लोकतंत्र ‘लोगों’ के लिए है लेकिन आज का भारत जो दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतंत्र के रूप में ख्याति प्राप्त है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ कहने में काफ़ी गर्व महसूस करते हैं वहाँ इन ‘लोगों’ की फ़िक्र उन्हें तो बिल्कुल नहीं है, असल में उनके दल के किसी मंत्री को नहीं है। 15 दिन ही पहले ही इलाहाबाद (प्रयागराज) में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी थी, जिसमें ‘सरकार का कुप्रबंधन और प्रशासनिक अनदेखी’ की वजह से हुई भगदड़ में अनगिनत (छिपे हुए आँकड़े) लोगों की जान चली गई थी। जिन लोगों के अपने इस दुर्घटना में चल बसे उनकी मौत के लिए स्वयंभू ‘मठाधीश संत’ धीरेंद्र शास्त्री जैसे लोग ‘मोक्ष’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके अमानवीयता करने में लगे थे। भारत इस दुर्घटना को भूल नहीं पाया था, असली आँकड़ों और अपने लोगों की लाशों को पाने और पहचानने में जूझ ही रहा था कि 15 फ़रवरी की रात नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में फिर से भगदड़ हो गई।
इसमें रात के आधे घंटे के भीतर भीतर ही कम से कम 18 भारतीय नागरिकों के मारे जाने की ख़बर आने लगी, इसमें भी ज़्यादातर महिलाएँ हैं, जैसे हर भगदड़ में ज़्यादातर महिलायें होती हैं। रात में ही सूचनाएं आ रही थीं कि प्रयागराज, महाकुंभ में जाने के लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ बढ़ती जा रही हैं लेकिन इसके लिए कोई प्रबंधन नहीं किया गया, कोई सतर्कता नहीं बरती गई थी, कोई तैयारी नहीं थी। लगभग ‘जीरो भीड़ प्रबंधन’ के बीच ‘ट्रेनों के आने में लगातार विलंब’ होने और निरन्तर ‘प्लेटफार्म बदलने की घोषणाओं’ के बीच भगदड़ मच ही गई। इसी तरह कुप्रबंधन होता है, इसे ही कुप्रबंधन कहते हैं।
देश में तमाम जगहों पर ‘डबल इंजन’ सरकारें हैं। इन डबल इंजन सरकारों में नरेंद्र मोदी जो कि केंद्रीय सत्ता पर बैठे हैं, कॉमन हैं। अब तो दिल्ली की ‘पूरी’ व्यवस्था भी बीजेपी के हाथों में है। पुलिस, प्रशासन और तमाम अन्य तरह की सुरक्षा एजेंसियाँ सबकुछ बीजेपी के हाथ में है। इसके बावजूद भीड़ को प्रबंधित करने और कुंभ के इस सांस्कृतिक रूप से पवित्र आयोजन को सुचारू रूप से चलाने में तमाम बीजेपी सरकारें असफल क्यों है? कुप्रंधन पर कुप्रंधन हो रहा है, दुर्घटना पर दुर्घटना हो रही हैं और पीएम मोदी के पास अभिव्यक्त करने के लिए सिर्फ़ ‘दुख’ है।
तमाम PR एजेंसियों द्वारा प्रचारित विज्ञापित, ‘सर्वशक्तिमान’ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिनके बारे में यह प्रचार किया गया कि वे ‘संगठन का व्यक्ति’ हैं, यह भी कहकर उनकी छवि को बढ़ाया चढ़ाया गया कि वे एक कुशल प्रशासक हैं, उनके बारे में बार बार यह दोहराया गया कि वो महत्वपूर्ण आयोजनों के मैनेजर हैं (इवेंट मैनेजर), वे ही नरेंद्र मोदी, आज जब देश का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन महाकुंभ आया तो प्रबंधित करने में ‘महाविफल’ साबित हुए। आखिर क्या बात है? इवेंट मैनेजर प्रधानमंत्री ये आयोजन क्यों नहीं कर पा रहे हैं। जब पूरे देश के संसाधन और सहयोग उनके पास हैं, इसके बावजूद यदि इतने भारतीय इन बार बार होने वाली भगदड़ में मारे जा रहे हैं तब यह बेहद निराशाजनक बात हो जाती है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की दुर्घटना के बाद कुंभ के आयोजन को अब लोग ‘अव्यवस्थाओं का महाकुंभ’ कह रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या हर दिन कुंभ में स्नान करने वालों की सिर्फ़ संख्याएं गिनाने से काम चलेगा? कोई 40 करोड़ कह रहा है तो 50 करोड़, किसी का अनुमान है कि यह संख्या 60 करोड़ भी हो सकती है। लोग कुंभ में आयें इसका तो खूब प्रचार-प्रसार किया गया लेकिन क्या डबल इंजन सरकार ने यह व्यवस्था की, जिससे हर कोई श्रद्धालु अपने घर अपने परिवार के साथ सुरक्षित वापस लौट सके? ऐसे स्नानों और आयोजन का क्या फ़ायदा जो लोगों के जीवन का आख़िरी स्नान या आख़िरी आयोजन बनकर रह जाए!
