क्या यूपी में योगी-मोदी का जादू चलेगा? 

08:15 am Jun 06, 2021 | रविकान्त - सत्य हिन्दी

पिछले 4 साल से एक-दूसरे को शह देते आ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के 'युद्ध का मैदान' अब यूपी विधानसभा चुनाव बनने जा रहा है। दोनों नेता अति महत्वाकांक्षी हैं। दोनों का स्वभाव और प्रकृति लगभग एक जैसी है। लेकिन योगी आदित्यनाथ, नरेंद्र मोदी के राजनीतिक कौशल में पासंग भर नहीं हैं। मोदी का करिश्मा यह है कि उन्होंने उत्तर भारत के केंद्र वाली हिंदुत्व की राजनीति की पहली प्रयोगशाला गुजरात को बना दिया। आज गुजरात 'हिंदू राष्ट्र' का मॉडल बन गया है। लेकिन हिन्दुत्व का मॉडल यूपी में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है। 

यूपी को मॉडल बनाने के लिए 2017 के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद आरएसएस ने नरेंद्र मोदी की मर्जी के विपरीत योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनवाया था। माना जाता है कि मोदी और आरएसएस के बीच भी अंदरूनी संघर्ष चलता है। मोदी का वन मैन शो वाला तानाशाही रवैया संघ को नहीं भाता। संघ अपने एजेंडे को शीघ्र लागू करना चाहता है। उसका लक्ष्य अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है। लेकिन मोदी के लिए सत्ता सर्वोपरि है। 

मोदी में उपराष्ट्रवादी भावना भी है। मोदी सिर्फ अमित शाह पर भरोसा करते हैं। वे अमित शाह को आगे बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन सूत्रों की मानें तो आरएसएस मोदी के बाद अमित शाह को क़तई आगे नहीं बढ़ाना चाहता। आरएसएस की पसंद योगी आदित्यनाथ हैं। हालाँकि आरएसएस बीजेपी में फ़ैसले आपसी समझ और सहमति से होते हैं।

पांच बार के सांसद योगी आदित्यनाथ पहले कभी मंत्री भी नहीं रहे थे। उन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था। बावजूद इसके उन्हें देश के सबसे बड़े सूबे का सीएम बनाया गया। ग़ौरतलब है कि मोदी भक्त मीडिया योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनते ही उनका मुरीद हो गया। योगी यूपी के अन्य हिस्सों और देश के लिए अपरिचित थे। इसलिए लोगों को उनके बारे में अधिक से अधिक जानने की उत्सुकता थी। मीडिया ने अपने दर्शकों की उत्सुकता को ख़ूब बेचा। योगी के बाल कौन काटता है? योगी सोते कहां हैं? योगी कैसे पूजा करते हैं? ऐसी तमाम ग़ैर-लोकतांत्रिक ज़रूरतों पर अच्छी खासी टीआरपी मिल रही थी। रात दिन टेलीविजन पर योगी पुराण चल रहा था। मोदी तब दृश्य से ग़ायब थे। 

भगवा वस्त्रधारी महंत होने के कारण योगी को स्वाभाविक तौर पर हिंदुत्व का ब्रांड माना गया। मीडिया से लेकर खासकर यूपी के लोगों की बतकही में योगी को मोदी का उत्तराधिकारी यानी प्रधानमंत्री पद का दावेदार कहा जाने लगा। निश्चित तौर पर यह चर्चा मोदी के लिए चुनौतीपूर्ण है।

 

नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की बहुत सी ख़ूबियों में से एक विशेषता यह भी है कि वह धीरे-धीरे सरकार और संगठन दोनों पर हावी होते गए। मोदी ने अपनी ब्रांडिंग और इमेज के ज़रिए ख़ुद को इतना मज़बूत बना लिया कि बीजेपी और संघ में उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता।

