इंसान संस्थाओं का निर्माण करता है और उनका संचालन करता है लेकिन इंसानों के उलट यदि संस्थाएँ अपनी उम्र बढ़ने के साथ अधिक गतिशील और युवा नहीं हो पातीं तो, वो अपना अस्तित्व खो बैठती हैं। लोकतंत्र को सिर्फ चुनाव और जनप्रतिनिधियों तक समेटना घातक हो सकता है। कोई भी व्यक्ति या कोई भी पार्टी किसी लोकतंत्र का चेहरा नहीं हो सकती। लोकतंत्र के चेहरे के लिए या उसका ‘पोस्टर मैन’ बनने के लिए सबसे मुफीद आकार और पहचान हैं उस लोकतंत्र की उत्तरोत्तर युवा और गतिशील होती संस्थाएं। संस्थाएं आम जनमानस में भरोसा पैदा करती हैं और लोकतंत्र लगातार मजबूत और स्थायी होने लगता है। लेकिन यदि कभी, किसी खास ‘कालचक्र’ में एक व्यक्ति को ‘मनचाहे’ तरीके से संस्थाओं के स्वरूप निर्धारण करने की छूट दे दी जाती है तो राष्ट्र के लिहाज से वह समय ‘अमृत काल’ की बजाय विषकाल की ओर अग्रसर हो जाता है। भारत संभवतया इसी ओर अग्रसर होता दिखाई दे रहा है।
इतालवी उपन्यासकार और पत्रकार अल्बर्ट मोराविया कहते थे कि “तानाशाही एकतरफा सड़क है जबकि लोकतंत्र दोतरफा यातायात का दावा करता है।” भारत में ED, CBI और आयकर विभाग के माध्यम से जो कुछ भी करने की कोशिश की जा रही है वह निश्चित रूप से एक तरफा सड़क ही है। इन संस्थाओं के स्वरूप में सरकार द्वारा जो इंजीनियरिंग की जा रही है उससे ये संस्थाएं विपक्षी नेताओं, दलों, विचारों को ही लगातार टारगेट करने में लगी हैं। PMLA और UAPA के माध्यम से एक-एक करके हर ऐसे दल के महत्वपूर्ण नेताओं और समाजसेवियों को टारगेट किया जा रहा है जोकि वर्तमान केंद्र सरकार के कामकाज से सहमत नहीं है।
द वायर, में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद से ED द्वारा दर्ज मामलों में चार गुना उछाल आया है। लेकिन यह उछाल ‘कानून के समक्ष समानता’ के मौलिक सिद्धांत से संचालित नहीं है क्योंकि इनमें से 95% मामले विपक्षी नेताओं के खिलाफ हैं। ED में कुशलता अधिक है या सरकार के प्रति ‘आस्था’, इस बात का उत्तर इस तथ्य से सामने आता है कि ED ने 2005 से मार्च 2023 तक 5,906 मामले दर्ज किए और इनमें से मात्र 1,142 मामलों में आरोपपत्र दाखिल कर सकी। ED ने जितने मामलों पर आरोपपत्र दाखिल किए उनमें से केवल 25 मामलों का ही निपटारा किया है, जो कुल मामलों का मात्र 0.42% है। साफ़ है कि ED की कार्यकुशलता पर प्रश्न उठाना औचित्यपूर्ण है। अभी इस बात का तो आँकलन ही नहीं किया गया है कि जिन विपक्ष के नेताओं को ED ने टारगेट किया है उससे BJP को कितना चुनावी लाभ हुआ और विपक्ष समेत सम्पूर्ण लोकतंत्र को कितना नुकसान!
