एक तस्वीर है एक ‘स्वर्णदंड’ की जिसे तमिलनाडु के कुछ ब्राह्मण राजदंड कहते हैं और जिसके सामने भारत की जनता के आदेश से संसद तक पहुँचे प्रधानमंत्री हैं। दूसरी तस्वीर है तिरंगे की जो पुलिस के बूटों के पास ज़मीन पर पड़ा है, उन महिला खिलाड़ियों के हाथ से छीना गया जो अपने लिए न्याय माँगते हुए संसद तक जाना चाहती थीं। एक तस्वीर है यौन उत्पीड़न के अभियुक्त भारतीय जनता पार्टी के सांसद की जो कैमरे के सामने विजय की क्रूर मुस्कान के साथ संसद में प्रवेश कर रहा है। दूसरी तस्वीर है पुलिस के द्वारा घसीटी जाती महिला खिलाड़ियों की जो उसी सांसद के ख़िलाफ़ न्याय का संघर्ष कर रही हैं।
यौन उत्पीड़न का अभियुक्त शान से संसद भवन में विराजमान है। उसके यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ने वाली खिलाड़ी पुलिस थानों में बंद हैं। संसद का नया भवन सज रहा है, जंतर मंतर पर एक महीने से धरना पर बैठी खिलाड़ियों का तंबू उजाड़ा जा रहा है।
एक तरफ़ मंत्रोच्चार का शोर है। दूसरी तरफ़ इंसाफ़ के नारों की आवाज़। हवन का धुआं जिसने भारत की जनता की आँखों को ढक लिया कि वे अपने जनतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष के दृश्य न देख पाएँ।
कल का दिन भारतीय जनतंत्र के सबसे शर्मनाक दिनों में गिना जाएगा। जनतंत्र की पीठ, यानी संसद में ही सारे जनतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों की धज्जी उड़ाई गई। एक प्रहसन किया गया जिसमें जनता के मतों से चुने गए दल का नेता ब्राह्मणों के हाथ से एक तथाकथित राजदंड ग्रहण कर रहा है। वही दंड जो इलाहाबाद के संग्रहालय में 75 साल डाल दिया गया था। उसकी जगह भला एक जनतंत्र में और कहाँ हो सकती थी? जनतंत्र में सत्ता का स्रोत जनता है, वह अधिकार जनता से मिलता है।
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शासक ईश्वरीय आदेश और प्रसाद से नहीं जनादेश से शासक का पद प्राप्त करता है। जनतंत्र में सरकार का प्रमुख जनता का प्रतिनिधि है, ईश्वर का नहीं। वह मात्र जन प्रतिनिधि है और उसका शासन अस्थायी है।
पिछले एक हफ़्ते से एक विराट झूठ का निर्माण किया गया। शर्मनाक यह है, भले ही आश्चर्यजनक न हो कि झूठ यह कि 75 वर्ष पहले जब अंग्रेज यहाँ से जाने को बाध्य हुए तो उन्होंने पूछा कि सत्ता का हस्तांतरण कैसे हो। नेहरू ने यह प्रश्न राजा राजगोपालाचारी से किया। उन्होंने अपने राज्य तमिलनाडु में पूछा। और सलाह दी कि चोलवंश की परंपरा के अनुसार एक राजा से दूसरे राजा के हाथ सत्ता देने के प्रतीक के तौर पर माउंटबेटन के हाथों नेहरू को राजदंड प्रदान किया जाना चाहिए। तमिलनाडु के अधीनम के ब्राह्मण पुरोहितों को राजाजी ने ऐसा राजदंड निर्मित करने को कहा। वे उसे पवित्र करके हवाईजहाज़ से दिल्ली लाए और माउंटबेटन को दिया जिन्होंने उसे नेहरू को प्रदान किया। इस तरह यह राजदंड, जिसे सेंगोल कहा जाता है, अंग्रेजों से भारत के हाथ सत्ता आने का प्रत्येक है। नेहरू ने इस पवित्र प्रतीक को इलाहाबाद के संग्रहालय में छिपा दिया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय परंपरा का अपमान किया। राजदंड को एक मामूली छड़ी की तरह एक अजायबघर में डाल दिए जाने का अपराध क्या कम गंभीर है?
