मुसलमानों के तुष्टीकरण का आरोप झेल रही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बार केवल 42 मुसलिम उम्मीदवार उतारे हैं जबकि 2016 में उन्होंने 57 मुसलमानों को पार्टी का टिकट दिया था। एक ऐसे समय में जब इंडियन सेक्युलर फ़्रंट नामक एक नई पार्टी मुसलमानों के वोटों में सेंध लगाने की तैयारी कर रही है, ममता का अल्पसंख्यक समुदाय से कम उम्मीदवारों को उतारना क्या पार्टी के लिए घातक नहीं होगा? अगर हाँ, तो वे ऐसी ग़लती क्यों कर रही हैं? आइए, नीचे ममता बनर्जी और उनके चाणक्य प्रशांत किशोर की रणनीति को समझने की कोशिश करते हैं।
आगे बढ़ने से पहले राज्य का चुनावी गणित समझ लें। राज्य के कुल 294 विधानसभा क्षेत्रों में 46 में मुसलिमों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है।16 सीटें ऐसी हैं, जहाँ मुसलमानों की आबादी 40 फ़ीसदी से अधिक और 33 सीटों पर 30 फ़ीसदी से अधिक है। यानी क़रीब 100 सीटों पर मुसलमान किसी भी पार्टी को जिताने और हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
मुसलमानों का दबदबा
अतीत में उन्होंने इन सीटों पर किस पार्टी को जिताया है, इसकी एक झलक हम नीचे के चार्ट से जान सकते हैं।
इससे हमें पता चलता है कि 2006 में जहाँ मुसलमान पूरी तरह लेफ़्ट के साथ थे, वहीं 2011 में उनका बड़ा हिस्सा तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के पक्ष में जाता दिखा - तब तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस मिलकर लड़े थे।
2016 में चुनावी गणित बदल गया। लेफ़्ट और कांग्रेस एकसाथ आ गए और मुसलमानों का वोट इस बार भी बँटा। लेकिन लाभ में रही तृणमूल कांग्रेस। आधे से ज़्यादा मुसलमान तृणमूल के साथ रहे।
टीएमसी के साथ मुसलमान
इसकी झलक तब के परिणामों में भी दिखी जब मुसलिम प्रभाव वाली 102 सीटों में से 58 पर तृणमूल कांग्रेस को विजय मिली। नीचे टेबल में देखें - 2006 से लेकर 2016 तक मुसलिम प्रभाव वाली सीटों पर विभिन्न दलों का प्रदर्शन।
2019 में स्थिति और बदल गई। उस चुनाव में अनुमानतः 65-70% मुसलमानों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया। अल्पसंख्यक समुदाय से इतना ज़बरदस्त समर्थन उसे पहले कभी नहीं मिला था।
2006 से 2019 के बीच मुसलमानों का तृणमूल के प्रति समर्थन बढ़ा ही है, साथ में मुसलिम प्रभाव वाले क्षेत्रों से उसकी सीटें भी बढ़ी हैं। ऐसे में कोई भी यही उम्मीद करेगा कि तृणमूल कांग्रेस इस बार और अधिक मुसलमान उम्मीदवार उतारेगी ताकि अल्पसंख्यकों को अधिक प्रतिनिधित्व मिले। लेकिन उसने किया बिल्कुल उलटा।
मुसलिम उम्मीदवारों की संख्या 2016 से काफ़ी घट गई। बढ़ते मुसलिम समर्थन के बीच उनके उम्मीदवारों की संख्या घटाना क्या उनके साथ छलावा नहीं है?
