बंगाल में बीजेपी के लिये भगवा झंडा फहराना क्यों आसान नहीं? 

07:20 am Dec 10, 2020 | रविकान्त - सत्य हिन्दी

अगले साल पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव बहुत दिलचस्प होने जा रहे हैं। लोकसभा चुनाव 2019 से भगवा फहराने की तैयारी में बीजेपी क्या बंगाल में कमल खिला सकेगी यह बहुत मौजूँ सवाल है।

अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले चुनावों के लिए बिगुल बज चुका है। बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह लगातार बंगाल पर नज़रें टिकाए हुए हैं। बंगाल को लेकर बीजेपी की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि बिहार चुनाव के दौरान अमित शाह कोलकाता की सड़कों पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को राजनीतिक चुनौती दे रहे थे। बिहार में एनडीए की जीत का जश्न मनाने, दिल्ली के बीजेपी कार्यालय पहुँचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक हत्याओं का ज़िक्र करके बंगाल की ओर इशारा कर दिया है।

आख़िर बीजेपी के लिए पश्चिम बंगाल इतना महत्वपूर्ण क्यों है दरअसल, केरल और पश्चिम बंगाल दो ऐसे राज्य हैं, जहाँ संघ भगवा फहराने के लिए बहुत पहले से बेताब है। वामपंथ के गढ़ माने जाने वाले इन राज्यों को फतह करना, संघ-बीजेपी के लिए एक वैचारिक युद्ध जीतना है। बीजेपी और संघ के लिए वामपंथी सबसे बड़े शत्रु हैं। दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी किताब 'बंच ऑफ़ थॉट्स' में हिंदुत्व के तीन शत्रु बताए हैं - मुसलिम, ईसाई और कम्युनिस्ट। संघ-बीजेपी के लिए मुसलमानों और ईसाइयों से मिलने वाली धार्मिक चुनौती का सामना करना बेहद आसान है। बल्कि मुसलिम और ईसाई धार्मिक गतिविधियाँ, हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने में संघ-बीजेपी के लिए मददगार होती हैं। इसलिए संघ-बीजेपी के लिए असली चुनौती वामपंथ है।

मार्क्सवाद धर्म की आलोचना करता है। मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है और बीजेपी-संघ इसी अफीम यानी धर्म की खेती करते हैं। इसीलिए उनकी असली चुनौती वामपंथी विचारधारा और राजनीति है। अब हालाँकि बंगाल में बीजेपी की चुनौती वामपंथ नहीं बल्कि ममता बनर्जी हैं। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों पर मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप लगाने वाली बीजेपी ममता बनर्जी पर भी वही आरोप मढ़ रही है। 

90 के दशक में मुलायम सिंह यादव को 'मुल्ला मुलायम' कहने वाले भगवाधारी आज बंगाल में ममता बनर्जी को 'ममता बेगम' कहते हैं।

बीजेपी को धार्मिक रंग भाता है। इसी से उसका कमल खिलता है। लेकिन ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रवीन्द्रनाथ टैगोर और काजी नजरुल इस्लाम की ज़मीन पर सांप्रदायिक राजनीति करना क्या आसान होगा पिछले दो साल से लगातार अमित शाह और बीजेपी के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय हिंदू-मुसलिम कार्ड खेल रहे हैं। पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्व में बंग्लादेशी ' घुसपैठिए' मुसलमानों को विदेशी घोषित करने के नाम पर सीएए- एनआरसी क़ानून बनाने की प्रक्रिया अमल में लाई गई। अमित शाह ने दहाड़ते हुए कथित घुसपैठियों को देश के बाहर फेंकने की बात कही। हालाँकि, इस क़ानून से पूरे देश के मुसलमानों की नागरिकता संदिग्ध बना दी गई, लेकिन इसका असर बंगाल और असम में आसानी से हो सकता है। इन राज्यों में बंग्लादेशी घुसपैठियों के नाम पर समूचे मुसलिम समुदाय को कटघरे में खड़ा करके, उनके ख़िलाफ़ नफ़रत बोकर वोटों की फ़सल काटी जा सकती है। 

