आरएसएस राहुल गांधी की मान्यता के लिए इतना बेकरार क्यों?

11:27 am Oct 28, 2024 | अपूर्वानंद

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं को इसका काफ़ी मलाल है कि राहुल गाँधी उनसे नहीं मिलते। उनका कहना है कि वे किस मुहब्बत की बात करते हैं जब हमसे गले नहीं मिलते। आर एस एस किसी से मुहब्बत चाहता है, यह सुनकर किसी का भी हँसते हँसते पेट फट सकता है। लेकिन... 

आर एस एस से राहुल गाँधी नहीं मिलते, इस वाक्य का क्या मतलब है? क्या आर एस एस प्रमुख ने कभी राहुल गाँधी से मिलने की इच्छा जतलाई है? मिलने को समय माँगा? अगर प्रमुख नहीं तो किसी दूसरे पदाधिकारी ने? इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं कि राहुल गाँधी को ऐसा पत्र लिखा गया और उन्होंने उसका उत्तर नहीं दिया या मिलने से इनकार कर दिया।आर एस एस ने चूँकि यह नहीं बतलाया है,हम यही मान सकते हैं कि राहुल के मिलने न मिलने का सवाल तभी पैदा होता जब संघ की तरफ़ से कोई अनुरोध उन्हें जाता।

पिछले दो सालों में अलग अलग क़िस्म के लोगों को राहुल गाँधी से मिलते देखा है। ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान अनेक ऐसे लोग उनसे मिले जो  उनके आलोचक या विरोधी रहे हैं। कई बुद्धिजीवी, व्यवसायी, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक कार्यकर्ता उनसे मिले और लंबी चर्चाएँ कीं। यह शिकायत हमने नहीं सुनी कि किसी ने राहुल गाँधी से मिलना चाहा हो और उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया हो। क्या इस यात्रा के दौरान आर एस एस के किसी पदाधिकारी ने उनसे मिलना चाहा? राहुल गाँधी ने तो कहा था कि जो भी  भारत के जोड़ने यानी यहाँ के लोगों को आपस में  जोड़ने में आयक़ीन करता है, यात्रा में आ सकता है। आर एस एस के पदाधिकारी दो कदम ही इसमें क्यों नहीं चले?  

राहुल गांधी सुल्तानपुर में मोची से मिलते हुए। फाइल फोटो।

अगर आर एस एस ने अपनी तरफ़ से कोई पहल नहीं की फिर भी वह राहुल गाँधी के उससे न मिलने को लेकर दुखी है तो संभवतः आर एस एस यह कहना चाहता है कि राहुल गाँधी ने उससे मिलने की इच्छा क्यों नहीं जतलाई। वे क्यों झंडेवालान के उसके  दफ़्तर या नागपुर के हेडगेवार भवन नहीं गए? या उन्होंने आर एस एस के प्रमुख या उसके किसी नेता से मिलने के लिए पत्र क्यों नहीं लिखा? 

आर एस एस शायद यह सोचने लगा है कि वह आज के भारत के लिए इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि किसी को अपना जीवन सुगम करने के लिए उसके दरबार में हाज़िरी लगाना अनिवार्य है। यह तो आज सब कहते हैं कि आपको उद्योग धंधा लगाना हो, कोई व्यवसाय करना हो आपके ऊपर आर एस एस का वरदहस्त आवश्यक है।


मुझे नाट्य संस्थाओं और सांस्कृतिक संस्थाओं के लोगों ने बतलाया है कि राजकीय अनुदान या सहायता के लिए उन्हें संस्कार भारती का अनुग्रह आवश्यक है। दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी भी शिक्षा या शोध संस्थान में पद के लिए भी आर एस एस का आशीर्वाद ज़रूरी है। यह हर स्तर पर पद और प्रतिष्ठा के लिए ज़रूरी है। मुझसे मेरे विद्यार्थी बतलाते रहते हैं कि अध्यापक पद पर चयन के लिए इंटरव्यू के पहले आर एस एस के किसी प्रभावी व्यक्ति से मिलकर उसकी कृपा प्राप्त करना अनिवार्य अर्हता है। अकादमिक योग्यता अब अप्रासंगिक है। मैंने ख़ुद ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो आर एस एस से जुड़े नहीं थे लेकिन 2014 के बाद वे आर एस एस के विभिन्न संगठनों और पदाधिकारियों के चक्कर लगाते रहते हैं।  उद्योगपति उसके दरवाज़े मत्था टेकते हैं। 

क्या भारत में राजनीति करने के लिए भी आर एस एस की अनुमति आवश्यक हो गई है? क्या वह सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की तरह भारत का पितृ संगठन बन गया है कि उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता नहीं खड़क सकता?


