18वीं लोक सभा के चुनाव के नतीजों के बाद से अब तक बिहार में अलग-अलग जगहों पर एक के बाद एक 10 पुल गिर चुके हैं। यह किसी एक हिस्से में नहीं, पूरे बिहार में हुआ। किशनगंज, अररिया, मधुबनी, पूर्वी चंपारण, सीवान और सारण में एक के बाद एक 10 पुल ढह गए। एक दिन में 5 पुल ध्वस्त हुए। बारिश शुरू होते ही इतनी बड़ी संख्या में पुलों के गिरने पर भी बिहार में शासक गठबंधन से मीडिया या जनता सवाल कर रही हो, इसका कोई प्रमाण नहीं। क्रोध से ज़्यादा विनोद का भाव दिखलाई पड़ता है।
पुलों ने गर्मी के मारे नदी में डुबकी लगाई, नीतीश कुमार की मौक़ापरस्ती के चलते पुल डूब मरे, जैसा हँसी मज़ाक़ आप सोशल मीडिया पर देख सकते हैं। लोग नदी हेलकर पार कर रहे हैं लेकिन पुल से होकर नहीं। इस तरह के कार्टून भी आप देख सकते हैं। लेकिन कोई सार्वजनिक क्रोध कहीं नज़र नहीं आता। कोई चाहे तो कह सकता है कि आख़िर ये चुटकुले और कार्टून भी क्रोध की ही अभिव्यक्ति हैं। उस असहाय क्रोध के जो पिछले दशकों में बिहार का सामाजिक स्वभाव बन गया लगता है।
शासक गठबंधन के सदस्य दल के नेता और अपने दल में सिर्फ़ अपनी सीट जीत कर केंद्रीय मंत्री बने जीतनराम माँझी ने कहा कि इतनी बारिश ही हो रही है कि पुल ढह गए। ऐसा बयान देते समय बुज़ुर्गवार को अपने जीवन की बाक़ी बरसातें याद न आईं। बहुत बारिश होने पर पुल का गिरना ही स्वाभाविक है! राज्य सरकार के निर्माण विभाग के मंत्री ने ज़िम्मेदारी लेने से इनकार करते हुए कहा कि विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए क्योंकि वे पिछली सरकार में डेढ़ साल तक पथ परिवहन मंत्री थे। उन्होंने पुलों की देखभाल का इंतज़ाम नहीं किया।
मज़ेदार बात यह है कि यह नीतीश कुमार की ही सरकार थी जिसके मंत्री तेजस्वी यादव पर आज की उनकी आज की सरकार के मंत्री आरोप लगा रहे हैं।लेकिन नीतीश कुमार इसकी ज़िम्मेवारी से मुक्त हैं। बिहार में कुछ भी गड़बड़ होने पर पिछली सरकार पर आरोप लगता है। जिस पर आरोप लगता है वह भी नीतीश कुमार की सरकार होती और जिस समय आरोप लगता है, वह भी नीतीश कुमार की ही सरकार का समय होता है। बाहर के किसी भी पर्यवेक्षक के लिए यह समझना कठिन है कि पिछले 15 साल से एक ही मुख्यमंत्री एक दूसरे की विरोधी पार्टियों के साथ मिलकर बदल बदल कर सरकार कैसे चला रहा है और कैसे बिहार की जनता इसे न सिर्फ़ सहन कर रही है बल्कि इसका बुरा मानती भी नहीं दीखती।
यह बिलकुल संयोग है लेकिन काफी प्रतीकात्मक भी है। बिहार में यह एक तरह से उस नीतीश कुमार के युग की समाप्ति का संकेत है जिन्हें सड़कों और पुलों के निर्माण के कारण ही बिहार का विकास पुरुष कहा जाता था। लेकिन पुलों के इस तरह ढहने से इस विकास की पोल भी खुल जाती है। पहले भी लोगों ने ध्यान दिलाया था और पत्रकार नील माधव ने मुझसे कहा कि बिहार का पूरा का पूरा विकास सिर्फ़ सड़कों और पुलों के निर्माण पर ही टिका हुआ था।बाक़ी कुछ न होने पर ठेकेदारी का व्यवसाय या नौकरी बन जाती है। निर्माण का मतलब भारत में भ्रष्टाचार ही होगा, यह आम समझ है।
दबे ढँके लोग कहते रहे थे और बाद में खुल कर भी कि लालू यादव के शासन काल को भ्रष्टाचार का पर्याय मान लिया गया है लेकिन नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री होते हुए भ्रष्टाचार ने नई नई ऊँचाइयाँ छुईं।
मज़ेदार यह है कि मीडिया ने कभी इसे मुद्दा बनाना ज़रूरी नहीं समझा और इसकी कोई पड़ताल भी नहीं की। नीतीश के राज में कोई काम बिना रिश्वत के नहीं होता और पुलिस और नौकरशाहों की पौ बारह है, यह आम बातचीत में आप सुन सकते थे। जैसे यह खुला राज है कि शराबबंदी के बाद बिहार में शराब पर एक समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी हो गई है और लोगों का कहना है कि अब शराब आपूर्ति में पुलिस प्रमुख माध्यम है। यह अर्थव्यवस्था गाँवों के नौजवानों को बर्बाद कर रही है। लेकिन इसपर कोई सामाजिक रोष नहीं।शायद इसलिए कि सबने मान लिया है कि काम का और कोई ज़रिया बिहार के नौजवानों के पास नहीं बचा।
