शेयर बाजार में चल रही मौजूदा दौर की गिरावट में बाजार के कुछ बड़े और कुशल खिलाड़ियों को कितने का नुक़सान हुआ है, यह हिसाब अब आने लगा है। कई का नुक़सान लगभग एक तिहाई तक का है पर कुल मिलाकर बाजार इतना नहीं गिरा है। लेकिन ऐसे शीर्ष वाले लोगों का नुक़सान अगर कुछ सौ करोड़ का है तो हमारे शेयर बाजारों के सारे निवेशकों का नुक़सान क़रीब दश लाख करोड़ रुपए से अधिक का हो चुका है और उसकी चर्चा कम है। यह पैसा आम लोगों का तो है ही, उनके बैंक जमा, प्राविडन्ट फंड, साझा कोशों और बीमा कंपनियों को चुकाए उनके प्रीमियम की रक़म का है। और आम तौर पर यह धन शेयर बाजार के विशेषज्ञों के साथ ही सरकार के इशारों पर बाजार में लगता है, उसे चढ़ाता और गिराता है।
इस बार का भूचाल अमेरिकी शासन के बदलाव से जुड़ा है अर्थात डोनाल्ड ट्रम्प के फिर से राष्ट्रपति बनने के बाद लिए उन फैसलों और आने वाले फैसलों की आशंका से इसका रिश्ता है जिसे वे अमेरिका को फिर से महान बनाने के अपने वायदे के हिसाब से ले रहे हैं या लेने वाले हैं। इस बीच हमारे रुपए को गोता लगाने से बचाने के लिए (फिर भी उसने अच्छी खासी गिरावट दर्ज की है) रिजर्व बैंक ने कितना दंड-प्राणायाम किया है वह अलग हिसाब है पर उसने हमारी गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ मूल्य के डॉलर बाजार में उतारे हैं। और मोदी राज की शुरुआत में पच्चीस हजार के रेट वाले सोना ने आज प्रति दस ग्राम नब्बे हजार का स्तर छूकर कितनों को रुलाया है, यह हिसाब भी आसानी से लगाया जा सकता है।
कोई उम्मीद कर सकता है कि जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका यात्रा की और ट्रम्प से मिले (या उनके पहले विदेश मंत्री जयशंकर ने अमेरिका में अड्डा डाला था) तो वे जरूर महाबली अमेरिका के इस राष्ट्रपति से अपना दुख-दर्द कहेंगे और अभी तक जारी अच्छे राजनयिक संबंधों के आधार पर अपनी परेशानियों का समाधान चाहेंगे, अमेरिका-भारत संबंधों में इसके चलते खटास न आए, इसका इंतजाम करेंगे। ट्रम्प दोबारा चुनाव जीतकर कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास और अमर्यादित व्यवहार पर उतरे लगते हैं, शपथ ग्रहण करने के साथ ही उन्होंने दो सौ से ज्यादा बड़े फैसलों पर दस्तखत करके दुनिया को ‘दहला’ दिया था और अभी भी उनका उत्साह जारी है।
इस उत्साह को दुस्साहस बताने वाले कम नहीं हैं क्योंकि इससे अमेरिका का लाभ/घाटा क्या होगा, यह हिसाब नुक़सान की तरफ़ जाता लगता है। कहा जाता है कि ट्रम्प इस बात से ज़्यादा खुश न थे कि उनका मित्र माने जाने वाले मोदी ने बाइडन प्रशासन से भी अच्छा संबंध रखा और चुनाव हारने के कारण उनकी तरफ पीठ फेर लिया था। इसलिए मोदी और ट्रम्प की दोस्ती के पक्षधर इस बात को लेकर खुश हैं कि इस यात्रा में प्रधानमात्री पुरानी गर्मजोशी हासिल करने में सफल रहे।
बातचीत, व्यवहार, राजनयिक शिष्टाचार से लेकर इस यात्रा में हुए समझौतों के आधार पर ऐसा नहीं लगता क्योंकि सारा हिसाब अमेरिका के पक्ष में झुका हुआ है। और साझा प्रेस कांफ्रेंस में ट्रम्प ने जिस तरह से मोदी जी के प्रति व्यवहार दिखाया वह सामान्य न था, बल्कि कई बार तो यह खिल्ली उड़ाने के क़रीब तक पहुँच गया।
और मोदी जी ट्रम्प प्रशासन के क़रीबी उद्यमी एलन मस्क से मिलने और उनके भारत से व्यावसायिक रिश्ते बनाने को लेकर जितने बेचैन रहे हैं उसमें उनका व्यवहार भी सामान्य शिष्टाचार वाला न था।