ED की इस दुर्भावनापूर्ण कार्यवाही के खिलाफ काँग्रेस के नेतृत्व में कई राजनैतिक दलों ने मार्च 2023 में ‘संविधान के अभिरक्षक’ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील ए. एम. सिंघवी ने न्यायालय को बताया कि उनकी याचिका देश के 42% राजनैतिक विस्तार का प्रतिनिधित्व कर रही है लिहाजा यह बहुत अहम है। इस याचिका में कांग्रेस समेत डीएमके, राजद, बीआरएस, तृणमूल कांग्रेस, आप, एनसीपी, शिवसेना (यूबीटी), जेएमएम, जेडी(यू), सीपीआई जैसी पार्टियां शामिल थीं। डॉ. सिंघवी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश से साफ़ कहा है कि वो किसी भी मौजूदा जांच को प्रभावित करने की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि “95% मामले विपक्षी नेताओं के खिलाफ हैं”। इसलिए हम न्यायालय से “गिरफ्तारी से पहले और गिरफ्तारी के बाद के दिशानिर्देश मांग रहे हैं''। न्यायालय ने आगे अप्रैल 2023 की तारीख दे दी। आगे संविधान के अभिरक्षक ने क्या कदम उठाए वो मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को दिए जा रहे सम्मनों और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ़्तारी के बाद लगभग स्पष्ट है।
क्या ‘संविधान के अभिरक्षक’ को यह बात नहीं दिख रही है कि एक कानून की मदद से संविधान को छलने की कोशिश की जा रही है। किसी भी विपक्षी नेता को एक ऐसी संस्था, ED, द्वारा सम्मन भेज देना जिसकी खुद की कार्यक्षमता मात्र 0.42% है और इसके बाद उस नेता को गिरफ्तार कर लेना, इसके बाद सुप्रीम कोर्ट से राहत मांगने पर हाईकोर्ट भेज देना और अंततः हाईकोर्ट द्वारा भी राहत न देना। और यही तरीका सत्ता द्वारा बार-बार इस्तेमाल किया जाना और एक-एक करके भारत के राजनैतिक स्पेस को छोटा करते जाना। क्या इस प्रक्रिया से लोकतंत्र मजबूत होगा?
विपक्ष किसी दुश्मन देश की धरती पर बैठा कोई नागरिक नहीं जिसको कभी भी गिरफ्तार करके उसके अधिकारों को ख़त्म कर दिया जाए।
लेकिन सरकार द्वारा यही किया जा रहा है और न्यायालय मूक दर्शक बनकर बैठे हैं। क्षेत्रीय दलों में जहां मूलतः पार्टी एक ही नेता के इर्द गिर्द घूमती है, वहाँ उस नेता को किसी भी अपुष्ट आरोप में गिरफ्तार करके अंतहीन समय के लिए जेल में ठूंस देना ताकि वह दल कमजोर पड़ जाए और केन्द्रीय सत्तारूढ़ दल से संबंधित राज्य इकाई इसका फायदा उठाकर खुद को स्थापित कर ले! ये कौन सा ‘विधि का शासन’ है? संविधान के सबसे अहम अनुच्छेद-21 अर्थात ‘जीवन का अधिकार’ का क्या? जो अनुच्छेद किसी भी हालत में ख़त्म नहीं किया जा सकता है उसका लगातार उल्लंघन किया जा रहा है। किसी भी विपक्षी नेता को बिना चार्जशीट कब तक जेल में बिठा कर रख सकते हैं? क्या अंतहीन और अनिश्चित सालों तक चलने वाले ट्रायल में अंतहीन और अनिश्चितकाल तक ‘जीवन के अधिकार’ का उल्लंघन संवैधानिक है? मुझे नहीं पता! बस यह जानने में मेरी जिज्ञासा है कि क्या संसद द्वारा पारित कोई भी कानून इतना सशक्त हो सकता है या उसे इतनी ताकत दी जा सकती है कि वो भारत के संविधान के मूल ढांचे को चुनौती देने लगे? या, क्या उसे इतना ताकतवर बनने दिया जा सकता है कि सरकार उसके माध्यम से लोकतंत्र को ही दांव पर लगा दे और कानून के नाम पर संविधान का अभिरक्षक चुपचाप बैठा रहे?