गोदी मीडिया के सहारे पश्चिम बंगाल में हिंदुत्व के एक और मुद्दे को हवा दी गई है। सीमापार होने वाली गो-तस्करी के मार्फत पूरे मुसलिम समुदाय का पैशाचीकरण करने की कोशिश की गई। निश्चित तौर पर घुसपैठ और तस्करी बड़ी समस्याएँ हैं। दोनों देश वार्ता के ज़रिए इस समस्या का निदान कर सकते हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार और संघ-बीजेपी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि बंगाल में सत्ता पाना चाहते हैं।

सांप्रदायिक कार्ड बंगाल में चलेगा

सवाल यह है कि क्या बीजेपी का सांप्रदायिक कार्ड बंगाल में चलेगा। बंगाल के इतिहास में इसकी गुंज़ाइश भी देखी जा सकती है। उल्लेखनीय है कि भारत के बँटवारे में पंजाब और बंगाल सीधे तौर पर प्रभावित रहे हैं। पंजाब में हिंदू, मुसलिम, सिख और कुछ कबिलाई समुदाय थे। लेकिन विभाजन के समय यहाँ मुख्य रूप से मुसलमानों और सिखों के बीच सांप्रदायिकता देखी गई। लाहौर और अमृतसर सबसे ज़्यादा सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित शहर थे। बंगाल पूर्वी और पश्चिमी दो भागों में विभाजित हुआ। 

बंगाल का यह दूसरा बँटवारा था। स्मरणीय है कि 16 अक्टूबर 1905 को लॉर्ड कर्जन ने 'मुसलमानों का विशेष ख्याल' रखते हुए प्रशासनिक दिक्कतों को दूर करने के लिए बंगाल का विभाजन किया था। 1908 में हुए सामूहिक प्रतिरोध के कारण 1911 में बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया। कुछ इतिहासकार देश-विभाजन का मूल कर्जन द्वारा किए गए बंगाल विभाजन में ही देखते हैं। बंगाल की ज़मीन पर ही मुसलिम लीग पैदा हुई। 30 दिसंबर 1906 को ब्रिटिश वायसराय लार्ड मिंटो की शह पर ढाका के नवाब सलीमुल्ला खाँ ने अपने कुछ रईस दोस्तों के साथ मिलकर मुसलिम लीग का गठन किया।

अजीब इत्तिफ़ाक़ है कि विभाजन से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले दूसरे राज्य पंजाब में बी. एन. मुखर्जी और लालचंद ने 1909 में हिन्दू सभा का गठन किया। 1915 में वी. डी. सावरकर, मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय द्वारा अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का गठन किया गया।

लेकिन मजेदार बात यह है कि दोनों सांप्रदायिक पार्टियों ने 1941 में बंगाल में मिलकर सरकार बनाई। लीग के फजलुल हक इस सरकार में प्रधानमंत्री (आज के हिसाब से मुख्यमंत्री) और हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्त मंत्री थे। यही फजलुल हक बाद में पाकिस्तान के गृह मंत्री बने।

1940 के लाहौर अधिवेशन में मुसलिम लीग द्वारा पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव पास किया जा चुका था। बहरहाल, 1946 में मोहम्मद अली जिन्ना के आह्वान पर मुसलिम लीगी कार्यकर्ताओं द्वारा 'सीधी कार्रवाई' की गई। कलकत्ता में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए। आज़ादी के समय सांप्रदायिक दंगों का केंद्र नोआखली (बांग्लादेश) बना। यहाँ मुसलिम दंगाइयों द्वारा हिन्दुओं पर हो रहे जुल्मों का मुक़ाबला करने के लिए महात्मा गांधी और राम मनोहर लोहिया पहुँचे। अपनी नैतिकता और सहिष्णुता के बल पर उन्होंने बर्बर दंगाइयों को अपराध स्वीकार करने के लिए मजबूर किया। दंगाइयों ने गाँधी के पैरों पर हथियार डाल दिए।