ममता की रणनीति
नहीं, अगर आप इसके पीछे की रणनीति को समझें। ममता के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस की रणनीति यह है कि वह न केवल तीसरी बार सत्ता में आए बल्कि अच्छे बहुमत के साथ आए। अच्छे बहुमत का अर्थ ख़ुद 180-200 से सीटें जीतना और बीजेपी को 100 से कम सीटों पर रोकना। बीजेपी को 100 से कम सीटों पर रोकना इसलिए ज़रूरी है कि अगर बीजेपी 125 के आसपास सीटें जीत लेती है तो यह तय है कि वह अगले दो-एक सालों में दलबदल करवाकर अपनी सरकार बनाने की कोशिश करेगी।
अमित शाह के राज में हर सही-ग़लत तरीक़े से सत्ता दख़ल बीजेपी का लक्ष्य बन चुका है। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में हम यह देख चुके हैं। राजस्थान में भी इसकी कोशिश हुई थी लेकिन अब तक वहाँ यह चाल सफल नहीं हो पाई है।
2019 में बीजेपी को विधानसभा की 122 सीटों पर बढ़त मिली थी। यानी अगर बंगाल का वोटर 2019 की तरह ही वोट करता है तो बीजेपी को इस बार 122 सीटें मिल सकती हैं।
बीजेपी की सीटों को 100 से नीचे लाने के लिए ज़रूरी है कि तृणमूल कांग्रेस उन सभी समुदायों को मनाने की कोशिश करे जिन्होंने तब भारी संख्या में बीजेपी को वोट दिया था, ख़ासकर दलितों और आदिवासियों को।
दलित-आदिवासी
बता दें कि यह दलितों और आदिवासियों का समर्थन ही था जिसके कारण बीजेपी को राज्य में आरक्षित 84 सीटों में से 46 पर बढ़त मिली थी। यही कारण है कि तृणमूल ने इस बार दलितों के लिए आरक्षित सीटों के अलावा भी 11 दलित उम्मीदवार उतारे हैं जो अनारक्षित यानी जनरल सीटों से लड़ेंगे।
2016 का विधानसभा चुनाव तृणमूल बनाम लेफ़्ट-कांग्रेस था। उन चुनावों में अगर तृणमूल कांग्रेस ने ज़्यादा (57) मुस्लिम उम्मीदवार उतारे तो इसलिए कि इससे जहाँ मुसलमान वोटरों के समर्थन में वृद्धि की आशा थी, वहीं पार्टी को उसके प्रतिकूल प्रभाव का कोई डर नहीं था। कारण, लेफ़्ट या कांग्रेस उनपर मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप नहीं लगा सकते थे क्योंकि वे ख़ुद भी मुसलिम वोटरों का समर्थन चाह रहे थे। इस तरह उसके दोनों हाथों में लड्डू थे।
टीएमसी उससे बेहतर स्थिति चाहती है और इसके लिए ज़रूरी है कि चुनाव हिंदू बनाम मुसलिम न होकर ममता बनाम बीजेपी हो। और यह तभी हो सकता है जब अधिक से अधिक चुनाव क्षेत्रों में तृणमूल की तरफ़ से खड़ा उम्मीदवार मुसलमान न होकर हिंदू हो।
तो इसलिए कम हैं मुसलिम उम्मीदवार!
इसलिए ममता ने इस बार मुसलमान उम्मीदवारों की संख्या कम कर दी है और दलित प्रत्याशियों की संख्या बढ़ा दी है। उन सीटों पर जहाँ मुसलमानों की आबादी 40% तक है, वहाँ भी उन्होंने हिंदू उम्मीदवार खड़े किए हैं। कारण यह कि वे जानती हैं कि मुसलमानों के पास इस बार 2016 की तरह कोई सेक्युलर विकल्प नहीं है।
मुसलमान हर हालत में तृणमूल कांग्रेस को ही वोट देंगे क्योंकि वे जानते हैं इस बार अगर तृणमूल कांग्रेस हारती है तो उन्हें बीजेपी के शासन में रहना होगा जो वे कभी नहीं चाहेंगे।
इस तरह ममता ने कम मुसलमान उम्मीदवार उतारकर भले ही मुसलमानों को तात्कालिक नाराज़गी का मौक़ा दिया हो मगर रणनीति के तहत यह सही क़दम है। अगर ममता ने इस बार भी 2016 की तरह 57 या और 2019 में मिले अतिरिक्त मुसलिम समर्थन के चलते पहले से ज़्यादा मुसलमान उम्मीदवार खड़े किए होते और बीजेपी उन अतिरिक्त सीटों पर धार्मिक ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो सकती थी।
ऐसे में न केवल वे सीटें तृणमूल गँवाती बल्कि बीजेपी की सीटें भी बढ़ जातीं। इससे न तृणमूल को फ़ायदा होता न मुसलमानों का हित सधता।
यह तो थी रणनीति की बात। लेकिन यह रणनीति कितनी कारगर होगी, अभी से कहना मुश्किल है। मसलन, यदि किसी चुनाव क्षेत्र में आम धारणा यह हो कि तृणमूल कांग्रेस मुसलमानों का पक्ष लेती है तो वहाँ पर तृणमूल का हिंदू उम्मीदवार होने के बावजूद हिंदुत्व प्रेरित वोटर बीजेपी को ही वोट देगा। यह ट्रेंड हम गुजरात के चुनावों में लगातार देखते आ रहे हैं जहाँ कांग्रेस पिछले चुनाव में 97% सीटों पर ग़ैर-मुस्लिम उम्मीदवार उतारने के बावजूद अपनी मुस्लिमपरस्त दाग़ से मुक्त नहीं हो पा रही है।
दूसरी ओर तृणमूल द्वारा पहले से कम मुसलमान उम्मीदवार उतारने के क़दम को अब्बास सिद्दीक़ी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ़्रंट एक मुद्दा बना सकती है कि किस तरह मुसलमानों के वोट चाहने और पाने वाली ममता मुसलमानों को प्रतिनिधित्व नहीं देना चाहती। मुस्लिम वोटरों पर उनकी बात का असर होगा या नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता।