13 जनवरी को जब महात्मा गांधी अपना आख़िरी उपवास शुरू करने वाले थे तब लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि-
“मौत मेरे लिए एक श्रेष्ठ मुक्ति होगी बजाय इसके कि मैं असहाय होकर भारत, हिन्दू धर्म, सिख धर्म और इसलाम को ख़त्म होते देखूँ”।
अपनी मौत के आमंत्रण का साहस रखने वाले 78 वर्षीय गांधी की, एक कायर, नाथूराम गोडसे, ने कुछ दिन बाद 30 जनवरी को हत्या कर दी। अगले दिन अमेरिकी अख़बार द न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा “एक हिन्दू ने गांधी की हत्या कर दी, भारत हिल गया, पूरी दुनिया में शोक की लहर”।
आज महात्मा गांधी को गए 74 वर्ष हो चुके हैं लेकिन जिन्होंने गांधी की हत्या की साज़िश रची थी उनका भय ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। 1948 में बिरला हाउस के बाहर गांधी के ख़िलाफ़ “उसे मरने दो” के नारे लगाने वाले आजतक डरे हुए हैं। क्योंकि गांधी हवा की तरह पूरी दुनिया में हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ महात्मा गांधी के सम्मान में किसी न किसी सड़क या संस्थान का नाम न हो।
गांधी के अपने देश में जिस तरह उन्हें गालियाँ दी जा रही हैं और अपमानित किया जा रहा है वह अशोभनीय है। प्रश्न यह है कि अपनी मौत के इतने सालों बाद भी गांधी ख़तरा क्यों हैं? और यह ख़तरा किन लोगों को महसूस हो रहा है?
अपनी जीवन यात्रा के दौरान मोहनदास करमचंद गांधी, महात्मा गांधी बन गए। गांधी ने ‘व्यक्ति से विचार’ बनने की अपनी यात्रा पूरी की। पर हाल में हुई तथाकथित धर्म संसद और उसमें नव साधुओं द्वारा उनको दी गई गालियाँ उस ‘विचार’ से झुंझलाहट का प्रतीक हैं जिसका तार्किक प्रतिवाद कट्टरवादी हिन्दू धर्म संगठनों में दशकों पहले विलुप्त हो चुका है।
आज़ादी के पहले कांग्रेस भारत का प्रतिनिधित्व करती थी। कांग्रेस को संबोधित करना भारत को संबोधित करना था। ऐसे ही एक सम्बोधन के दौरान महात्मा गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से कहा,
“स्वयं को करोड़ों हिंदुस्तानियों में से एक महसूस करने के लिए प्रत्येक कांग्रेसी को चाहिए कि वो अपने धर्म और विश्वास से अलग किसी अन्य धर्म के व्यक्ति के साथ अच्छी मित्रता विकसित करे”।
सभी धर्मों के नागरिकों की आपसी मित्रता एक विचारधारा और उसके राजनैतिक संगठन, बीजेपी, को रास नहीं आ सकती। क्योंकि धर्मों के बीच पटती खाई बीजेपी के राजनैतिक अस्तित्व को समाप्त कर देगी। इसलिए गांधी ख़तरा हैं।
अल्पसंख्यकों के शोषण को क्रेडिट कार्ड की तरह इस्तेमाल करने वाली सरकारें किसी भी ऐसे विचार को स्वीकार नहीं करेंगी जिनसे अल्पसंख्यकों में आत्मविश्वास पैदा हो। जबकि गांधी का मानना है कि “पुलिस और मिलिट्री का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए किया जाता है। लेकिन कोई भी पुलिस और मिलिट्री दबाव उन दृढ़निश्चयी लोगों को नहीं झुका सकता जो परम पीड़ा को झेलने के लिए सड़कों पर आ गए हैं”।
महात्मा गांधी भारत के अल्पसंख्यकों को मिलने वाला वो प्रोत्साहन है जिसे भारत का वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व कभी बर्दाश्त नहीं करना चाहेगा। जिस पुलिस को ‘औजार’ बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है गांधी उसकी निरर्थकता साबित करते हैं। इसीलिए गांधी ख़तरा हैं।
हाल की धर्म संसद ने भारत में ‘नव-साधुओं’ को देखा। ऐसे साधु जो खुलेआम हत्या और नरसंहार के लिए प्रोत्साहित करते हैं। शंकर, रामानुजाचार्य, कबीर और तुलसी की संत परंपरा के भारत में भगवा रंग ज्ञान, शांति, आश्रय और सुरक्षा का प्रतीक था लेकिन आज यह हत्या और गालीगलौज का प्रतीक बन गया है। जबकि गांधी स्थापित करते हैं कि “सत्य और शुद्ध की अपनी संकल्पना को लेकर हमें किसी की हत्या करने का अधिकार नहीं”।