कुंभ में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कुंभ स्थल पर गए श्रद्धालुओं का स्नान और सुरक्षित वहाँ से लौट कर घर पर पहुंचने में मदद करना, इतना ध्यान तो सरकार दे ही सकती थी!
वीआईपी आवागमन
फ़िलहाल, सरकार को इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य क़िस्म के सांस्कृतिक आयोजनों से बचना चाहिए था, कम से कम वीआईपी लोगों के आवागमन से बचना चाहिए था और आम लोगों को तरजीह दी जानी चाहिए थी। अगर भीड़ ज़्यादा हो रही थी, जोकि सच भी है, तो प्राथमिकता और सुविधाएँ आमजन को मिलनी चाहिए थी। इसके बाद यदि समय बचता तो वीआईपी लोगों को अनुमति दी जानी चाहिए थी। यदि धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के सबसे बड़े आयोजन में भी धन-दौलत, बाहुबल और राजनैतिक क़द को प्राथमिकता मिल रही है, सुविधाएँ मिल रही हैं तो यह समझना कठिन नहीं है कि धर्म का भी व्यवसायीकरण किया जा चुका है। वैसे तो किसी की जान ख़तरे में नहीं पहुँचनी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि आख़िर क्यों आम लोगों की जान ही ख़तरे में है किसी उद्योगपति के परिवार और राजनेता की जान ख़तरे में क्यों नहीं है?
महान दार्शनिक अरस्तू को लगता था कि “लोकतंत्र में गरीबों के पास अमीरों की तुलना में अधिक शक्ति होगी, क्योंकि उनकी संख्या अधिक है और बहुमत की इच्छा सर्वोच्च है”। लेकिन आज कोई भी यह बात दावे के साथ नहीं कह सकता। वास्तविकता तो यह है कि लोकतंत्र में गरीबों और वंचितों को संसाधनों का सबसे कम हिस्सा देकर उनका सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है। हर नुक़सान में गरीब और वंचित ही आगे रहता है और हर फ़ायदे में अमीर और वीआईपी।
महाकुंभ में इसके तमाम उदाहरण मिल जाएंगे। 29 जनवरी को मौनी अमावस्या की भगदड़ के बाद ऐसा लगा कि सरकार थोड़ा संवेदनशील रवैया अपनाएगी और वीआईपी आवागमन को थोड़ा कम कर देगी, सूत्र कह रहे थे कि पीएम मोदी भी अपना कार्यक्रम रद्द कर देंगे। लेकिन इसका बिल्कुल उल्टा हुआ। यह आवागमन कम नहीं हुआ और पीएम मोदी भी गंगा स्नान करने प्रयागराज पहुँच गए। पीएम मोदी ने स्नान के लिए दिल्ली चुनावों की तारीख़ चुनी। मुझे व्यक्तिगत रूप से इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मोदी को चुनावी फ़ायदा होता है या नहीं लेकिन आम लोगों को नुक़सान नहीं होना चाहिए। प्रधानमंत्री के स्नान के बाद छह राज्यों के मुख्यमंत्री, 40 से अधिक केंद्रीय मंत्री, तमाम राज्यपाल, सांसद, नौकरशाह और अन्य वीआईपी स्नान कर चुके हैं।
कोई भी सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है कि एक वीआईपी को ‘सुरक्षित’ स्नान करवाने के लिए प्रशासन कितने आम लोगों को रोककर रखता होगा, उनकी तेज रफ़्तार धीमी की जाती होगी जिससे वीआईपी स्नान हो सके।
