पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 जैसे-जैसे क़रीब आता जा रहा है, वैसे-वैसे तीन तरह के समूहों की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। स्थानीय लोग इन्हें सिंडिकेट, तोलाबाज और कट मनी ग्रुप कहते हैं। इनका जाल पूरे बंगाल में गाँव से लेकर शहर तक फैला हुआ है।
ये ग्रुप एक तरह समांतर सरकार चलाते हैं। इन्हें पुलिस और प्रशासन का पूरा समर्थन मिला होता है। इनकी मर्ज़ी के बिना कोई धंधा या सरकारी दफ़्तरों में काम कराना बहुत मुश्किल है। ये अपने हर काम की क़ीमत वसूलते हैं। चुनाव के समय बूथ मैनेजमेंट का काम ये लोग ही करते हैं। इसलिए राजनीतिक रूप से ये काफ़ी ताक़तवर हैं। सीपीआईएम के ज़माने से ही सरकारें इन्हें पालती पोसती आ रही है।
कौन है सिंडिकेट ?
बंगाल में राजनीतिक और सामाजिक संरचना का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं सिंडिकेट, तोलाबाज और कट मनी वसूलने वाले स्थानीय संगठन। ये कभी किसी यूनियन के नाम से काम करते हैं तो कभी किसी क्लब के नाम पर। लेकिन ये गाँव, मोहल्ला, क़स्बा और शहर हर जगह मौजूद हैं। वास्तव में सिंडिकेट एक तरह के बिचौलियों का काम करता है।
उदाहरण के तौर पर आप अगर मकान बनाना चाहते हैं तो आपको स्थानीय सिंडिकेट से संपर्क करना होगा। सिंडिकेट के सदस्य ज़मीन ख़रीदने से लेकर सरकारी विभाग से नक़्शा पास कराने, ईंट, सरिया, सीमेंट तक की आपूर्ति करेंगे। अगर आप सिंडिकेट के बग़ैर ये काम करना चाहें तो मकान बनाना असंभव हो जाएगा। सारे कामों के लिए सिंडिकेट कमीशन लेता है जो सिंडिकेट के सदस्यों के बीच बँट जाता है।
क्या करते हैं तोलाबाज?
इसी तरह की एक दूसरी संरचना है 'तोलाबाज'। आम तौर पर ये लोग फुटबाल या किसी अन्य प्रकार के क्लब के नाम पर काम करते हैं। सरकार इनको क्लब चलाने के नाम पर पैसा भी देती है। इसके साथ ही ये अपने इलाक़े के रिक्शा, थ्री व्हीलर और टैक्सी चलाने वालों से वसूली करते हैं। रिक्शों या थ्री व्हीलर के पीछे इन क्लबों का स्टिकर लगा होता है। ये स्टिकर पैसे लेकर दिए जाते हैं और इसका मतलब होता है की क्लब के इलाक़े में काम करने की छूट है।
थाना और सरकारी दफ़्तरों में काम कराने के लिए भी ये पैसा वसूलते हैं। पटरी दुकानदार से लेकर छोटे व्यापारी तक हर किसी को इनकी पूजा करनी पड़ती है। इनको ख़ुश किए बिना कुछ भी करना मुश्किल है क्योंकि ये ख़ुद में एक समांतर सरकार बन चुके हैं।
कट मनी कौन वसूलता है?
तीसरी संरचना है कट मनी वसूलने वालों की। ये लोग सरकार से ठेका दिलाने के बदले में पैसा वसूलते हैं। हर ठेके में इनका कमीशन तय होता है। इसके बग़ैर कोई काम होना मुश्किल है। बंगाल में ये सारा कारोबार संगठित तरीक़े से चलता है। सरकार और स्थानीय प्रशासन इनकी मदद करता है। बड़ी संख्या में बेरोज़गार नौजवान और राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता इनसे जुड़े हुए हैं।
जब तक सीपीआईएम का दबदबा था तबतक इनके दफ़्तरों पर लाल झंडा लहराता था। सीपीआईएम के कैडर में इनकी गिनती भी होती थी। चुनावों में इन संगठनों की ज़बरदस्त भूमिका होती है। बूथ मैनेजमेंट का काम यही लोग करते हैं।
ये सब एक चेन से पार्टी के नेता, विधायक और सांसद सबसे जुड़े होते हैं। फुटबाल मैच से लेकर दुर्गा पूजा और अन्य त्योहारों के आयोजन में सक्रिय होने के कारण ये कम्युनिटी लीडर भी होते हैं।
कहाँ गया सीपीआईएम का कैडर?
आख़िरकार सीपीआईएम का वो कैडर कहाँ गुम हो गया जिसके बूते पर बंगाल को लाल गढ़ कहा जाता था। सवाल यह भी है कि महज़ पाँच सालों में बीजेपी के समर्थकों का इतना बड़ा हुजूम कहाँ से खड़ा हो गया। बीजेपी को 2019 के लोकसभा चुनावों में बंगाल की 42 में से 18 सीटों पर जीत मिली जबकि 2014 के चुनावों में उसे महज़ 2 सीटें मिली थीं। इन सवालों का जवाब बंगाल की इसी सामाजिक और राजनीतिक संरचना में छिपा है। ये संगठन सीपीएम के दौर में खड़े हुए थे।
लेकिन 2011 के विधानसभा चुनावों के पहले जब ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस का दबदबा बढ़ने लगा तब कुछ तो उनकी तरफ़ खिसक गए और बाक़ियों को तृणमूल कार्यकर्ताओं ने बेदख़ल करके नए ग्रुपों का निर्माण कर लिया।
पहली बार पता चला कि जिसे सीपीआईएम का कैडर समझा जाता था, उसका एक बड़ा हिस्सा सिर्फ़ कमाई के लिए लाल झंडा उठा रहा था। उसकी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं थी। तृणमूल राज में उनकी कमाई का ज़रिया ख़त्म हो चुका है। अब वो बीजेपी की तरफ़ झुके हुए दिखाई दे रहे हैं।
ढहेगा ममता का गढ़?