इन सवालों से परे हमें याद रखना ज़रूरी है कि आर एस एस की महत्त्वाकांक्षा एक ऐसे संगठन के रूप में स्वीकृति की है भारत के प्रत्येक समुदाय के लोग जिसकी छत्रछाया में रहने की याचना करें। इसलिए उसने ख़ुद को सांस्कृतिक संगठन के रूप में प्रचारित किया। संस्कृति जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी है इसलिए वह हर इलाक़े में नेतृत्वकारी भूमिका चाहता है।वास्तव में वह एक राजनीतिक संगठन है जिसका इरादा भारत पर क़ब्ज़े का है। राजनीतिक होते ही उसे प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा। लेकिन वह ख़ुद को प्रतियोगिताओं से परे, सबके ऊपर दिखलाना चाहता है। इसलिए वह ख़ुद को ग़ैर राजनीतिक दिखलाना चाहता है।

राहुल गांधी कोल्हापुर में एक मराठी परिवार के साथ। फाइल फोटो।

वह सबकी स्वीकृति या मान्यता चाहता है। बल्कि यह कहना चाहता है कि हर किसी को उसकी तरफ़ से मान्यता मिलनी चाहिए जिससे उनकी वैधता सिद्ध हो। वह यह भी दिखलाना चाहता है कि वह सारे दलों, विचारधाराओं से ऊपर है और वह हर किसी से संवाद करना चाहता है। इसलिए अगर कोई उससे बात नहीं कर रहा, तो गलती उसकी है, आर एस एस की नहीं। 

राहुल गांधी यूएस में भारत के उन बेरोजगार युवकों के साथ जो मजबूरी में परिवार छोड़कर विदेश गये। फाइल फोटो

यह सब कुछ ज़रा विषयांतर मालूम पड़ सकता है। हम राहुल गाँधी में आर एस एस की दिलचस्पी और उनकी आर एस एस के प्रति उदासीनता के सवाल पर लौट आएँ। उसके पहले एक और बात कर लें।आर एस एस को याद होगा कि एक और शख़्स था जिसने आर एस एस के प्रमुख से मिलने से इनकार कर दिया था। उस व्यक्ति का नाम था जवाहरलाल नेहरू। यह वक्त था गोलवलकर के जेल से बाहर आने का। आर एस एस प्रमुख को गाँधी की हत्या के बाद जेल में डाला गया था। कुछ वक्त गुजरने के बाद जब जेल से आर एस एस के लोगों को धीरे धीरे छोड़ा जाने लगा तो संघ प्रमुख ने बेतरह कोशिश करना शुरू किया कि किसी भी तरह नेहरू और सरदार पटेल की कृपा उसे मिल जाए। आर एस एस पर पाबंदी लग गई थी। वह किसी भी तरह खुले में आना चाहता था। लेकिन नेहरू उसे लेकर बहुत सख़्त थे। मिलने की गोलवलकर  की बारंबार याचना का उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। यह सब धीरेंद्र झा ने गोलवलकर की अपनी जीवनी में बतलाया है। 

इस इनकार के पहले नेहरू एक बार  गोलवलकर से मिलने को तैयार हुए थे 1947 में। गोलवलकर के अनुरोध पर हुई उनकी यह मुलाक़ात काफ़ी तनावपूर्ण रही। गोलवलकर ने नेहरू को समझाने का प्रयास किया कि आर एस एस जैसे संगठन की भारत को ज़रूरत है ताकि वह विश्व पर अपना असर डाल सके। नेहरू ने इस पर गोलवलकर को डाँट लगाई और कहा कि ऐसी ताक़त को कभी शैतानी नहीं होना चाहिए। फिर गोलवलकर ने यह सिद्ध  करने के लिए देर तक तर्क किया कि सांप्रदायिक हिंसा में संघ की  कोई भूमिका नहीं है।नेहरू यह झूठ सुनने के मूड में न थे।अपने अधिकारियों को इस बैठक के बारे में लिखते समय नेहरू ने गोलवलकर का नाम तक लेना ज़रूरी नहीं समझा। बाद में उन्होंने गोलवलकर के पत्रों का उत्तर देना भी ज़रूरी नहीं समझा। 

यही इंदिरा गाँधी ने आपातकाल में किया। आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख ने तब अपने ऊपर पाबंदी हटाने के लिए इंदिरा गाँधी को कई पत्र लिखे जो उनकी प्रशंसा करते हुए लिखे गए थे। इंदिरा ने उत्तर नहीं दिया। हालाँकि बाद में इंदिरा ने आर एस एस के साथ एक रणनीतिक रिश्ता बनाया। उनके पिता ने आर एस एस को किसी भी संवाद के योग्य नहीं पाया क्योंकि वे उसे एक असभ्य संगठन मानते थे। जो संगठन किसी समुदाय से घृणा और किसी समुदाय की श्रेष्ठता के विचार पर टिका हो, वह सभ्य कैसे हो सकता था? यह  ऐसा संगठन था जो असत्य, अर्धसत्य और छल कपट में माहिर था। वह जो कहता था, करता उससे अलग था। फिर उसपर भरोसा कैसे किया जा सकता था।