रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा ऐसे समय हो रही है जब नई दिल्ली के बारे में यह धारणा लगभग पक्की हो चुकी है कि वह अमेरिका का जूनियर पार्टनर बन गया है और इसकी विदेश नीतियाँ वाशिंगटन की शह पर चलती हैं।
लेकिन मामला सिर्फ इतना ही नहीं है, इस यात्रा का महत्व इसमें भी है कि दो पुराने दोस्त बदली हुई भौगोलिक-रणनीतिक स्थितियों में अपने रिश्तों को एक बार फिर से परिभाषित करना चाहते हैं। लेकिन इस बार उनका रिश्ता पहले से अधिक जटिल इसलिए है कि उनके बीच अमेरिका ही नहीं, चीन भी है, जो इतना ताक़तवर बन चुका है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
किन मुद्दों पर होगी बात?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति के बीच होने वाली बैठक में पारंपरिक हथियार, एके 203 राइफ़लों का निर्माण, युद्धक विमानों या ड्रोन की प्रौद्योगिकी की आपूर्ति, एस-400 एअर डिफेंस प्रणाली और दूसरे हथियारों की आपूर्ति का मुद्दा तो उठेगा ही, चीन सबसे अहम मुद्दा होगा।
भारत-रूस मिल कर इनसास यानी छोटी राइफ़लें बनाने का कारखाना खोल सकते हैं। यह एके 203 राइफ़ल से अलग होगा। रूस अभी भी भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता देश है और 2025 तक दोनों देशों के बीच 30 अरब डॉलर के व्यापार की संभावना है।
एस-400 सौदा
एस-400 एअर डिफेंस प्रणाली सौदा अमेरिका के काट्सा (सीएएटीएसए) का उल्लंघन है। काउंटरिंग एमेरिकन एडवर्सरीज़ ट्रू सैंक्संश एक्ट के तहत अमेरिका भारत को किसी तरह की प्रौद्योगिकी देने से इनकार कर सकता है। लेकिन वहां का एक बड़ा धड़ा भारत को इसमें छूट देना चाहता है ताकि भारत को बहुत दूर जाने से रोका जा सके और दूसरे प्रौद्योगिकी इसे बेचा जा सके।
पुतिन-मोदी बातचीत में यह भी एक मुद्दा हो सकता है।
मामला चीन का
भारत ने जिस तरह क्वाडिलैटरल स्ट्रैटेजिक डॉयलॉग्स यानी क्वाड की ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर लेने के बाद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा स्थितियों पर बार-बार चिंता जताई है, उससे रूस का चिंतित होना स्वाभाविक है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ये दोनों ही काम चीन को उसके आंगन दक्षिण चीन सागर में घेरने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है।
भारत जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ मिल कर यह करना चाहता है जबकि न तो दक्षिण चीन सागर में इसकी कोई रणनीतिक मौजूदगी है न ही हिंद प्रशांत क्षेत्र के बड़े हिस्से में इसकी कोई दावेदारी है।
इस पूरे इलाक़े में भारत की दिलचस्पी वियतनाम छोड़ किसी में नहीं है और वह देश खुद चीन से रिश्ते बेहतर करने में जुटा है।
अमेरिकी हित
अमेरिका के प्रति भारत का झुकाव 2005 में ही साफ हो गया था जब मनमोहन सिंह की सरकार ने तमाम विरोधों के बावजूद अमेरिका के साथ असैनिक परमाणु संधि पर समझौता किया था। उस समय यह कहा गया था कि इससे अमेरिकी परमाणु बिजली कंपनियाँ भारत में बड़े पैमाने पर निवेश करेंगी और भारत में परमाणु ऊर्जा से चलने वाली बिजली घरों का जाल बिछ जाएगा। यह साफ है कि अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है।
परमाणु ऊर्जा
इसी तरह यह भी कहा गया था कि भारत को न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता मिल जाएगी और इसे संवर्द्धित यूरेनियम की कमी नहीं होगी, आसानी से मिल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। भारत को न तो अब तक न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता मिली है न ही इसे किसी ने परमाण ऊर्जा दी है। यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया तक ने ऐसा नहीं किया है जिसने भारत को न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में शामिल करने का समर्थन किया था।
बदली हुई भौगोलिक रणनीतिक स्थितियों में रूस के लिए भारत का महत्व यह है कि वह अमेरिकी खेमे में एक सीमा से ज़्यादा न घुसे और हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की शह पर चीन की घेराबंदी न करे।
क्या चाहता है रूस?