बंगाल में सीपीआईएम के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा के 35 सालों तक एकक्षत्र राज का सबसे बड़ा कारण भूमि सुधार क़ानून था। 1977 में सत्ता में आने के थोड़े समय के भीतर वाम मोर्चा सरकार ने क़रीब 14 लाख बटाईदार किसानों को ज़मीन पर अधिकार दे दिया। 2006 में हल्दिया विकास प्राधिकरण द्वारा ज़मीन अधिग्रहण के विरोध में नंदी ग्राम से शुरू किसान आंदोलन के बाद सीपीआईएम से किसानों का भरोसा टूटने लगा। यहाँ से ममता बनर्जी एक योद्धा के रूप में उभरीं।
इसके तुरंत बाद सिंगुर में टाटा को कार कारख़ाना के लिए ज़मीन देने के विरोध में आंदोलन ने ममता को स्थापित कर दिया। 2006 के विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चा को 294 में से 230 सीटों पर जीत मिली थी और 2011 में वाम मोर्चा सत्ता से बाहर हो गया। 2011 में ममता और कांग्रेस साथ थे। इसी दौर में कांग्रेस और सीपीएम दोनों का कैडर ममता बनर्जी के साथ खिसक गया।
बीजेपी अभी भी काफ़ी पीछे थी। 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी महज़ 2 सीटें जीत पायी लेकिन तृणमूल के सामाजिक संरचना से बाहर रह गए कांग्रेस और वाम मोर्चा के कैडर को बीजेपी में एक नयी उम्मीद दिखाई पड़ी। नतीजतन 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी एक ही छलाँग में लोकसभा की 18 सीटें जीतने में कामयाब हो गयी। अब बीजेपी ने ममता के हर गढ़ पर आख़िरी वार की तैयारी शुरू कर दी है।
क्या बंगाल अभी दूर है?
बंगाल की 294 में से क़रीब 70 सीटों का फ़ैसला पूरी तरह से मुसलिम मतदाताओं के हाथों में है। बीजेपी के चुनाव अभियान का एक खंभा हिंदुत्व पर टिका हुआ है इसलिए बीजेपी के लिए इन सीटों को निकलना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा क़रीब 55 और सीटों पर मुसलिम निर्णायक हस्तक्षेप की स्थिति में हैं। ये इलाक़े कभी कांग्रेस और सीपीआईएम के गढ़ होते थे।
ममता ने मुसलिम मतदाताओं को ख़ुश रखने की पूरी कोशिश की है इसलिए मुसलिम वोटों का विभाजन संभव नहीं लगता है। लेकिन बीजेपी को यहीं उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है। बीजेपी की कोशिश है कि प्रतिक्रिया के रूप में हिंदू वोट एक हो जाय।
बिहार और उत्तरप्रदेश में जिस तरह जाति के आधार पर मतदान होता है वैसी स्थिति बंगाल में नहीं है। इसलिए बीजेपी को हिंदू एकता की उम्मीद है।
फिर भी मुसलिम वोटों के विभाजन से बीजेपी का रास्ता आसान हो सकता है ओवैसी जैसे बाहरी मुसलिम नेता को भी बंगाल के मुसलमानों के द्वारा स्वीकार किया जाना मुश्किल लगता है। एक कोशिश एक स्थानीय नेता तोहा सिद्दीक़ी को सामने करके मुसलमानों की स्थानीय पार्टी खड़ा करने की हो रही है। सारी लड़ाई इस बात पर टिकी हुई दिखाई दे रही है कि कौन किसके कैडर को अपनी तरफ़ खींच सकता है। इसी रणनीति के तहत बी जे पी अब तृणमूल कांग्रेस के ज़्यादा से ज़्यादा नेताओं को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश में है।
कैसे मिला बीजेपी को कैडर
नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय बंगाल से उद्योगों के पलायन का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अब भी किसी न किसी रूप में जारी है। सिंगुर आंदोलन के बाद नए उद्योगों ने बंगाल की तरफ़ देखना बंद कर दिया। क़ोरोना और लाँक डाउन के बाद अनुमान है कि क़रीब एक करोड़ प्रवासी मज़दूर वापस लौट चुके हैं जिनके पास कोई काम नहीं है। सिंडिकेट, तोलाबाज़ और कट मनी ग्रुप में उन्हें कमाई का ज़रिया दिखाई दे रहा है। ऐसे लोगों का एक हुजूम अब बीजेपी के पीछे है। बीजेपी को सबसे ज़्यादा उम्मीद इन्हीं लोगों से है क्योंकि कैडर विहीन बंगाल में इनकी मदद से बूथ मैनेजमेंट आसान हो जाएगा।
क्या इस बार ममता बनर्जी कमज़ोर पड़ रही हैं? देखें, क्या कहना है वरिष् पत्रकार आशुतोष का।