सांप्रदायिकता सबसे बड़ी बाधा

आज़ादी के बाद देश निर्माण की प्रक्रिया में सांप्रदायिकता की समस्या सबसे बड़ी बाधा थी। इससे निपटना सबसे बड़ी चुनौती थी। भारत में रह रहे मुसलमान रातों-रात विभाजन के गुनहगार बना दिए गए। विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के शिकार, पाकिस्तान से आने वाले सिखों और हिंदुओं की बसावट नेहरू सरकार के लिए दूसरी बड़ी चुनौती थी। आरएसएस और हिंदू महासभा ने दिल्ली पहुँचे हिंदू और सिख शरणार्थियों के जख्मों को कुरेदकर उनके आक्रोश को और बढ़ाया। महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू के ख़िलाफ़ उनके मन में जहर भरा गया। गाँधी की हत्या में नाथूराम गोड्से के साथ एक सिंध से आया शरणार्थी मदनलाल पाहवा भी शामिल था। इस नफ़रती जहर के प्रभाव से शरणार्थी कांग्रेस के ख़िलाफ़ और हिन्दुत्ववादियों के साथ हो गए। इसका परिणाम 1952 के पहले आम चुनाव में दिखा। 

हालाँकि इस चुनाव में जनसंघ को पूरे देश में केवल दो सीटें प्राप्त हुईं, लेकिन दिल्ली में उसने 26 फ़ीसदी वोट प्राप्त किया। इसके पहले दिल्ली के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिशें भी हुईं। लेकिन ख़ासकर नेहरू की सजगता के कारण दिल्ली के मुसलमानों ने अपने आपको सुरक्षित महसूस किया। दूसरी तरफ़, आंबेडकर के संविधान और नेहरू के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष नज़रिए ने शरणार्थियों के मन में परायापन नहीं पनपने दिया। भारतीय लोकतंत्र ने शरणार्थियों को अपने आगोश में ले लिया। इसके बरक्स पाकिस्तान जाने वाले भारतीय मुसलमानों पर आज भी मुहाजिर होने की पहचान चस्पाँ है। गाहे-बगाहे उन्हें मुहाजिर होने का एहसास भी कराया जाता है।

पश्चिम बंगाल की डेमोग्राफी थोड़ी अलग है। भारत के बड़े राज्यों में आनुपातिक रूप से बंगाल में सबसे ज़्यादा मुसलिम आबादी है। क़रीब 28% फ़ीसदी। लेकिन सांस्कृतिक रूप से हिंदू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं है।

उत्तर भारत में हिंदुत्ववादी राजनीति के वर्चस्व के बावजूद बंगाली समाज सांप्रदायिक रूप से विभाजित नहीं हुआ। इसका एक कारण बांग्ला संस्कृति है। बंगाल के हिन्दू, मुसलमान सब बांग्ला बोलते हैं। केवल 5 फ़ीसदी मुसलमानों की जबान उर्दू है। इस मज़बूत सौहार्द का दूसरा बड़ा कारण बंगाल में वामपंथियों का लंबा शासन है। कांग्रेसी राजनीति के ख़िलाफ़ वामपंथी राजनीति की शुरुआत करने वाले राज्यों में केरल के बाद बंगाल का ही नाम आता है। 

वीडियो में देखिए, ममता-मोदी की लड़ाई का मैदान बनेगा बंगाल

साठ के दशक में यहाँ नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ। 'यह आज़ादी झूठी है'- नारे के साथ शुरू हुआ यह आंदोलन आदिवासियों, किसानों और मज़दूरों की आर्थिक आज़ादी का आंदोलन बन गया। 1977 में पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार बनी और 2011 तक, पूरे 34 साल तक उसका शासन रहा। केरल अगर पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी हुई वामपंथी सरकार देने वाला पहला राज्य है तो बंगाल दुनिया में सबसे सफल वामपंथी शासन देने वाला राज्य बना। क़रीब साढ़े तीन दशक तक शासन करने वाली वामपंथी सरकार की तमाम खामियाँ गिनाई जा सकती हैं। लेकिन दो मुद्दों पर उसके आलोचक भी उसकी सराहना करना नहीं भूलेंगे। बंगाल में भूमिहीनों के लिए भूमि वितरण का कार्यक्रम बहुत सफलतापूर्वक चलाया गया। कृषि व्यवस्था में सुधार का उल्लेखनीय उदाहरण बंगाल का वामपंथी शासन है। इसके अतिरिक्त सांप्रदायिक सौहार्द को पुख्ता करना वामपंथी राजनीति का सबसे सफल काम रहा है। यही कारण है कि ध्वस्त 'लाल क़िले' में आज भी बीजेपी के लिए भगवा फहराना इतना आसान नहीं होगा।