अब जाकर यह समझ में आता है कि लालू यादव के भ्रष्टाचार का विरोध जितना भ्रष्टाचार से विरक्ति के कारण नहीं, उतना इस कारण था कि वह लालू यादव के नेतृत्व में कैसे हो सकता है। लालू यादव को भ्रष्टाचार और नीतीश कुमार को विकास का चेहरा बनाने में मीडिया की अहम भूमिका थी। बल्कि नीतीश के शासन में आते ही मीडिया ने तय कर लिया था कि वह सरकार के प्रचारक का काम करेगा, आलोचना जैसा नकारात्मक काम नहीं।
मुझे बिहार और झारखंड के एक अख़बार के, जो ख़ुद को अख़बार नहीं आंदोलन कहता था, संपादकीय विभाग के सदस्यों ने बतलाया कि नीतीश के शासन में आने के बाद पहली बैठक में मुख्य संपादक ने कहा कि अब अख़बार को सकारात्मक भूमिका निभानी है। लेकिन इसमें मज़ेदार बात यह है कि मीडिया की यह सकारात्मकता उसी नीतीश के समय दीखती थी जब वे भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार चला रहे होते थे। जैसे ही भाजपा का साथ छोड़कर उन्होंने राजद का हाथ थामा, मीडिया अपनी आलोचक की भूमिका में लौट आया। मुझे दिल्ली के एक साप्ताहिक का मुखपृष्ठ याद आता है जो नीतीश के भाजपा से अलग होने के फ़ौरन बाद के अंक का था। ‘बिहार में बाहुबलियों का राज’ यह मुखपृष्ठ पर छपा था। वह राज क्या भाजपा के समय नहीं था और क्या अचानक उस साप्ताहिक को उसका पता चला जब नीतीश भाजपा से अलग हो गए?
भ्रष्टाचार और अपराध का दाग नीतीश कुमार के दामन पर न दीखे, मीडिया इसके लिए नीतीश कुमार से अधिक परेशान नज़र आता था। उस दौरान पत्रकार बतलाते थे कि पत्रकारिता के मामले में बिहार में इमरजेंसी है: आप सरकार की आलोचना में कुछ छाप नहीं सकते।
किसी ने यह न पूछा कि नीतीश कुमार के शासन काल में बिहार में शिक्षा का क्या हश्र हुआ। 2018-19 में बिहार में हर बच्ची पर 5000 से भी कम रुपए खर्च किए जा रहे थे जबकि केरल में यह खर्चा एक बच्ची पर 24000 रुपया था। उसी तरह यह सवाल न किया गया कि बिहार में प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा में क्या हो रहा था। नीतीश कुमार के शासन काल में बिहार की स्कूली और उच्च शिक्षा इन पुलों की तरह ही ध्वस्त हुई लेकिन उसका कोई दृश्य नहीं बन सका जैसे पुलों के ढहने का बन सकता था।
नील माधव ने ठीक ही कहा कि शायद अपनी अंतिम पारी में नीतीश कुमार की असलियत ज़ाहिर हो गई है। वे आख़िरकार जातिगत राजनीति के कारण ही प्रासंगिक हैं, विकास के चलते नहीं।यह भी साफ़ हो गया है कि राजनीति और शासन के बीच इतना सीधा रिश्ता भी नहीं है। नीतीश अति पिछड़ों के नेता होने के कारण उपयोगी हैं इसलिए नहीं कि उनके शासनकाल में बिहार ने कोई ख़ास तरक्की की है।
सिर्फ़ पुल नहीं ढह रहे हैं, धीरे धीरे पूरा बिहार ढहता गया है। भागलपुर, मुजफ्फरपुर, छपरा, दरभंगा जैसे शहर ढह चुके हैं। बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय की चमक की कौंध में जर्जर पटना विश्वविद्यालय की सुध कौन लेगा? नए संग्रहालय की सम्राट अशोक कन्वेंशन सेंटर की भव्यता से स्तब्ध दर्शक कहाँ जान सकेंगे कि पटना में अब गोष्ठियों के लिए हॉल नहीं बचे।
बिहार के धीरे धीरे एक मलबे में बदलते जाने की कहानी इतनी उदास और पीड़ादायी है कि लोग हँसी मज़ाक़ क़रके उस दर्द को छिपा लेते हैं। लेकिन है यह कहानी नीतीश के नेतृत्व में बिहार के पतन की ही।
(लेखक देश के जानेमाने चिंतक हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं)