विपक्षी दलों और अपने सहयोगियों की आलोचना के बाद भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार ने तय किया कि जो आदेश पहले मात्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए था अब वह पूरे राज्य में लागू किया जाएगा।यह आदेश है दुकानदारों को अपना और अपने कर्मचारियों का नाम प्रमुखता से बाहर प्रदर्शित करने का। कारण यह बतलाया जा रहा है कि काँवड़ यात्रा के दौरान काँवड़ियों के आचार-व्यवहार की शुचिता सुनिश्चित करने के लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें मालूम हो कि वे सही जगह से सामान ख़रीद रहे हैं या नहीं। ख़ासकर खाने-पीने का। इस आदेश का विरोध करने पर तर्क दिया गया कि काँवड़ियों को यह जानने का अधिकार है वैसे ही जैसे मुसलमान जानना चाहते हैं कि जो चीज़ वे ख़रीद रहे हैं वह हलाल है या नहीं।
लेकिन इस आदेश के साथ यह भी मालूम हुआ कि उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी कहा है कि सारे राज्य में कोई भी ऐसी चीज़ नहीं बेची जाएगी जिस पर हलाल के प्रमाण की मुहर लगी हो। इससे यह साफ़ हुआ कि उत्तर प्रदेश की सरकार मानती है कि काँवड़ियों या हिंदुओं को तो यह अधिकार होगा कि वे भोजन या किसी और सामग्री की सात्विकता की गारंटी करें लेकिन मुसलमानों को यह अधिकार नहीं होगा कि वे यह तय कर सकें कि वे जो ख़रीद रहे हैं वह उनके धार्मिक आचार के मुताबिक़ सात्विक है या नहीं।
यह बात समझ के बाहर है कि नाम मात्र से यह कैसे तय किया जा सकता है कि वहाँ सात्विक वस्तुएँ मिल रही हैं।यह भी नहीं मालूम कि हिंदू सात्विक सामग्री वास्तव में क्या होती है।हमें ट्रेन में या हवाई जहाज़ में जैन भोजन तो मिलता है लेकिन हिंदू या मुसलमान भोजन नहीं मिलता। क्या सात्विक भोजन वह है जिसमें प्याज़, लहसुन न हो? माँस, मछली सात्विक है या नहीं? उसमें भी किस प्रकार का माँस सात्विक माना जाएगा? या उसमें कुछ और पाबंदियाँ हैं? सात्विक की परिभाषा करने की जी तोड़ कोशिशों के बावजूद कोई एक फ़ैसला नहीं किया जा सका है।
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चूँकि क्या सात्विक है, यह नहीं मालूम इसलिए यह आसान है कि यही तय कर लिया जाए कि वह कौन है जो वह सामग्री दे रहा है। यानी देने वाला सात्विक है या नहीं। प्रश्न यह नहीं है कि रसोई में क्या आएगा,क्या नहीं बल्कि यह है कि रसोई में कौन आ सकता है और कौन नहीं।
एक टी वी चर्चा में इस सवाल पर दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ने कहा कि सावन के इस पवित्र महीने में काँवड़ियों को जानने का अधिकार है कि जिससे वे सामान ख़रीद रहे हैं, वह नहाया-धोया आदमी है या नहीं। यह सुनकर समाचार वाचिका ने उनके छात्रों के भाग्य पर मानो तरस खाते हुए उनसे पूछा कि यह कैसे मालूम होगा कि हिंदू नहाया धोया है? और यह कैसे तय कर लिया जाएगा कि मुसलमान बिना नहाए धोए दुकान पर बैठा है?
निष्कर्ष यह है कि सात्विक सामग्री क्या है यह इससे तय होगा कि उसे देने वाला सात्विक है या नहीं। किसके हाथ का छुआ हम लेंगे और किसके हाथ का छुआ नहीं। क्या महत्त्वपूर्ण नहीं है, कौन ही महत्त्वपूर्ण है। यही अस्पृश्यता का मूल है जिसे पवित्रता के तर्क से उचित ठहराया जाता रहा है।
सात्विकता पर बहस के दौरान प्रोफ़ेसर साहब बाज़ार के इस्लामीकरण की साज़िश की चर्चा करने लगे। उनका कहना था कि मामला मात्र माँस तक नहीं रह गया है, अब लिपस्टिक जैसी चीज़ पर भी हलाल की मुहर दिखने लगी है। कपड़े और दवाई पर भी। यह उनके लिहाज़ बाज़ार का इस्लामीकरण है जिसे रोकना ज़रूरी है।
प्रोफ़ेसर साहब सही कह रहे थे। हिंदुओं में सात्विकता अब तक परिभाषित नहीं है। लेकिन मुसलमानों में हलाल को लेकर कोई दुविधा नहीं है। मरे हुए जानवर या चिड़िया, ख़ास तरीक़े से काटे गए जानवर का माँस, सुअर का माँस या चर्बी, शिकारी जानवरों का माँस या उनका कोई अंश, शराब मुसलमानों के लिए हराम है। यानी इनसे मुक्त सामग्री हलाल है।
हलाल का मतलब पवित्र नहीं है। उसका मतलब है स्वीकार्य। इसलिए मुसलमानों के लिए जानना ज़रूरी है कि दवा हो या प्रसाधन सामग्री, उसमें अलकोहल या निषिद्ध जानवर की चर्बी का इस्तेमाल हुआ या नहीं। सामग्रियों के परिष्करण में भी इसका ख़्याल रखा गया है या नहीं।
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अब आप विचार करें कि जो मुसलमानों के लिए हलाल है, उसे इस्तेमाल करने में क्या किसी हिंदू उज्र हो सकता है? क्या जो उनके लिए हलाल है, वह हिंदुओं के लिए हराम है?