एलन मस्क प्रधानमंत्री से भेंट में अपनी पत्नी, बच्चों के साथ बच्चों की देखरेख करने वाली सहायिका को भी लेकर पहुंचे थे। और सामान्य निष्कर्ष यही रहा कि इस यात्रा से भारत अमेरिकी दोस्ती में कोई कड़वाहट न आई या वैसा कुछ था तो वह ख़त्म हुआ लेकिन कुल मिलाकर अमेरिका लाभ की स्थिति में रहा। उसने मनमाने व्यावसायिक करार किए और भारत ने ज़्यादा ना-नुकर न करते हुए उन्हें स्वीकार किया। इसमें गैर ज़रूरी सैन्य सामग्री की खरीद का करार भी शामिल है और तेल समेत कुछ ऐसे सौदों का प्रसंग उठाना भी है जिनमें समझौता करना भारत को महंगा पड़ेगा। रूस या इराकी-कुवैती तेल हमें बहुत सस्ता और सुविधाजनक पड़ता है।
जिस सवाल की चर्चा ट्रम्प-मोदी साझा प्रेस कांफ्रेंस में ज्यादा थी और जिस पर ट्रम्प ने भी मजा लिया वह हमारे उद्यमी गौतम अडानी के ख़िलाफ़ अमेरिका में चलाने वाले मामलों से जुड़ा था और जिस पर प्रधानमंत्री बहुत ही दार्शनिक किस्म का जबाब देकर बचते नजर आए। असल में इस दौर की वार्ता और समझौतों का मुख्य विषय यही लगता है और प्रधानमंत्री का वह जबाब मोदी सरकार के बचाव की मुद्रा को बताता है। बातचीत और समझौतों से पहले ख़बर आ गई कि अडानी के ख़िलाफ़ चल रहे मुक़दमों में राष्ट्रपति दखल देकर हमारे व्यवसायी को राहत देंगे। अडानी पर ग़लत सूचनाएं देकर अमेरिकी निवेशकों से धोखा करने और आंध्र प्रदेश सरकार के अधिकारियों को घूस देने के मामले दर्ज हुए थे। उससे एक हाहाकार पहले मच चुका था। और जब विदेश मंत्री जयशंकर ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह में भागीदारी करने गए थे तब यह हुआ कि मामला स्थानीय अदालत से उठकर फेडरल कोर्ट में आ गया था। माना जाता है कि स्थानीय अदालतें ज्यादा स्वायत्त हैं और फेडरल कोर्ट और कानून में राष्ट्रपति की दखल संभव है।
पर इस अमेरिकी यात्रा और इस तरह के फ़ैसले करने कराने की तैयारी उसके पहले शुरू हो गई थी और अभी भी चल रही है। अभी भी इस्पात और अलुमिनियम पर सीमा शुल्क पच्चीस फीसदी करने की माथापच्ची चल रही है क्योंकि ट्रम्प ऐसा चाहते हैं। ट्रम्प विश्व व्यापार संगठन के ज़रिए बनी वैश्विक व्यापार नियमों से खासे खफा हैं जबकि वाशिंगटन कंसनसेस से शुरुआत करके गैट और विश्व व्यापार संगठन बनवाने और उसकी मुश्किल शर्तें मनवाने में अमेरिका ने ही केन्द्रीय भूमिका निभाई थी। इस संगठन का सबसे बड़ा चरित्र व्यापार संबंधों को द्विपक्षीय की जगह बहुपक्षीय बनाना था और इन शर्तों को मनवाने के लिए सख्त निगरानी और दंड-पुरस्कार की व्यवस्था बनानी थी। आज ट्रम्प इस सब पर पानी फेरते हुए संरक्षणवाद और द्विपक्षीय व्यापार पर जोर दे रहे हैं।
दुनिया इसी डर से कांप रही है क्योंकि एक अनुमान के अनुसार सब कुछ ट्रम्प के अनुसार चला तो अमेरिका की ही विश्व व्यापार में हिस्सेदारी 15 से घटकर 12 फीसदी रह जाएगी। दूसरी ओर चीन आर्थिक और व्यावसायिक मामलों में अमेरिका समेत सारे विकसित देशों के मंसूबों पर पानी फेर रहा है। अमेरिका समेत सभी देश अपने व्यवसायियों के हितों को बढ़ाते हैं, उनको संरक्षण देते हैं, पर सिर्फ एक समूह को अदालती कार्रवाई से बचाने के लिए भारत जिस तरह इस यात्रा में बेचैन दिखा है वैसा और कहीं नहीं दिखता।