बंगाल: ओवैसी को कैसे रोकेंगी ममता बनर्जी?

10:17 am Nov 18, 2020 | प्रमोद मल्लिक - सत्य हिन्दी

बिहार विधानसभा चुनाव में पाँच सीटें जीत कर सबको हैरत में डालने के बाद ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) ने अब पश्चिम बंगाल का रुख किया है। पार्टी प्रमुख असदउद्दीन ओवैसी ने बिहार चुनाव के नतीजे आते ही एलान कर दिया था कि अब उनकी पार्टी पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ेगी। 

क़ाजी नज़रुल इसलाम की कविता और हिन्दू-मुसलमानों के बाऊल संगीत में लिपटी गंगा-जमुनी तहजीब की इस भूमि पर ध्रुवीकरण और पहचान की राजनीति इतनी तीखी हो चुकी है कि एआईएमआईएम अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को प्रभावित ही नहीं कर सकती है, बल्कि यह बिहार और महाराष्ट्र से अधिक चौंकाने वाले नतीजे ला सकती है। और इसके लिए ज़िम्मेदार वे भी होंगे, जो ओवैसी की पार्टी का मुक़ाबलना करने को अभिशप्त होंगे। 

28 प्रतिशत मुसलमान

जहाँ पूरे भारत में 14 प्रतिशत मुसलमान मतदाता हैं, पश्चिम बंगाल में यह 28 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। जम्मू-कश्मीर के बाद सबसे अधिक मुसलिम आबादी इसी राज्य में है। मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर और दक्षिण 24 परगना, इन ज़िलों में मुसलमान मतदाताओं की संख्या 40 प्रतिशत से अधिक है।

कुछ इलाकों में तो यह और भी ज़्यादा है। मुर्शिदाबाद में 67 प्रतिशत, उत्तरी दिनाजपुर में 51 प्रतिशत, मालदा में 52 प्रतिशत और दक्षिण दिनाजपुर में 49.92 प्रतिशत मुसलिम वोटर हैं। 

पश्चिम बंगाल में लगभग 100-110 सीटें ऐसी हैं, जहाँ मुसलमान मतदाता चुनाव नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तरी दिनाजपुर, दक्षिणी दिनाजपुर और दक्षिण 24 परगना में 60 से ज़्यादा विधानसभा सीटें हैं।

मुसलिम-बहुल ज़िले

तीन ज़िलों- मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तरी दिनाजपुर में 34 विधानसभा सीटें हैं और ये इलाक़े बांग्लादेश की सीमा से सटे हुए हैं, जहाँ बीजेपी तेज़ी से आगे बढ़ रही है।

ये वे इलाक़े हैं जहां बीजेपी लगभग 20 साल से प्रचार करती आई है कि बांग्लादेश से आए मुसलमानों से हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएंगे, उन पर ख़तरा है। हालांकि बीजेपी के इस प्रचार में छेद यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की अधिक संख्या सदियों से रही है और ये वे इलाक़े भी हैं, जहाँ 1905-1911 तक बंगाल विभाजन के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हिन्दू-मुसलमानों ने ज़ोरदार साझा आन्दोलन चलाया था और अंग्रेज़ों को वह फ़ैसला वापस लेना पड़ा था। 

बदली हुई राजनीतिक परिचर्चा

पर सूफ़ी संत लालन फ़कीर का पश्चिम बंगाल बदल चुका है, गंगा और पद्मा में बहुत पानी बह चुका है।  भद्रलोक बंगालियों में लड़ाई अब गंगा-पद्मा, इस पार-उस पार या हिलसा मछली के स्वाद को लेकर ही नहीं होती, वोटों को लेकर भी होती है। और यह लड़ाई राजनीतिक सिद्धान्त, भूमि सुधार आन्दोलन, बटाईदारी क़ानून या उखड़ रहे उद्योगों को केंद्र में रख कर नहीं, बल्कि हिन्दू-मुसलमान के मुद्दे पर भी होने लगी हैं।

अगले साल का विधानसभा चुनाव यह तय करेगा कि आगे की लड़ाइयाँ सांप्रदायिक मुद्दों, हिन्दू-मुसलमान बंटवारे, पहचान की राजनीति और चुनावी ध्रुवीकरण के लिए होंगी या रोज़गार, सिंचाई, बिजली, कारखाने के लिए होंगी।