गांधी धर्म की उस अंतर्निहित घोषणा से परिचित कराते हैं जिसके बाद धर्म संसद में बेचैनी स्वाभाविक है। गांधी के अनुसार “धर्म की घोषणा है कि यदि किसी में बुराई का निवास है तो वह न सिर्फ अशुद्ध है बल्कि परमात्मा के सामने खड़े रहने के काबिल भी नहीं है” (1927)। इसलिए गांधी ख़तरा हैं।
धर्मसंसद में बोलने वाला हर वक्ता (नव-साधु) मुसलमानों को सबक सिखाने की बात करता है। अपने धर्म के आदर्शों को भूल कर अन्य धर्मों में खोट खोजने की प्रवृत्ति को गांधी का संदेश बिल्कुल साफ़ है कि “धर्मों की आपसी तुलना करना अनावश्यक है। व्यक्ति को चाहिए कि पहले वो अपने धर्म की परिपक्व समझ विकसित करे इसके बाद अन्य धर्मों का ध्यान करे”। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का संकल्प करने वाले साधु गांधी की सहिष्णुता से झुंझलाहट में हैं। गांधी स्वयं को “हिंदुओं में हिन्दू” कहने के बावजूद यह मानने में वक़्त नहीं लगाते कि हिन्दू धर्म ने ही उनको वो शिक्षा दी है जिससे वो इस्लाम, सिखधर्म और ईसाइयत का सम्मान करते हैं। एक धर्म और उसके वर्चस्व के ख़िलाफ़ उनकी लेखनी सहज शब्दों में कहती है “व्यक्तिगत रूप से मुझे ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया कभी एक धर्म नहीं धारण करेगी और उसे न ही ऐसा करने की ज़रूरत है” (1913) इसलिए गांधी ख़तरा हैं।
धर्म संसद कोई विलगित और निरपेक्ष परिघटना नहीं है। निश्चित रूप से इसके राजनैतिक तार हैं। मेरा मानना है, जो कि अतिशयोक्ति नहीं है, कि तथाकथित धर्म संसद का आयोजन और शीर्ष नेतृत्व की चुप्पी में गुप्त तारों का नेटवर्क अपनी भूमिका निभा रहा है। नव-साधुओं द्वारा आयोजित तथाकथित धर्मसंसद वास्तव में भारतीय जनता पार्टी का राजनैतिक विस्तार ही है। ऐसा मानने के पीछे कई कारण हैं।
पहला,
नरसंहार के प्रोत्साहन के बावजूद सत्तारूढ़ दल बीजेपी के किसी शीर्ष नेता द्वारा किसी नकारात्मक प्रतिक्रिया का न आना।
दूसरा,
खेल, विज्ञान, मनोरंजन से लेकर हर छोटी बात पर टीवी और ट्विटर पर आ जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, नरसंहार जैसी चेतावनी के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। इससे तथाकथित धर्मसंसद के नव-साधुओं को प्रोत्साहन मिला और उन्होंने घोषणा कर दी कि आने वाले समय में पूरे देश में ऐसे आयोजन किए जाएँगे।
तीसरा,
तथाकथित धर्मसंसद में जिन लोगों ने घृणा-भाषण किए उन्हें किसी सरकार या प्रशासन का भय नहीं और वो अपने भाषणों पर अभी भी कायम हैं।
चौथा,
ये नव-साधु खुलेआम मुख्यमंत्री अजय बिष्ट और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का घोर समर्थन करते हैं।
पाँचवाँ,
घृणा-भाषण वाले ये साधु विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) के प्रमुख पदों पर आसीन हैं। इसमें कोई छिपी बात नहीं कि विहिप की स्थापना 1964 में तत्कालीन संघ प्रमुख गोलवरकर ने एस. एस. आप्टे और स्वामी चिन्मयानंद के सहयोग से की थी। आरएसएस/संघ और बीजेपी का आपस में क्या रिश्ता है यह भी कोई रहस्यमयी तथ्य नहीं है।
मैं यह नहीं कहूँगी कि प्रधानमंत्री और संघ की देखरेख में महात्मा गांधी को गालियाँ दी जा रही हैं और नर संहार की चेतावनी दी जा रही है। लेकिन यह बात भी स्वयं प्रधानमंत्री और आरएसएस ही बता सकते हैं कि ऐसे घृणा भाषणों को रोकने के लिए उन्होंने अपने अनुषंगी संगठनों को क्या दिशानिर्देश दिए?