लेकिन योगी आदित्यनाथ उनके लिए चुनौती ही नहीं हैं वे उत्तराधिकारी बनने की कोशिश कर रहे हैं। यही वजह है कि दोनों के बीच शह और मात का खेल चल रहा है। योगी आदित्यनाथ नरेंद्र मोदी की ताक़त और उनके कूटनीतिक इतिहास को जानते हैं। इसलिए वह सीधे टकराने से बचते हैं। मोदी के सामने योगी अक्सर आरएसएस को अपनी ढाल बनाते हैं।

मोदी और योगी के बीच की कशमकश 2017 के चुनाव के बाद ही शुरू हो गई थी। ग़ौरतलब है कि बीजेपी ने यह चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ा था। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद सुधरती अर्थव्यवस्था और दुनिया के बड़े देशों के साथ मोदी की व्यक्तिगत दिलचस्पी के कारण जनता और विशेषज्ञों को भी देश की तरक्की की उम्मीद बनी थी। हालाँकि, 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के फ़ैसले ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था और ग़रीबों पर ज़्यादा प्रभाव डाला था, लेकिन इसे भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए ज़रूरी क़दम बताकर प्रचारित किया गया।

आलोचक भी मानते हैं कि मोदी बहुत अच्छे वक्ता हैं। उनकी मार्केटिंग इतनी ज़बरदस्त है कि वे गंजे को भी कंघी बेच सकते हैं! चुनाव के इसी दौर में एक अमेरिकी शीर्ष कूटनीतिज्ञ ने मोदी से मिलने के बाद कहा था कि 'मोदी परफॉर्मर हैं, रिफॉर्मर नहीं।' यह दीगर बात है कि आज मोदी ना परफॉर्मर हैं, ना रिफॉर्मर हैं बल्कि प्रोपोगेटर हैं। 

लेकिन 2017 के चुनाव में राजधानी लखनऊ से क़रीब 400 किलोमीटर दूर गोरखपुर के नाथपंथी मठ में अरमानों को पंख लग रहे थे। प्रणव राय, रुचिर शर्मा जैसे भारतीय पत्रकारों के साथ जब कुछ विदेशी पत्रकार मठ में बाबाजी का साक्षात्कार करने के लिए पहुँचे तो 'बाबा के साथियों को यह कहते हुए सुना गया कि अगर अंग्रेजी बोलने वाले पत्रकार उनके विवादास्पद मुखिया का इंटरव्यू लेने आए हैं तो इसका अर्थ है कि उनके मुख्यमंत्री बनने की संभावना बढ़ रही है।' रुचिर शर्मा लिखते हैं, ‘हालाँकि उस समय भारत में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि अतीत और वर्तमान में आदित्यनाथ के भड़काऊ बयानों को देखते हुए उन्हें उनके शहर से बाहर भी कोई सत्ता सौंपी जा सकती है।’

मोदी ने देवरिया की एक चुनावी सभा में नोटबंदी के आलोचक रहे हार्वर्ड के प्रोफेसर अमर्त्य सेन को एक प्रकार से जवाब देते हुए कहा कि 'मैं हार्डवर्क में विश्वास करता हूँ, हार्वर्ड में नहीं।' उनके हार्ड वर्क से बीजेपी ने यूपी में जीत का इतिहास रच दिया।

'अबकी बार, तीन सौ पार' नारे के साथ चुनाव मैदान में आई बीजेपी को 403 विधानसभा सीटों में से कुल मिलाकर 325 सीटें हासिल हुईं। मोदी अपने पसंदीदा गाजीपुर के सांसद मनोज सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन आरएसएस के दबाव में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी हुई।

माना जाता है कि नरेन्द्र मोदी अपने किसी विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी को नहीं बख्शते। उनके लिए योगी को रोकना ज़रूरी है। इसलिए मोदी ने अपने खासमखास आईएएस रहे अरविंद शर्मा को योगी पर नज़र रखने के लिए लखनऊ भेजा। उन्हें एमएलसी बनाया गया। चर्चा होने लगी कि उन्हें जल्द ही डिप्टी सीएम बनाया जाएगा। यह भी चर्चा चली कि अगर योगी को हटाया जाता है तो अरविन्द शर्मा को सीएम बनाया जा सकता है। लेकिन यह सब पॉलिटिकल गॉशिप साबित हुई। योगी ने अरविंद शर्मा को 3 दिन तक मिलने का समय नहीं दिया। चार महीने बाद भी अरविन्द शर्मा के पास कोई पोर्ट फोलियो नहीं है। तब क्या मोदी का यह दाँव भी खाली चला गया?

