राष्ट्रपति के अभिभाषण ने सरकारी नाकामी को वैधता प्रदान की

12:09 pm Jun 30, 2024 | वंदिता मिश्रा

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-87 के अनुसार, आम चुनावों के बाद नई संसद गठित होने पर और प्रत्येक वर्ष के पहले सत्र की शुरुआत में (जब भी पहली बार निचले सदन अर्थात लोकसभा की बैठक होगी) राष्ट्रपति संसद के दोनो सदनों को संयुक्त रूप से संबोधित करेंगे। 27 जून 2024 को भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के इसी प्रावधान के तहत भारत की संसद को संबोधित किया। भले ही यह सम्बोधन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता हो लेकिन इसमें उनकी भूमिका मात्र एक वक्ता की ही होती है। असल में राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार की नीतियों का विवरण होता है, इसलिये अभिभाषण का प्रारूप सरकार द्वारा तैयार किया जाता है। इसीलिए जब भी कभी राष्ट्रपति का सम्बोधन सुनें तो उसे संबंधित केंद्र सरकार की मंत्रिपरिषद से जोड़कर देखना चाहिए। और चूंकि प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का मुखिया होता है इसलिए अच्छा होगा कि राष्ट्रपति के अभिभाषण को प्रधानमंत्री के विचार, दृष्टिकोण और उनकी योग्यता से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए। 

राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद अगले दिन तमाम अखबारों ने अभिभाषण को प्रकाशित किया। पहले प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और फिर राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी तमाम अन्य बातों की तरह ‘आपातकाल’ का ज़िक्र था। यह ज़िक्र ऐसा था कि कई अखबारों ने इसे ‘फोकस’ की तरह इस्तेमाल किया। 25 जून 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने ‘आंतरिक गड़बड़ी’ का हवाला देकर भारत के संविधान के अनुच्छेद-352 का इस्तेमाल करके आपातकाल लगा दिया था। 

इसी 25 जून तारीख को याद करके वर्तमान राष्ट्रपति ने भी 27 जून के अपने सम्बोधन में आपातकाल का ज़िक्र कर दिया, या यह कहा जाए कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा से यह मामला उठाया गया। सम्बोधन में तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया, उन्हे अलोकतांत्रिक और तानाशाह बताने की कोशिश की गई। जबकि तथ्य यह है कि इंदिरा जी स्वयं आपातकाल के लिए कम से कम तीन बार माफी मांग चुकी थीं। उन्हे इस बात का खूब एहसास था कि संभवतया यह कदम गलत हो गया था।

लेकिन भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक रीढ़, RSS का क्या? 25 जून 1975 से पहले यह RSS इंदिरा गाँधी के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से शामिल था और आपातकाल लगने के बाद से इनकी बोली बदल गई। जहां तमाम अन्य समाजवादी, मार्क्सवादी और अन्य विपक्षी नेता जेलों में बंद रहे वहीं BJP (तत्कालीन जनसंघ) के नेताओं को बहुत छूट मिली।

अटल बिहारी बाजपेयी का ही उदाहरण ले लीजिए। 21 महीने के आपातकाल के दौरान अटल बिहारी बाजपेयी 20 महीने अपने घर पैरोल पर बने रहे, यह कैसे हुआ होगा?


अटल बिहारी बाजपेयी का ही उदाहरण ले लीजिए। 21 महीने के आपातकाल के दौरान अटल बिहारी बाजपेयी 20 महीने अपने घर पैरोल पर बने रहे, यह कैसे हुआ होगा? इसका उत्तर RSS के तब के सरसंघचालक मधुकर देवरस जिन्हे बालासाहेब देवरस कहा जाता था, के उन पत्रों में है जिन्हे वो यरवदा जेल से इंदिरा गाँधी और विनोबा भावे को लिख रहे थे। जहां एक तरफ वो इंदिरा गाँधी को लिखकर यह कह रहे थे कि वो आपातकाल का समर्थन करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ वो विनोबा भावे को पत्र लिखकर यह आग्रह कर रहे थे कि वो इंदिरा गाँधी को समझायें और उनकी जेल से रिहाई सुनिश्चित करवाएं। 