जिस राज्य में एआईएमआईएम का कोई सांगठनिक ढाँचा भी नहीं था, वहाँ इसने पाँव फैलाना शुरू कर दिया है। पिछले साल ज़मीर-उल-हसन को पार्टी की राज्य ईकाई का अध्यक्ष बनाया गया। पश्चिम बंगाल के 23 में से 22 ज़िलों में इसका संगठन तैयार हो चुका है। लगभग 200 ब्लॉकों में इसने अपनी शाखाएं खोल ली हैं। पश्चिम बंगाल में 341 ब्लॉक हैं और उनमें 65 में मुसलिम बहुसंख्यक हैं।

ओवैसी की राजनीति

सवाल यह है कि पश्चिम बंगाल का मुसलमान मतदाता हैदराबादी लहज़े में उर्दू बोलने वाले असदउद्दीन ओवैसी पर कितना भरोसा करेगा। पिछले कुछ सालों में बढ़े मदरसों की तादाद, स्मार्टफ़ोन और हिन्दी फ़िल्मों-गानों की गाँवों तक हो रही घुसपैठ का नतीजा यह हुआ कि सुदूर बंगाल के गाँवों में भी लोग अब थोड़ा-बहुत उर्दू समझने लगे हैं। वे भले ही बोल न सकते हों, पर यह भाषा समझने लगे हैं। इसलिए ओवैसी के लिए भाषा बहुत बड़ी दिक्क़त नहीं होगी।

लेकिन ओवैसी की दूसरी दिक्क़तें हैं। शेष भारत में ओवैसी यह कहते फिरते हैं कि ग़ैर-बीजेपी दल मुसलमानों के वोट तो ले लेते हैं, पर एक बार सत्ता में पहुँचने के बाद वे उस समुदाय को भूल जाते हैं। ओवैसी की लोकप्रियता का मुख्य कारण यह है कि ग़ैर-बीजेपी दलों ने हिन्दुत्व का मुक़ाबला नहीं किया है, कोशिश ही नहीं की है।

दरअसल अब मुसलमानों की बात करने वाला कोई दल है ही नहीं, सारे दल खुद को मुसलमानों से दूर और हिन्दुओं के नज़दीक दिखाने की कोशिश करते हैं ताकि बहुमत सवर्ण हिन्दू उनसे दूर न हो जाए।

ओवैसी की ताक़त-उपेक्षित मुसलमान

गाँधीवादी अन्ना हज़ारे को गुरु मानने वाले और समानान्तर राजनीति करने का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल ने जब मुख्यमंत्री की हैसियत में पूरे मंत्रिमंडल के साथ दीवाली पर लक्ष्मी पूजन किया तो किसी ने कोई विरोध नहीं किया। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रमुख पूजा का सरकारी आयोजन करता है और कई टीवी चैनलों पर सरकारी पैसे से उसे विज्ञापन के रूप में लाइव प्रसारण करवाता है तो किसी की अंगुली नहीं उठी। 

इसी अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली दंगों पर चुप्पी साधे रखी। उसके बाद हो रहे एकपक्षीय और मुसलिमों को निशाने पर रख कर की जा रही जाँच पर भी वे खामोश ही रहे। एनआरसी-सीएए विरोधी आन्दोलन पर वे चुप रहे और उनके सहयोगी मनीष सिसोदिया ने शाहीन बाग में धरने पर बैठी महिलाओं के समर्थन में किया हुआ एक लाइन का ट्वीट तुरन्त डिलीट कर दिया था। 

ओवैसी की राजनीति को खाद-पानी इन स्थितियों से मिलती है। क्या पश्चिम बंगाल में ऐसा है शायद नहीं।

मुसलिम-परस्त ममता

ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री बनते ही मुसलमानों के मुद्दों को जिस तेज़ी से उठाया कि बीजेपी ने उन पर मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप लगा दिया। 

इमामों को मासिक भत्ता

वर्ष 2011 में राज्य की सत्ता में आने के साल भर बाद ही ममता ने इमामों को 2,500 रुपए का मासिक भत्ता देने का एलान किया था। उनके इस फ़ैसले की काफी आलोचना की गई थी। कलकत्ता हाईकोर्ट की आलोचना के बाद अब इस भत्ते को वक़्फ़ बोर्ड के जरिए दिया जाता है। लेकिन इमामों को पैसे अभी भी मिल रहे हैं। 