पिछले दो सप्ताह में यूपी बीजेपी की राजनीति का घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा है। पहले मंत्रिमंडल के फेरबदल और फिर विस्तार की चर्चा हुई। आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र इस तरह के बदलाव की बात चल रही है। यूपी पंचायत चुनाव में बीजेपी के पिछड़ने के कारण संघ और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व चिंतित है। इधर योगी भी हठयोगी बन गए हैं! दरअसल,  विधानसभा चुनाव के लिए दिल्ली में हुई संघ बीजेपी नेताओं की बैठक में नहीं बुलाए जाने से योगी नाराज़ हैं। इसलिए उन्होंने लखनऊ आए संघ के डिप्टी दत्तात्रेय होसबोले को भी दो दिन तक इंतज़ार कराया। योगी पहले सोनभद्र गए और फिर वहाँ से मिर्जापुर और गोरखपुर चले गए।

इन परिस्थितियों में योगी की कुर्सी तो बच गई है। लेकिन सवाल यह है कि मोदी और योगी के टवराव तथा लोगों की बढ़ती नाराज़गी के बीच बीजेपी-संघ चुनाव मैदान में क्योंकर जाएँगे? 

दरअसल, योगी की कार्यशैली और कोरोना से निपटने में नाकामी से बीजेपी और संघ को यूपी हारने का डर सता रहा है। जबकि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व और संघ यूपी को क़तई नहीं खोना चाहते। माना जाता है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है। हिंदुत्व के हार्टलैंड में हार से 2024 में बीजेपी का क़िला ढह सकता है। 2024 आरएसएस का शताब्दी वर्ष भी है। 2022 और 2024 में पराजय का मतलब है, अश्वमेध का रुक जाना। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या योगी के काम और मोदी के चेहरे के दम पर बीजेपी यूपी को फतह कर पाएगी? 

दरअसल, योगी एक मठाधीश की तरह यूपी को चला रहे हैं। विधायक और मंत्री भी उनसे खफा हैं। डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या और मोहनलालगंज से सांसद कौशल किशोर योगी पर अपमानित करने के आरोप लगा चुके हैं। योगी के रवैये से दलित और पिछड़े समाज में नाराज़गी है। योगी ने प्रशासन में ज़्यादातर ठाकुर जाति के अधिकारियों को नियुक्त किया है। इसलिए उन पर ठाकुरवादी होने के आरोप लगते हैं। बीजेपी का सबसे मज़बूत 10 फ़ीसदी ब्राह्मण तबक़ा भी योगी की कार्यशैली से नाराज़ है। 

दूसरा, बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी तथा कोरोना आपदा की बदइंतज़ामी से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घट रही है। अच्छे दिन, दो करोड़ रोज़गार और विकास के वादे पहले ही जुमला साबित हो चुके हैं। नोटबंदी, जीएसटी और अब 22 हजार करोड़ की विस्टा योजना से भी लोगों में नाराज़गी है। इन हालातों में बीजेपी-संघ के पास केवल हिंदुत्व और सांप्रदायिकता मुद्दे हैं। चुनाव से पहले संभव है कि पाकिस्तान और आतंकवाद की भी एंट्री हो जाए! अपने कारणों से यूपी में इन मुद्दों के कामयाब होने की गुंज़ाइश भी है। लेकिन असल सवाल यह है कि गंगा किनारे दफनाई गईं लाशों और ग़रीबी-बदहाली के इन हालातों में क्या धर्म का नशा लोगों पर तारी होगा? आख़िर धर्म का नशा बड़ा है या रोटी का?