मॉस्को की दिलचस्पी इसमें है कि दक्षिण चीन सागर, हिंद प्रशांत क्षेत्र, दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में अमेरिका अपने पैर न पसार सके। कम से कम भारत उसमें उसकी मदद न करे।
अफ़ग़ानिस्तान
अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया में रूसी दिलचस्पी साफ है। अफ़ग़ानिस्तान का मामला अभी ख़त्म नहीं हुआ है, जिस पर रूस की निगाहें टिकी हुई हैं। मॉस्को अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को टिकाए रखना चाहता है ताकि अमेरिका को वहां मौका न मिले। भारत को तालिबान से दिक्क़त यह है, यह सबको पता है, रूस भी इससे इनकार नहीं करता। विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के साथ मिल कर तालिबान कोई समस्या पैदा न करे, भारत को इसे देखना है और रूस भारत की चिंताओं को समझता है।
मध्य एशिया
इसी तरह मध्य एशिया में मौटे तौर पर रूस और चीन का ही दबदबा है। गैस और लीथियम व अन्य खनिज पदार्थो से भरे इस क्षेत्र का सामरिक महत्व यह है कि यह चीन को यूरोप तक पहुँचने का रास्ता दे सकता है। चीन की परियोजनाएं मध्य एशिया के लगभग हर देश में चल रही हैं। अमेरिका की दिलचस्पी चीन को यूरोप तक इस रास्ते से पहुँचने से रोकना है।
भारत की भूमिका यह हो सकती है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में अपनी खोई ज़मीन को हासिल करे और मध्य एशिया में चीन को थोड़ा बहुत कूटनीतिक प्रतिरोध दे। भारत पहले से ही शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य है। यह रूस भी चाहेगा कि भारत मध्य पूर्व में अपने पैर पसारे ताकि चीन का पूरा नियंत्रण न हो जाए।
'टू प्लस टू'
व्लादिमीर पुतिन की नरेंद्र मोदी के साथ इन तमाम मुद्दों पर बात हो सकती है। दोनों देशों के बीच 'टू प्लस टू' की बैठक होनी है। यानी दोनों देशों के रक्षा मंत्री व विदेश मंत्री बात करेंगे।
इस बातचीत का मुख्य फोकस रणनीतिक समझदारी विकसित करने पर ही होगा। हथियारों की खरीद-फ़रोख़्त पर भी बात हो सकती है। विशेष रूप से ड्रोन प्रौद्योगिकी, युद्धक विमान व हेलीकॉप्टर और नौसेना के लिए पारंपरिक हथियारों की आपूर्ति रूस के निशाने पर हो सकता है।
रूस ने बीति दिनों पाकिस्तान को युद्धक विमान बेचने में दिलचस्पी दिखाई थी, जिससे भारत की परेशान बढ़ी थी। लेकिन समझा जाता है कि मास्को सिर्फ भारत को संकेत देना चाहता है कि उसने हथियार नहीं खरीदे तो वह इसलामाबाद को ही बेच देगा।
इसके बाद आतंकवाद से लड़ने, दोनों देशों की जनता के बीच दोस्ती बढ़ाने जैसी पारंपरिक बातें भी होंगी।
व्लादिमीर पुतिन के समय भी रूस सोवियत संघ के दिनों की उस सोच से बाहर नहीं निकला है कि बहुत सोच समझ कर ही शतरंज की चालें चली जाएं। पुतिन इस साल सिर्फ एक बार रूस के बाहर गए, उन्होंने जनीवा सम्मलेन में भाग लिया था।दोतरफा रिश्ते में इस साल रूसी राष्ट्रपति की यह पहली यात्रा है। इससे इस यात्रा के महत्व को समझा जा सकता है। यह विदेश मंत्रालय के दिग्गजों पर निर्भर करता है कि वे मास्को से कितनी रियायतें ले पाएंगे और उसे बदले में क्या देंगे।