आज केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है। और उत्तर प्रदेश में भी ऐसी ही स्थिति योगी आदित्यनाथ की है। आने वाले समय में कुछ राज्यों में चुनाव हैं। केंद्र और यूपी की सरकार विरोध प्रदर्शनों को दबाने और हतोत्साहित करने के अपने आदर्श और इतिहास पर कायम है। लेकिन गांधी का मज़बूत विश्वास था कि
“सविनय अवज्ञा शक्ति का गोदाम है। सोचिए कि यदि सभी लोग विधायिका के क़ानूनों के अनुसार चलने के लिए तैयार न हों और नाफ़रमानी के परिणाम झेलने को तैयार हों! तो वो सम्पूर्ण विधायी और कार्यकारी मशीनरी को निस्तब्ध कर देंगे”।
कृषि क़ानूनों के मामले में गांधी के आदर्शों ने काम कर दिखाया। सविनय अवज्ञा का लाभ यह हुआ कि सरकार को मनमानी से लाए गए क़ानूनों को वापस लेना पड़ा। गांधी इसीलिए ख़तरा हैं।
भारत का संविधान बनने से काफ़ी पहले गांधी इस बात तक पहुँच चुके थे कि जनता ही शक्ति का स्रोत है। उनका मानना था कि “हम बहुत समय से इस तरह से सोचने के अभ्यस्त हो चुके हैं कि शक्ति का प्रमुख स्रोत विधायिकाएं हैं… मैं इसे भीषण जड़ता समझता हूँ... जब कि सच यह है कि शक्ति का स्रोत जनता में है...जनता से मुक्त संसदों का न कोई अस्तित्व है न कोई शक्ति”। ऐसी सोच को जन्म देने वाला व्यक्ति उस सत्ता के लिए तो चुनौती होगा ही जो “राजसी-लोकतंत्र” पर आमादा है।
वर्तमान समय में जितने प्रहार महात्मा गांधी पर हो रहे हैं उससे तो यही लगता है कि मृत महात्मा गांधी और उनके जीवंत आदर्श वर्तमान नेतृत्व के लिए समस्या हैं।
धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता के नायाब संकलन महात्मा गांधी को सत्याग्रह के बीज भगवद्गीता में मिले। उन्होंने लिखा “भगवद्गीता का निश्चित रूप से यही इरादा है कि हमें फल की इच्छा किए बिना कर्म करते रहना चाहिए। मैंने सत्याग्रह का सिद्धांत गीता से ही निकाला है।…1989 में पहली बार गीता के संपर्क में आने के बाद से ही मुझे सत्याग्रह के संकेत मिल गए थे”।
यह तथाकथित धर्मसंसद भारत की एकता और अखंडता के लिए ख़तरा है। भारत के राजनैतिक प्रमुख, प्रधानमंत्री, को संविधान की शपथ याद करनी चाहिए और याद रहना चाहिए कि देश की सुरक्षा और शांति के प्रति उनका दायित्व उनके पार्टी और संगठन के दायित्व से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। महात्मा गांधी शपथ की परिभाषा करते हुए कहते हैं
“व्रत/शपथ का अर्थ है बेहिचक दृढ़निश्चय, यह प्रलोभनों के ख़िलाफ़ हमारी मदद करता है। ऐसे दृढ़ निश्चय के कोई मायने नहीं जो परेशानियों के सामने झुक जाए”।
तथाकथित धर्मसंसद में जो हुआ उससे हिंदू धर्म को कष्ट तो बहुत पहुँचा है, समूची मानवता को नुक़सान भी हुआ है। महात्मा गांधी इस बात के लिए हमेशा सतर्क थे कि कहीं धर्म, समाज का बुरा ना कर डाले। उन्होंने कहा, “इस दुनिया में धर्म से बुरा कुछ नहीं। फिर भी मैं धर्म को नहीं छोड़ सकता और इसलिए हिंदू धर्म को भी नहीं। मेरा जीवन मेरे लिए बोझ बन जाएगा अगर हिंदू धर्म ने मुझे फेल कर दिया तो।”
उन्हें हिंदू धर्म और उसके आदर्शों पर पूरा भरोसा था। यह भरोसा अन्य धर्मों को दिए जाने वाले सम्मान से अलग नहीं था। उन्होंने हिंदू धर्म में ही अन्य धर्मों के लिए सम्मान के बीज खोज निकाले। ऐसा सबकुछ किया जिससे दोनो धर्मों की एकता बनी रहे। 1938 में उन्होंने जिन्ना को लिखे एक पत्र में कहा कि “मेरे ऊपर भरोसा कीजिए, जिस क्षण मैं कुछ ऐसा कर सकता हूँ जिससे दोनों समुदायों (हिन्दू-मुसलिम) को क़रीब लाया जा सके, दुनिया में ऐसा कुछ नहीं जो मुझे ऐसा करने से रोक सके”।
गांधी की हिंदू धर्म के प्रति अगाध आस्था और अन्य धर्मों के प्रति सम्मान एवं हिंदू मुसलिम एकता के प्रति उनका उच्चतम आग्रह उन्हें दक्षिणपंथी कट्टरवादी हिंदू संगठनों के ख़िलाफ़ अभेद्य बनाता है। उन पर हमला हिंदू धर्म पर हमला हो सकता है और उन पर हमला ना करना धर्मनिरपेक्षता का समर्थन होगा, दोनों ही स्थितियों में संघ और बीजेपी असहज हैं और इसीलिए गांधी ख़तरा हैं।
गांधी नाम की संस्था को बदनाम कर उन्हें नेहरू की तरह राजनैतिक अछूत बनाने की साज़िश रची जा रही है।
“नागरिक प्रतिरोध जीवित रहेगा, यह जीवन का शाश्वत सिद्धांत है… सरकारी शस्त्रागारों में ऐसा कोई हथियार नहीं जो इस शाश्वतता को जीत पाए या इसे ख़त्म कर पाए।” -महात्मा गांधी