हलाल का प्रमाणन मुसलमानों के अधिकार की रक्षा करता है और किसी भी प्रकार हिंदुओं के किसी अधिकार का उल्लंघन करता है? फिर हलाल की मुहर का विरोध क्यों? उस पर पाबंदी क्यों? क्या इसका कारण सिर्फ़ यह नहीं कि मुसलमानों को उनके धार्मिक या सांस्कृतिक अधिकार से वंचित किया जाए?
उसी टी वी चर्चा में एक और बात सुनी। वह मज़ेदार थी या हास्यास्पद या निंदनीय यह तय करना कठिन है। कहा गया कि मुसलमान किसी भी भी चीज़ पर क़ुरआन की आयात पढ़कर उसे हलाल कर देते हैं। इसलिए भी हिंदू, ख़ासकर काँवड़ियों को उनसे कुछ भी लेने से बचना चाहिए। किसी भी चीज़ को हलाल करने की इस विधि के आविष्कार के लिए मुसलमान ज़रूर प्रोफ़ेसर के शुक्रगुज़ार होंगे।
तरह तरह से यह साबित किया जा रहा है कि मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वे सात्विकता की रक्षा करेंगे। जब उन पर भरोसा नहीं तो उनसे कोई व्यवहार नहीं किया जा सकता! फिर सावन के महीने में ही सात्विक भजन या आचरण क्यों? मुसलमान तो साल भर हलाल का ख़याल रखते हैं। उनसे प्रतियोगिता करते हुए साल भर सात्विकता की गारंटी के लिए ज़रूरी होगा कि असात्विक लोगों के साथ कोई व्यवहार न रखा जाए।और मुसलमान सात्विक हो नहीं सकता!
सात्विकता की यह बीमारी उत्तर प्रदेश के बाद अब यह उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में फैल गई है। राजस्थान में भी इसकी माँग की जा रही है और बिहार में भी भाजपा ने नेता अब हिंदुओं की सात्विकता की रक्षा के लिए कमर कस रहे हैं।
इसे फिर दुहरा देना ज़रूरी है कि इस पूरे मामले में ‘क्या’ का सवाल नहीं है, सवाल ‘कौन’ का है। नाम बताओ जिससे हम तय करें कि तुमसे रिश्ता रखें कि नहीं। ट्रेन, बस में पूरा नाम बताने की ज़िद करते लोगों को प्रायः सुना है। राम कुमार से तसल्ली नहीं होती। साह या साहू या राम या दास या सिंह या यादव जब तक अंत में न सुनाई पड़ जाए, सामने वाला अस्पष्ट और इसलिए संदिग्ध बना रहता है।उससे कैसे व्यवहार करे, तय नहीं कर पाते।
मुसलमान भी वकील नाम रखते हैं, हिंदू भी। समीर दोनों में पाए जाते हैं। वैसे ही ख़ुशबू भी। इसलिए उत्तर प्रदेश पुलिस कह रही है कि कि वकील के आगे अहमद लगाओ, समीर के आगे अंसारी, ख़ुशबू के आगे ख़ान।
आगे यह आदेश भी जारी हो सकता है कि मुसलमान अपनी मर्ज़ी से नाम नहीं रख सकते। उनके नाम से उनकी मुसलमानियत ज़ाहिर होना ज़रूरी है। वह इसलिए कि हम तय कर सकें कि उनके साथ हम कब क्या करेंगे। भारतीय राज्य कह रहा है कि वह जितना गिरा है उससे और नीचे गिर सकता है। अगर किसी ने सोचा था कि 4 जून के चुनाव नतीजे से वह सँभलेगा, तो वह कह रहा है कि अभी हम पर्याप्त पतित नहीं हुए।