मार्च 2023 में जब डॉ. सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखना शुरू किया तो कहा था कि वो न्यायालय का ध्यान "विपक्षी राजनीतिक नेताओं और अन्य नागरिकों के खिलाफ जबरदस्ती आपराधिक प्रक्रियाओं के उपयोग में खतरनाक वृद्धि" की ओर आकर्षित करना चाहते हैं। सरकार और तमाम सरकारी संस्थाओं का रवैया ख़तरनाक स्वरूप धारण कर चुका है। विपक्षी राजनैतिक दलों को सरकारी एजेंसियों पर से भरोसा उठता जा रहा है। हाल ही में राज्यसभा सांसद मनोज कुमार झा ने एक एजेंसी पर तंज कसते हुए कहा, ''यह ईडी कार्यालय नहीं है, यह बीजेपी कार्यालय है जहां तेजस्वी यादव आये हैं जब चुनाव आता है तो विपक्षी दलों के नेताओं को यहाँ बुलाया जाता है”। यह हो सकता है मात्र एक तंज हो लेकिन यह बहुत खतरनाक होता जा रहा है। एक राज्य का मुख्यमंत्री एक वैधानिक संस्था के सम्मनों का जवाब नहीं दे रहा है, न ही उसके समक्ष पेश हो रहा है। ऐसी ही और आवाजें देश के अन्य कोनों से आने लगी हैं। संघीय ढांचा कमजोर पड़ रहा है क्योंकि सरकार की सत्ता के प्रति आसक्ति और ‘संविधान के अभिरक्षक’ की खामोशी संस्थाओं के प्रति लोगों के भरोसे को कुतर रही हैं।
असम के भाजपा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा और महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार के खिलाफ वित्तीय धोखाधड़ी के आरोप, बीजेपी में शामिल होते ही ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के दौरान ‘व्यापमं’ जैसे पुराने मामलों को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। कर्नाटक के बीजेपी से पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के शासनकाल और बी.एस. बोम्मई व उनके कई मंत्रियों पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे लेकिन कार्यवाही के नाम पर कुछ नहीं हुआ। कोई जेल नहीं गया। यही हाल बीजेपी में शामिल हुए पश्चिम बंगाल के अधिकारी बंधुओं का भी है। 95% विपक्षी नेताओं पर चल रहे मामले यह साफ़ संदेश दे रहे हैं कि बीजेपी में शामिल हो जाने पर कोई भी क़ानून उन पर लागू नहीं होगा। या फिर यह कहा जा सकता है कि यह उस तरह से तो कभी लागू नहीं होगा जिस तरह विपक्षी नेताओं पर लागू किया जा रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि बारी-बारी से सभी राजनैतिक रूप से मज़बूत लोग अपनी-अपनी पार्टियाँ छोड़कर बीजेपी में शामिल हो जाएँ।
क्या यह बात न्यायालय नहीं समझ रहा है कि इससे एक पार्टी के राज, एक पार्टी की सत्ता के विचार को पोषित किया जा रहा है। आज केजरीवाल, हेमंत सोरेन और लालू यादव भी यदि बीजेपी को समर्थन कर दें तो उनके मामले खत्म हो जाएंगे या फिर ठंडे बस्ते में डाल दिए जाएंगे। क्या यह ‘वृहद स्तर पर दल-बदल’ के लिए प्रोत्साहित करने वाला विचार नहीं है? एक ही दल का शासन लोकतंत्र को कब्रिस्तान बना देगा जिसमें फूल चढ़ाने के लिए भी ‘अनुमति’ लेनी होगी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को सतर्क हो जाना चाहिए। कानून के समक्ष समता और विधि का शासन लोकतंत्र का मूल है। ‘भ्रष्टाचार’ के नाम पर इन सिद्धांतों का गला नहीं काटा जा सकता। विपक्ष के लिए, कानून का मतलब और सत्ता के लिए, कानून का मतलब अलग हो चला है। यदि यह लोकतंत्र के समापन की घोषणा नहीं है तो कम से कम समापन के लिए फीता तो कट ही चुका है।
