अभिजात समाज का प्रतिनिधि समझे जाने वाले ऊपरी सदन यानी विधान परिषद को एक बार फिर पश्चिम बंगाल में बहाल किया जा रहा है। विधानसभा ने मंगलवार को विधान परिषद के गठन से जुड़ा प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित कर दिया।
मतदान के समय मौजूद 265 सदस्यों में से 196 ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया, यानी ज़रूरी दो-तिहाई से अधिक वोट इसे मिले हैं।
बीजेपी का आरोप
बीजेपी ने इसके ख़िलाफ़ मतदान तो किया ही, शोर शराबा किया और प्रस्ताव का ज़ोरदार विरोध किया।
बीजेपी का कहना था कि विधान परिषद का कोई क़ानूनी आधार नहीं है और यह मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पद पर बने रहने में मदद करने के लिए किया जा रहा है।
पश्चिम बंगाल में विधान परिषद 1969 तक था। सीपीआईएम के प्रभुत्व में बनी पहली संयुक्त मोर्चा सरकार ने इसे अभिजात वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला और सामंती मूल्यों का पोषक मानते हुए भंग कर दिया। उसके बाद से अब तक यहां विधान परिषद की बहाली नहीं हुई।
क्या कहना है तृणमूल कांग्रेस का?
सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव घोषणापत्र में ही विधानसभा के ऊपरी सदन को बहाल करने का आश्वासन दिया था, इसलिए वह कह सकती है कि वह चुनाव पूर्व घोषणा लागू कर रही है।
लेकिन विपक्षी बीजेपी के इस आरोप को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है कि ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री पद पर बने रहने में मदद करने के लिए विधान परिषद को बहाल करने की कोशिश की जा रही है।
ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव हार गईं, वे फ़िलहाल विधानसभा सदस्य नहीं हैं। वे इस पद पर छह महीने तक रह सकती हैं। उन्होंने 4 मई को शपथ ली थी, लिहाज़ा, उन्हें 3 नवंबर तक विधानसभा की सदस्य ले लेनी होगी।
ममता बनर्जी की पारंपरिक सीट भवानीपुर से चुने गए विधायक शोभनदेव चट्टोपाध्याय ने इस्तीफ़ा दे दिया है और वह सीट खाली हो चुकी है।
इसके अलावा दूसरे चार सीटों पर चुनाव नहीं हुए, दो पर निर्वाचित सदस्यों की मृत्यु हो गई। इस तरह पश्चिम बंगाल विधानसभा में सात सीटों पर उपचुनाव होना है।
ममता बनर्जी के लिए चुनाव जीत लेना मुश्किल नहीं है।
पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि चुनाव आयोग कोरोना महामारी को आधार बना कर चुनाव टाल सकता है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठ रहे सवालों को देखते हुए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
ममता की मुश्किलें
यदि उपचुनाव नहीं हुए तो ममता बनर्जी के लिए दिक्क़तें होंगी। हालांकि संविधान के प्रावधानों के अनुसार, ममता बनर्जी छह महीने का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद एक बार फिर छह महीने के लिए शपथ ले सकती हैं।
तृणमूल कांग्रेस के विरष्ठ नेता व सांसद सौगत राय ने इसका संकेत दे दिया है।
इसलिए बीजेपी का यह सोचना सही है कि विधान परिषद का पुनर्गठन ममता बनर्जी की मदद करने के लिए किया जा रहा है।
इसमें पेच यह है कि इस प्रस्ताव पर केंद्र की मुहर लगनी ज़रूरी है। अनुच्छेद 171(2) के अनुसार लोकसभा एवं राज्यसभा साधारण बहुमत से यह प्रस्ताव पारित करती है। इसके बाद इसे राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाता है।
कैसा होगा विधान परिषद?
फ़िलहाल देश के छह राज्यों में विधान परिषद हैं। ये हैं, बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना।
- विधानसभा के सदस्यों की एक तिहाई से ज़्यादा संख्या विधान परिषद की नहीं हो सकती, लेकिन वह 40 से कम भी नहीं हो सकती। पश्चिम बंगाल में 294 विधानसभा सीटें हैं, इस हिसाब से 98 सदस्यों वाला यह सदन हो सकता है।
- विधान परिषद के सदस्यों का कार्यकाल छह वर्षों का होता है, प्रत्येक दो साल पर एक तिहाई सदस्य रिटायर हो जाते हैं। विधान परिषद एक स्थायी निकाय है और भंग नहीं किया जा सकता है।
- इसका हर सदस्य 6 साल के लिए चुना जाता है। एक परिषद के सदस्यों में से एक तिहाई की सदस्यता हर दो साल में समाप्त हो जाती है। यह व्यवस्था राज्यसभा के सामान है।
चुनाव कैसे होगा?
विधान परिषद का निर्वाचन थोड़ा पेचीदा होता है।
- परिषद के लगभग एक तिहाई सदस्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से चुने जाते हैं, जो इसके सदस्य नहीं हैं।
- एक तिहाई सदस्य नगरपालिकाओं के सदस्य, ज़िला बोर्डों और राज्य में अन्य प्राधिकरणों के सदस्यों से बने निर्वाचकों से चुने जाते हैं।
- एक बटा बारह सदस्यों का चुनाव ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जिन्होंने कम से कम तीन वर्षों तक राज्य के भीतर शैक्षिक संस्थाओं (माध्यमिक विद्यालयों से नीचे नहीं) में अध्यापन का काम किया हो।
- एक बटा बारह सदस्यों का चुनाव पंजीकृत स्नातकों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने तीन वर्ष से अधिक समय पहले पढ़ाई पूरी कर ली है।
- शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला, सहयोग आन्दोलन और सामाजिक सेवा में उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों में से नियुक्त किए जाते हैं।
सियासी दाँव
केंद्र की बीजेपी सरकार इस प्रस्ताव को अनिश्चित काल तक लटकाए रख सकती है। ऐसे में ममता बनर्जी के पास छह महीने के लिए दूसरी बार शपथ ग्रहण ही एक मात्र उपाय बचेगा।
तृणमूल कांग्रेस की दूसरी रणनीति यह हो सकती है कि पार्टी छोड़ कर बीजेपी में गए और वहां से वापस लौटने की जुगत में लगे कुछ लोगों को विधान परिषद में समायोजित किया जा सकता है।
इससे तृणमूल कांग्रेस को तात्कालिक राजनीतिक फ़ायदा होगा। ममता बनर्जी के अलावा वित्त मंत्री अमित मित्रा भी किसी सदन के सदस्य नहीं हैं, वे भी विधान परिषद का सदस्य बन कर कुर्सी बचाए रख सकते हैं।
विधान परिषद का लोभ दिखा कर बीजेपी के लोगों को तोड़ा जा सकता है, यह अलग सियासी लाभ दिख रहा है। बीजेपी इसका इतना ज़ोरदार विरोध इन्हीं कारणों से कर रही है।
इतना तो साफ है कि तृणमूल कांग्रेस ने एक सियासी चाल चलते हुए गेंद केंद्र के पाले में डाल दिया है।