मेरी नज़र में तो यह बात जनता के प्रतिनिधि को समझनी चाहिए कि उसे पहली प्राथमिकता उन आम लोगों को देनी है जो हजारों किमी से यात्रा करके आ रहे हैं, जिनके पास बच्चे, बुजुर्ग और औरते हैं। यह देखकर सच में बहुत दुख होता है कि एक जनप्रतिनिधि कई गाड़ियाँ लेकर कुंभ नहाने आता है और उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में डालता है। कितने शर्म की बात कि जहाँ लोग कई कई किमी पैदल चलने को मजबूर हैं वहाँ बीजेपी के एमएलसी, श्याम नारायण सिंह उर्फ विनीत सिंह, कई लग्ज़री गाड़ियों के क़ाफ़िले और हेलीकॉप्टर के साथ कुंभ क्षेत्र में पहुंचकर स्नान करते हैं।
यह सब जनता को दिखाने के लिए है या चिढ़ाने के लिए मुझे नहीं पता लेकिन लोकतंत्र में यह दिखावा अमानवीय है ख़ासकर तब जब लाखों-करोड़ों भारतीय अपनी जान जोखिम में डालकर इस आयोजन में शामिल हो रहे हैं। कितना अमानवीय है वह दृश्य भी जिसमें देश के सबसे धनी अंबानी परिवार के लोगों को नहाने के लिए साफ़-सुथरा बड़ा क्षेत्र प्रदान किया जाता है, कई भगवाधारी उनके परिवार को नहला रहे हैं, मंत्र जाप चल रहा है। अपने पैसे की काबिलियत की वजह से धनिकों को धर्म में, धर्म क्षेत्र में विशेष स्थान प्राप्त होता है। भले ही भारत और भारतीय इस सबके आदी हो चुके हों लेकिन यह अमानवीय है। धन की काबिलियत ही धर्म की काबिलियत बन जाए तो धर्म का महत्व कम हो जाना स्वाभाविक है।
सत्तासीन नेता एक तरफ़ हेट स्पीच देकर एक धर्म-निरपेक्ष संविधान के रास्ते एक धर्म के प्रतिनिधि बन जाते हैं, लोगों को धर्म के नाम पर उत्तेजित करते हैं, परंपराओं के नाम पर एकत्रित होने और संगठित होने का आह्वान करते हैं, भीड़ को धर्मांध बनाते हैं और दूसरी तरफ़ पैसे वालों और वीआईपी के लिए समर्पित हो जाते हैं। लोकतंत्र का आशय एक सचेत जनसमूह होता है लेकिन धर्म की आड़ लेकर उसकी चेतना को कमजोर कर दिया जाता है जिससे मौतें उसे ‘विधि का विधान’ लगे और कुप्रबंधन सरकार की ‘मजबूरी’! मौनी अमावस्या के बाद जो प्रतिक्रिया जनता की तरफ़ से होनी चाहिए थी, जो सवाल जनता के मन में उठने चाहिए थे, जो सरकार मुख्यधारा की मीडिया को पूछने चाहिए थे अगर वो सामने आ पाते; तो यह सरकार इतना तन कर चल नहीं पाती और कल रात ‘नई दिल्ली’ रेलवे स्टेशन की घटना नहीं घटती। लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
अब नई दिल्ली में भगदड़ के बाद वहाँ अस्पतालों में लाइन लग चुकी है। अस्पतालों में मीडिया के जाने पर प्रतिबंध है, सरकार मौत के आंकड़ों के बारे में आगे कुछ नहीं कह रही है। सरकार को पता होना चाहिए कि मौतों का आँकड़ा छिपाने से न दर्द कम होगा, न ही मौतों की संख्या। मौतों को प्रबंधित करने से अच्छा था कि महाकुंभ के आयोजन के कुप्रबंधन से बचा जाता। लोकतंत्र का मतलब है जिम्मेदार सरकार न कि आत्ममुग्ध सरकार!