वर्तमान में संस्थाओं द्वारा कानून का पालन इस तरह से किया जा रहा है; जिसमें सत्ता पक्ष में कोई भी दोषी, अपराधी और भ्रष्टाचारी नहीं माना जाना है। इस माहौल में किसी भी क़िस्म की राजनैतिक स्वतंत्रता और न्याय का रह पाना असंभव है।
संस्थाओं के इस पतन के बीच यदि न्यायालय खामोश बना रहता है तो इसका अर्थ है कि उसने भी पतन के लिए अपनी ‘स्वीकृति’ दे दी है।
सर्वोच्च न्यायालय को डॉ. आंबेडकर का 9 दिसंबर 1948 का भाषण याद करना चाहिए। वो कहते हैं कि “अगर मुझसे इस संविधान में किसी विशेष अनुच्छेद को सबसे महत्वपूर्ण बताने के लिए कहा जाए - एक ऐसा अनुच्छेद जिसके बिना यह संविधान अमान्य होगा - तो मैं इस अनुच्छेद-32 के अलावा किसी अन्य अनुच्छेद का उल्लेख नहीं कर सकता। यह संविधान की आत्मा और उसका हृदय है।” यह अनुच्छेद भारत के हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि यदि सरकार मूल अधिकारों का हनन करती है तो नागरिक सीधे, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में शरण ले सकता है, उससे न्याय की उम्मीद रख सकता है। लेकिन आजकल सर्वोच्च न्यायालय ‘मीडिया की स्वतंत्रता’, ‘निष्पक्ष चुनाव’ और ‘जीवन का अधिकार’ जैसे मूल अधिकारों के मामलों में सरकारी पक्ष से बाहर निकलकर देखने में असहाय प्रतीत हो रहा है। संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत को वरीयता दी जानी चाहिए लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
आंबेडकर 25 नवंबर 1949 को अपने समापन भाषण में कहते हैं कि
“कोई संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, उसका ख़राब होना निश्चित है यदि जिन लोगों को इसे लागू करने के लिए बुलाया जाता है, वे बुरे लोग हैं तो। कोई संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, वह तब अच्छा साबित हो सकता है यदि उसे लागू करने के लिए जिन लोगों को बुलाया जाए वे अच्छे लोग हों। किसी संविधान का कार्य करना पूरी तरह से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता है।”
आंबेडकर सही थे। लेकिन किन लोगों को संविधान लागू करने के लिए बुलाया जाए यह चुनाव से तय होता है। चुनाव के लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी है ‘नेतृत्व’ और निष्पक्ष चुनाव! इसके लिए एक निष्पक्ष चुनाव आयोग चाहिए। यदि चुनाव आयोग या उसे चुनने की प्रक्रिया निष्पक्ष न हो तो सर्वोच्च न्यायालय को ‘मौलिक ढांचे’ के अपने ही सिद्धांत की रक्षा के लिए सामने आना चाहिए। लेकिन यदि सर्वोच्च न्यायालय ही सामने आकर ‘निष्पक्षता’ को भविष्य के लिए टाल दे तो क्या किया जा सकता है? विपक्षी दलों को जेलों के अंदर ठूँसकर, वैधानिक और संवैधानिक संस्थाओं के पतन को सुनिश्चित करके और चुनाव आयोग को कठपुतली बनाकर लोकतंत्र का स्वप्न ही देखा जा सकता है। इससे बचने के लिए ‘संविधान के अभिरक्षक’ को कानून की धाराओं और सरकारी वकील की भाषा में न बंधकर संवैधानिक अनुच्छेदों के उद्देश्यों को पढ़कर सामने आना चाहिए वर्ना लोकतंत्र बचे या न बचे नागरिकों का भरोसा न्याय के शासन से जरूर उठ जाएगा और तब भारत एक स्थायी देश तक बने रह पाने में असमर्थ हो जाएगा। इस गिरावट को अब रोकना चाहिए!