समय में समता पर आधारित था। उसमें भविष्य की ज़रूरत के लिहाज से प्रगतिशील विचारों की भी मौजूदगी थी। महात्मा बुद्ध ने मनुष्य के बुद्धि और विवेक पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। वे स्वयं कहते थे कि मेरी बात को या गुरु की बात को तब तक स्वीकार मत करो जब तक वह विवेकसम्मत सिद्ध ना हो जाए। 'अप्प दीपो भव' का यही मतलब है।
बौद्ध धर्म किसी पोथी या किसी रूढ़िग्रस्त विचार पर आधारित नहीं है। हिंदू धर्म के मठाधीशों ने ईश्वर, पाप-पुण्य और पुनर्जन्म के आधार पर भय पैदा करके दलितों को गुलाम बनाया। बौद्ध धर्म में ईश्वर की कोई गुंजाइश नहीं है। यह अनीश्वरवादी धर्म है।
बौद्ध धर्म की प्रगतिशीलता और उसके विचारों की शक्ति का ही प्रभाव था कि यह दुनिया के तमाम देशों में पहुंचा। भारत की आध्यात्मिक शक्ति को देश की सीमाओं से बाहर पहुंचाने वाला एकमात्र धर्म बौद्ध है। कोई सनातन या हिंदू धर्म नहीं।
कबीर को मानते थे गुरू
अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि डॉ. आंबेडकर बौद्ध धर्म के समीप कैसे पहुंचे। वास्तव में, इसके बीज उनके अपने परिवेश और बचपन में ही मौजूद हैं। उनका परिवार कबीरपंथी था।अपने पिता रामजी सकपाल से उन्होंने कबीर की कविताओं और शिक्षाओं को सुना था। इस प्रकार कबीर और उनकी कविताएं डॉ. आंबेडकर के जीवन का हिस्सा बनीं।
बाबा साहब के व्यक्तित्व पर कबीर की स्पष्ट छाप दिखती है। वही निडरता और बेलौस सच कहने का साहस। सच भी ऐसा जो तर्क और विवेक की कसौटी पर सोलह आना खरा हो। यही कारण है कि बाबा साहब अपने तीनों गुरुओं में पहले गुरू के रूप में कबीर का उल्लेख करते हैं। उनके दूसरे गुरू ज्योतिबा फुले हैं और तीसरे महात्मा बुद्ध।
कबीर के मार्फत ही बाबा साहब बुद्ध और बौद्ध धर्म तक पहुंचते हैं। प्रसिद्ध दलित चिंतक और आंबेडकरवादी विचारक कंवल भारती लिखते हैं, "आंबेडकर की धर्म की खोज बौद्ध धर्म पर खत्म हुई थी। वहां तक वे कबीर के द्वारा ही पहुंचे थे। उन्हें बुद्ध तक ले जाने वाली जो चीज थी, वह कबीर की तर्कशक्ति थी। जो उन्हें किसी हिंदू संत में नहीं दिखाई दी थी। उनका निर्गुणवाद ही उनको अनीश्वरवाद तक ले गया था।"