RSS प्रमुख देवरस ने कभी आपातकाल के दौरान उठाए गए कदमों की आलोचना नहीं की और न ही कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था की वापसी का आह्वान किया।


हाँ, यह जरूर हुआ कि सावरकर के कदमों पर चलते हुए RSS के उनके लोगों ने जेल से बाहर आने के लिए बिना शर्त वचन दिया कि वो सरकार की खिलाफत नहीं करेंगे। अटल बिहारी बाजपेयी ने रिहाई के पहले आपातकाल का विरोध न करने का वचन भी दिया था। 

हुआ यह कि इंदिरा गाँधी ने RSS को आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित कर दिया था। इस संगठन को अब तक 4 बार प्रतिबंधित किया जा चुका है। एक बार 1947 में और तीन बार आजादी के बाद। आजादी के बाद पहली बार इस संगठन को महात्मा गाँधी की हत्या के सिलसिले में प्रतिबंधित किया गया था, इसके बाद 1975 में आपातकाल के समय पर और फिर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस में RSS की भूमिका को लेकर इसे प्रतिबंधित किया गया। 

इसकी पूरी संभावना है कि RSS भयमें रहा हो कि कहीं उसके ऊपर लगा प्रतिबंध लंबे अरसे के लिए न बना रह जाए। इसीलिएजब पूरे देश के समाज सेवी आपातकाल का अपने-अपने तरीके से विरोध कर रहे थे तब RSSके मुखिया माफी मांगने में व्यस्त थे। इस बात की पुष्टि तत्कालीन खुफिया ब्यूरो (IB)के तत्कालीन प्रमुख टीवी राजेश्वर ने की है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इंडिया - दक्रूशियल इयर्स’ में RSS नेताओं के आत्मसमर्पणकरने के फैसले का विवरण दिया है। इसके साथ ही इंदिरा गांधी के तत्कालीन सूचनासलाहकार एचवाई शारदा प्रसाद के बेटे रवि विश्वेश्वरैया शारदा प्रसाद ने भी एक लेखमें इन घटनाक्रमों का दस्तावेजीकरण किया है।

27 जून के राष्ट्रपति के अभिभाषण में जिस आपातकाल और उसकी आलोचना की गई है, उस समय के नेतृत्व की आलोचना की गई है उसमें आरएसएस जैसे संगठन और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे नेताओं की भी आलोचना की जानी चाहिए थी। मुझे उम्मीद है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से अवश्य पूछेंगी कि उनके अभिभाषण में आपातकाल से संबंधित ‘सेलेक्टिव’ और अधूरी जानकारी क्यों रखी गई?

राष्ट्रपति के अभिभाषण में सिर्फ आपातकाल की ही जानकारी अधूरी नहीं है, चुनाव, जलवायु परिवर्तन, गरीबी, अर्थव्यवस्था से संबंधित तमाम जानकारियाँ भी सिर्फ ‘सरकारी प्रशंसा’ के उद्देश्य से रखी गई हैं।


राष्ट्रपति ने कहा कि 2024 के चुनावों की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है। केशवानंद (1973) के अनुसार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संविधान के मूल ढांचे में आता है जिस पर कोई भी प्रहार संविधान और लोकतंत्र पर प्रहार माना जाना चाहिए। लेकिन जिस तरह 2024 के आम चुनावों की घोषणा से मात्र 2 दिन पहले दो चुनाव आयुक्तों को नियुक्त किया गया और आयुक्तों को चुनने की प्रक्रिया से भारत के मुख्य न्यायधीश को हटाया गया उससे पूरी दुनिया में भारत की चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाए गए हैं। जिस तरह चुनाव से पहले मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और तमाम अन्य प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल में भर दिया गया था उससे भारत की लोकतान्त्रिक छवि को नुकसान पहुँचा है। 

जिस तरह प्रधानमंत्री द्वारा की गई सांप्रदायिक भाषणबाजी को भारत का चुनाव आयोग चुपचाप बैठा सुनता रहा उससे भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र की छवि को गहरा धक्का लगा है। क्या ये बातें राष्ट्रपति को नहीं मालूम? या जानबूझकर उन्हे ऐसे मुद्दों पर तारीफ करने के लिए कहा गया जिस पर पूरी दुनिया में भारत की आलोचना हो रही है?

