आंदोलनकर्ता किसानों, लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के विरुद्ध गंभीर और हमलावर रुख अपनाने वाली यूपी पुलिस अपराधियों और माफियाओं के सामने बेहद कमज़ोर साबित हो रही है। बीते मंगलवार को देर शाम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कासगंज ज़िले में हुई एक पुलिसकर्मी की नृशंस हत्या और एक दारोग़ा को ख़ून से तरबतर कर दिए जाने की घटना ने लोगों को गत वर्ष कानपुर के बिकरू कांड की याद ताज़ा कर दी। इन पुलिस वालों ने क्षेत्र के शराब माफ़िया के यहाँ कुर्की पूर्व का नोटिस चस्पा करने की 'जुर्रत' की थी।
प्राप्त जानकारी के अनुसार शाम 7 बजे के आसपास सिढ़पुरा थाने को नगला धीमर गाँव के लोगों ने सूचना दी कि गाँव के बाहर कोई व्यक्ति निर्वस्त्र और लहूलुहान हालत में पड़ा है। सूचना मिलने पर स्थानीय पुलिस जब वहाँ पहुँची तो उनके होश उड़ गए। निर्वस्त्र और लहूलुहान हालत में पड़ा व्यक्ति उनके अपने थाने के सब इन्स्पेक्टर अशोक पाल थे। वहाँ पहुँचे कुछ पुलिसकर्मियों में से कुछ को यह पता था कि अशोक पाल थाने के एक अन्य कांस्टेबल देवेंद्र सिंह के साथ उक्त गाँव में कुर्की का नोटिस तामील करवाने गए थे। पुलिसकर्मियों का दल अपने सहकर्मी को गाड़ी में लाद कर तत्काल ज़िला अस्पताल रवाना हो गया।
जानकारी मिलने पर ज़िले की पुलिस में हड़कंप मच गया। पुलिस अधीक्षक एमके सोनकर ने कई थानों की पुलिस को कांस्टेबल की तलाश में निकट के जंगल में रवाना किया। कोई एक घंटे की खोजबीन के बाद सिपाही देवेंद्र सिंह बरामद हुआ। क्षत-विक्षत उसके शरीर पर भी कपड़े ग़ायब थे। अस्पताल पहुँचते-पहुँचते उपचार के दौरान देवेंद्र सिंह की मृत्यु हो गयी।
आईजी पियूष मोरडिया ने स्थानीय मीडिया को बताया कि दोनों पुलिसकर्मी ज़हरीली शराब के मामले में कुर्की पूर्व का नोटिस तामील करवाने के इरादे से गाँव में पहुँचे थे जबकि शराब माफिया ने दोनों को बंधक बना लिया और बाद में उन्हें क्रूर तरीक़े से पीट-पीट कर ज़ख़्मी कर डाला।
पुलिस ने मौक़े से शराब की भट्टी और दूसरा सामान बरामद किया है।
बताया गया है कि शराब माफिया मोती ने काली नदी की तलहटी में शराब बनाने का संयंत्र स्थापित कर रखा था। दोनों पुलिसकर्मी जब वहाँ पहुँचे तो उन्होंने इनको घेर लिया और सब इंस्पेक्टर की पिस्तौल और मोटर साइकल छीन ली। इसके बाद उन्हें बेरहमी से पीटा। फ़िलहाल सभी बड़े पुलिस अधिकारियों सहित बड़ा पुलिस दल गाँव में मौजूद है। संबंधित अपराधियों की खोजबीन जारी है। बताया गया है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पूरे घटनाक्रम को स्वयं मॉनिटर कर रहे हैं। ज़िलाधिकारी कासगंज चंद्रप्रकाश सिंह के अनुसार सीएम ने संबंधित अपराधियों को रासुका में निरुद्ध किये जाने के आदेश दिए हैं।
लोग अभी कानपुर के बिकरू कांड को भूले नहीं हैं जहाँ सरगना विकास दुबे और उसके गैंग ने 8 पुलिसकर्मियों की मुठभेड़ में नृशंश हत्या कर दी थी। बाद में पुलिस ने मुठभेड़ में विकास और उसके कई साथियों को मार गिराने का दावा किया। हालाँकि पुलिस की ये कथित मुठभेड़ गहरे विवाद का विषय बानी और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा जिसके निर्देशन में एक उच्चाधिकार प्राप्त जाँच कमेटी पूरे मामले की अभी भी जाँच कर रही है।