सारे इतिहासकारों ने इस झूठ का खंडन किया। राजाजी के नाती, उनके जीवनीकार राजमोहन गाँधी से लेकर नेहरू के विशेषज्ञ माधवन पलात ने साफ़ कहा कि यह झूठ है जो एक अर्धसत्य की नींव पर खड़ा है। ख़ुद अधीनम के पुजारियों ने कहा कि उनके पास इसका कोई सबूत नहीं है। सच सिर्फ़ इतना है कि 15 अगस्त के पहले तमिलनाडु के अधीनम के कुछ पुजारी इस अवसर पर अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर करने सेंगोल के साथ ट्रेन से दिल्ली आए और उन्होंने समारोहपूर्वक नेहरू को यह सेंगोल दिया। यह पूरी तरह निजी आयोजन था ,इन पुरोहितों और नेहरू के बीच की बात थी। इसका कोई राजकीय महत्त्व न था।
सबने कहा कि सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर सेंगोल को नेहरू स्वीकार भी नहीं कर सकते है। वे गणतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते थे । सत्ता जनसत्ता ही हो सकती है, उसका स्रोत जनता है। वह कोई दैवी विधान नहीं है। उसका स्रोत ईश्वर नहीं, न उसे प्रमाणित करने का अधिकार ब्राह्मणों को है।
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राज्य को किसी भी प्रकार के धार्मिक प्रतीक से जोड़ने के विरोधी और ख़ुद नास्तिक समझे जानेवाले नेहरू ने अधीनम की भावना की कद्र करते हुए यह सेंगोल उनके हाथों लिए अवश्य ले लिया, उनके द्वारा दिया शाल भी ओढ़ा लेकिन फिर उस तथाकथित राजसत्ता के प्रतीक को वहाँ भेज दिया, जहाँ किसी भी जनतंत्र में उसकी जगह है: यानी अजायबघर में।
यह सब नेहरू ने निजी तौर पर किया। आधिकारिक रूप से ऐसा करने का निर्णय वे ले भी नहीं सकते थे। क्योंकि सारे फ़ैसले संविधान सभा ही कर सकती थी। सत्ता का हस्तांतरण कैसे हो, निर्णय इस जान प्रतिनिधि सभा के प्रस्ताव से हुआ।माउंटबेटन के हाथों नेहरू को सेंगोल देने जैसी मूर्खता का प्रस्ताव कौन कर सकता था? इस कल्पना के लिए 75 साल बीतने की ज़रूरत थी।
नरेंद्र मोदी राजसत्ता के इस प्रतीक को फिर से जीवन देना चाहते हैं। साथ की सत्ता को मान्यता देने में ब्राह्मणों के अधिकार को भी। ख़ुद को वे जनप्रतिनिधि नहीं, ईश्वर द्वारा नियुक्त राजा मान बैठे हैं।
यह बहुत ताज्जुब की बात नहीं।इसलिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सपना अंग्रेजों के जाने के बाद पेशवाई की वापसी का था। मोदी के रूप में वह नए पेशवा का राज्याभिषेक चाहता है।
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भाजपा के सारे सांसदों ने ख़ुद को मोदी का दरबारी मान लिया और चाहते हैं कि विपक्ष के जनप्रतिनिधि भी उनकी तरह के दरबारी बन जाएँ। उन्होंने ठीक ही इससे इनकार कर दिया है और संसद के नए भवन के उद्घाटन के प्रहसन का दर्शक बनने से मना कर दिया।
संसद की इमारत ईंट गारे की एक इमारत ही है। उसे प्राण देता है जनता का स्वर न कि कोई धार्मिक मंत्रध्वनि। कल इस मंत्रध्वनि के समानांतर अपने न्याय के अधिकार की माँग करते हुए जनकंठ ध्वनि सड़क पर सुनी जा सकती थी। उसे भारत के बड़े मीडिया ने दरबारी भांडों की तरह जय जयकार के शोर में दबा दिया। लेकिन वह अभी भी सड़क पर गूँज रही है।
सेंगोल को एक प्रहसन में भले ही संसद में प्रतिष्ठित कर दिया गया हो, जनशिक्त को वह विस्थापित नहीं कर सकता। महिला खिलाड़ी 6 महीने से नरेंद्र मोदी की भाजपा के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ़ न्याय माँगते हुए संघर्ष कर रही हैं। लेकिन अमूमन वाचाल प्रधानमंत्री ने न्याय की माँग पर होंठ सिल रखे हैं। कल जो ‘राजदंड’ संसद में प्रतिष्ठित किया गया, वही दिल्ली और आसपास की सड़कों पर पुलिस के हाथों जनता की पीठ पर बरसा।
वह जनशिक्त, लेकिन एक दिन संसद में वापस जान डालेगी। और उस दिन फिर यह दंड वहीं भेज दिया जाएगा, जहाँ उसे होना चािहए : किसी संग्रहालय में।