राष्ट्रपति से पढ़वाया गया कि सरकार विकास और विरासत दोनो पर गंभीरता से काम कर रही है। भारत की विरासत है यहाँ के लोकतान्त्रिक मूल्य, धर्मनिरपेक्षता, यहाँ के जंगल, पर्यावरण आदि। भारत को अब ‘निर्वाचित निरंकुश’ देश की संज्ञा दे दी गई है, प्रेस स्वतंत्रता लगातार घटती जा रही है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है, ताजा मामला गुजरात का है जहां सलमान नाम के एक 23 वर्षीय युवक को बहुत ही मामूली कहासुनी पर 12-15 लोगों की भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। विकास के नाम पर धुआंधार तरीके से जंगल काटने का तो दौर ही चल रहा है। एक आँकड़े के अनुसार, 2001 से 2023 के बीच भारत ने लगभग 23 लाख हेक्टेयर वृक्षावरण काट दिया गया। इसमें से 95% हिस्सा 2013-2023 के बीच काटा गया, मतलब नरेंद्र मोदी सरकार के दौर में।

यह कैसा विकास है? यह कैसी विरासत की देखभाल है? अभी भी यह दौर खत्म नहीं हुआ। छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य को बुरी तरह काटा जा रहा है।


भारत की पहली आदिवासी, महिला राष्ट्रपति को अपनी सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी से पूछना चाहिए कि वो ऐसा क्यों होने दे रहे हैं? राष्ट्रपति ने जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर भी सरकार की प्रशंसा की है। जबकि सच्चाई यह है कि जंगल काटे जाने से पर्यावरण में कार्बन डाई आक्साइड बढ़ रही है, जिससे गर्मी और हीटवेव भी बढ़ती जा रही है। क्लाइमेNट सेंट्रल की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 62 करोड़ लोग सिर्फ जून 2024 में ही हीट वेव से प्रभावित हुए हैं।  

राष्ट्रपति से कहलवाया गया कि सरकार IIT और IIM को मजबूत कर रही है साथ ही उनकी संख्या भी बढ़ा रही है। जबकि असलियत इससे परे है।

मोदी सरकार अगस्त 2023 में IIM (संशोधन) कानून लेकर आई है। इस कानून से अब IIM की स्वायत्तता नकारात्मक रूप से प्रभावित होगी। इस कानून के अनुसार भारत के राष्ट्रपति अब भारत के सभी 21 IIM में 'विजिटर' के रूप में कार्य करेंगे। यह नई भूमिका राष्ट्रपति को महत्वपूर्ण अधिकार भी प्रदान करती है, जिसमें आईआईएम के कामकाज का ऑडिट करने, उनके बोर्ड ऑफ गवर्नर्स से निदेशकों को नियुक्त करने या हटाने, साथ ही बोर्ड के अध्यक्षों को नामित करने की क्षमता शामिल है। वर्ष 2016 में मोदी सरकार द्वारा आईआईटी(बीटेक) की फीस औसत 50 हजार से बढ़ाकर 3 लाख रुपये कर दी थी। 2022-23 में आईआईटी ने अपने एमटेक प्रोग्राम की फीस 115% बढ़ा दी थी, जिसे भारी प्रदर्शन के बाद थोड़ा कम किया गया।

वर्तमान सरकार का यह अजीब रवैया सिर्फ आईआईटी और आईआईएम तक ही सीमित नहीं है। JNU जैसे संस्थान की फीस भी बढ़ा दी गई है। छात्र पूछने लगे हैं कि भारत की सबसे कठिन परीक्षा पास करने के बाद भी उनसे इतनी अधिक फीस क्यों वसूली जा रही है? मेरा सवाल है कि भारत के प्रीमियम संस्थानों की स्वायत्तता छीनकर और फीस बढ़ाकर सरकार इन संस्थानों को कैसे मजबूत करने वाली है?