सन 2017 के विधानसभा चुनाव से पूर्व बीजेपी ने क़ानून व्यवस्था के सुधार को अपने चुनाव अभियान के केंद्र में रखा था। कुर्सी संभालने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आह्वान पर बड़े पैमाने पर पुलिस मुठभेड़ों की वारदातें सामने आईं।
इसे लेकर खासा हंगामा मचा। पीयूसीएल सहित कई संगठनों ने पुलिस एनकाउंटर के नाम पर 'निरपराध' व्यक्तियों की हत्या किये जाने की जाँच की माँग को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। योगी आदित्यनाथ के नारे 'अपराधियों को ठोंक दो' की भी हर जगह भर्त्सना हुई थी। इन सब के बावजूद प्रदेश में अपराधों की तादाद कम नहीं हुई। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामले में यूपी देश का अव्वल प्रदेश तो है ही, अन्य अपराधों में भी उसकी साख कोई बहुत अच्छी नहीं है।
महिला विरुद्ध होने वाले अपराधों में अपराधियों की हिमायत में खड़े होने के लिए भी यूपी पुलिस सारे देश में कुख्यात है। हाथरस के दलित नवयुवती बलात्कार काण्ड में अपराधियों की वकालत में सिर्फ़ ज़िला पुलिस और प्रशासन ही नहीं, प्रदेश के एडिशनल डीजी (क़ानून व्यवस्था) भी जिस तरह से बीच बचाव करते पाए गए, उस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कस कर फटकार लगायी थी। किस मज़बूरी में प्रदेश सरकार को समूचा हाथरस प्रकरण सीबीआई को सौंपना पड़ा, इसे लोग अभी भूले नहीं हैं।
एक तरफ़ बढ़ते हुए अपराधों के मामलों में योगी जी की पुलिस देश में शीर्ष स्तर पर गिनी जाती है, तो दूसरी तरफ़ लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई में शामिल सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और भाँति-भाँति के दमन के हथकंडों को अपनाने में भी उसका कोई जवाब नहीं। 'सीएए', महामारी एक्ट और किसान आन्दोलन की गतिविधियाँ यूँ तो पूरे देश में होती रही हैं लेकिन जिस क्रूर तरीक़े से यूपी पुलिस उनके उत्पीड़न में जुटी रही उसके लिए मुख्यमंत्री भले ही अपने पुलिसकर्मियों की पीठ ठोंक कर शाबाशी देते रहें, लेकिन देश भर में उसकी बेतरह बदनामी हुई है। अदालतें भी प्रतिक्रिया देने से ख़ुद को अछूता नहीं रख सकीं। 'समान नागरिकता' (सीएए) के लिए किये गए आंदोलन में शामिल अपने ही रिटायर्ड आईजी को 'गुंडा एक्ट' में निरुद्ध करने और उनकी तसवीरों के पोस्टर-बैनर को चौराहों पर लगाने में वह भले ही निर्लज्ज बनी रही लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट ज़रूर शर्मिंदगी के सागर में डूबता नज़र आया। 'कोर्ट' ने तत्काल ऐसे बैनर-पोस्टर उतारने के सख़्त आदेश दिए।
जिस समाज में पुलिस का आचरण लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति घृणास्पद नहीं होगा उसी समाज में वह क्रूर अपराधियों से निबट पाने में आम जनता को अपना हमदर्द और भागीदार बना सकेगी और उसी समाज में अपराधों के ग्राफ़ पर अंकुश लगा सकेगी।
सच्चे या झूठे एनकाउंटर इनका निदान नहीं। हो सकता है कि जल्द ही कासगंज के अभियुक्त भी 'एनकाउंटरों' की भेंट चढ़ जाएँ लेकिन उससे समस्या का हल नहीं होने वाला। दुर्भाग्य से यूपी पुलिस तो इस मौलिक तथ्य को समझ पाने में असमर्थ है ही, उसके आकाओं को भी यह सोच रास नहीं आती शायद!