मुसलमानों को आरक्षण

ममता बनर्जी ने जस्टिस राजिंदर सच्चर समिति की रिपोर्ट को झाड़-पोंछ कर निकाला और उसमें मुसलमानों में पिछड़ों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश को लागू किया। इसके तहत मुसलमानों में ओबीसी, जिन्हें बिहार यूपी में ‘पसमांदा मुसलमान’ कहते हैं, उनके लिए नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था है। उनका तर्क है कि राज्य की सरकारी नौकरियों में सिर्फ 4 प्रतिशत मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल में पिछड़े मुसलमानों की संख्या लगभग 25 प्रतिशत है।

बीजेपी ने इस पर खूब शोर मचाया और हिन्दुओं से भेद-भाव करने का आरोप तक लगाया, लेकिन ममता के पक्ष में यह बात जाती है कि उन्होंने केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त समिति की एक सिफ़ारिश को लागू किया है। 

अंग्रेज़ी माध्यम का मदरसा

मदरसों का आधुनिकीकरण वाम मोर्चा शासन के दौरान किया जा चुका है, जहां के मदरसों में कंप्यूटर समेत सभी आधुनिक विषय पढ़ाए जाते हैं, मदरसों के बच्चे मेडिकल-इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाएं पास कर रहे हैं, कई मदरसों में 25 प्रतिशत या उससे ज़्यादा हिन्दू बच्चे पढ़ते हैं। ममता बनर्जी की सरकार ने पश्चिम बंगाल में पहले अग्रेज़ी माध्यम का मदरसा खोला। 

नदिया ज़िले में ‘द पानीनाला इंगलिश मीडियम गवर्नमेंट हाई मदरसा’ का एलान हुआ तो लोगों की भौहें तनी, मदरसा और अंग्रेजी में लेकिन यह ऐसा अंतिम मदरसा नहीं है, कम से कम14 मदरसे अंग्रेजी माध्यम से चल रहे हैं और वे सभी सरकारी हैं।

इसके बाद जब 23 अप्रैल 2020 को पश्चिम बंगाल लोक सेवा आयोग ने अंग्रेज़ी मदरसों के लिए भूगोल के 12 शिक्षकों के नामों का एलान किया तो भूचाल मचा। इनमें एक भी मुसलमान नहीं था, सभी हिन्दू थे। कुछ मुसलिम संगठनों ने इस पर भी राज्य सरकार की आलोचना की, लेकिन मदरसों का किस तरह आधुनिकीकरण हो चुका है, इसकी बानगी तो मिलती ही है। 

क्या ममता बनर्जी वाकई असदउद्दी ओवैसी से डरती हैं देखे सत्य हिन्दी का यह वीडियो। 

सीएए-एनआरसी

सीएए और एनआरसी के मुद्दों पर जब सुगबुगाहट ही हो रही थी, ममता बनर्जी ने एलान कर दिया  कि वे अपने राज्य में इसे किसी कीमत पर लागू नहीं करेंगी। इसके बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित करवाया, जो एनआरसी को खारिज करता है। कांग्रेस, वाम मोर्चा, एसयूसीआई के समर्थन और बीजेपी के दो विधायकों के बायकॉट के बीच यह प्रस्ताव आम सहमति से पारित हो गया था। 

ममता बनर्जी ने इसके विरोध में आन्दोलन की चेतावनी दी और उसी समय से मुसलमानों को लामबंद करने में जुट गईं। जिस समय शाहीन बाग में आन्दोलन चल रहा था, कोलकाता की महिलाओं ने भी कई दिनों तक पार्क सर्कस मैदान में धरना प्रदर्शन किया था। इसके बाद कई दिनों तक ममता बनर्जी रोज़ाना कहीं न कहीं इस तरह के आन्दोलन को संबोधित करती रहीं, कुछ जगहों पर पैदल मार्च निकाला, कुछ जगहों पर दूसरे नेताओं को भेजा। 

इस पर बीजेपी ने जो बवाल मचाया और ममता बनर्जी ने उसकी काट के लिए किस तरह हिन्दू तुष्टीकरण की, यह एक अलग मुद्दा है। पर यह तो साफ हो गया कि तृणमूल कांग्रेस मुसलमानों के साथ है। 

(इस श्रृंखला की अगली किश्त कल पढ़ें।