आयुष्मान योजना को लेकर भी राष्ट्रपति का इस्तेमाल किया गया जबकि आयुष्मान योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार जगजाहिर है। CAG की रिपोर्ट संभवतया राष्ट्रपति को पढ़ने ही नहीं दी गई, जबकि CAG की रिपोर्ट संसद में रखने का काम राष्ट्रपति का ही है। अगर उन्हे पढ़ने दिया गया होता तो वो यह जानती कि CAG आयुष्मान योजना में भारी फर्जीवाड़े को सामने लाया है। मध्यप्रदेश जहां आयुष्मान योजना के सबसे ज्यादा लाभार्थी हैं वहाँ अस्पतालों की अधिकतम बेड सीमा से ज्यादा मरीजों को भर्ती दिखाया गया, कई जगह मृत लोगों के इलाज का मामला भी सामने आया है। आरटीआई से मिले आंकड़ों के बाद एक शिकायतकर्ता ने 500-700 करोड़ रुपये के घोटाले की शिकायत की है। जो योजना, आम लोगों को सहायता पहुँचाने के लिए थी, उसमें हो रहे भ्रष्टाचार को सरकार रोकने में नाकाम रही। 

अपनी नाकाम आयुष्मान योजना का राष्ट्रपति के माध्यम से महिमामंडन करवाना निंदनीय है।


गरीबी और खाद्य सुरक्षा को लेकर भी भ्रम की स्थिति पैदा की गई है। एक तरफ विश्व बैंक और नीति आयोग के आँकड़े घटती गरीबी की ओर ध्यान दिला रहे हैं तो दूसरी तरफ अर्थशास्त्री इन आंकड़ों और गरीबी नापने के तौर-तरीकों पर ही प्रश्न उठा रहे है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट का कहना है कि पिछले 9 सालों में बहुआयामी गरीबी (MPI) में 18.1% की कमी हुई है। इस पर विश्व विख्यात अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार ने संदेह करते हुए कहा कि रिपोर्ट में निश्चित ही "कुछ खामियां हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा संकेतक, जिनका MPI में सबसे अधिक योगदान है, महामारी वर्ष 2020-21 में सबसे अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए।" ऐसे में MPI कम कैसे हो सकती है?

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा ने पूछा है कि जब 2014 से अब तक के ‘उपभोग व्यय’ के आँकड़े ही नहीं है, कोई सर्वे ही नहीं करवाया गया है तो कैसे पता कि गरीबी कितनी घट गई है? भुखमरी सूचकांक में भारत की दयनीय स्थिति(125 देशों में 111वां स्थान, 2023) यह बताने के लिए पर्याप्त है कि खाद्य सुरक्षा कानून-2013 होने के बावजूद यह सरकार भारतीयों का पेट भरने में कितनी अधिक अक्षम है। 

राष्ट्रपति से पेपर लीक कानून का भी जिक्र करवाया गया और दावा किया गया कि सरकार कठोर कार्यवाही करेगी जबकि NEET-UG (2024) मामले में छात्रों को न्याय दिलाने की बात आई तो सरकार का कानून भी फेल हो गया और पूरी की पूरी सरकार भी। एक सवाल यह भी है कि जब कानून उपलब्ध हैं, तब भी सरकार इनके अनुपालन में इतनी कमजोर क्यों है? ऐसे अनगिनत सवाल हैं जो सरकार के सामने होने चाहिए, जिनके जवाब सरकार को देना चाहिए। लेकिन सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के माध्यम से अपनी सभी कमियों को एक वैध आधार प्रदान करने की नाकाम कोशिश की है।  

(वंदिता मिश्रा दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं)