यूपी पुलिस को अदालत की फटकार, बलात्कार नहीं होने के बयान, अंत्येष्टि पर सवाल

01:55 pm Oct 14, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

हाथरस गैंगरेप केस में उत्तर प्रदेश पुलिस की ज़बरदस्त आलोचना तो पहले से ही हो रही है, अब अदालत ने उसे ज़ोरदार फटकार लगाई है। अदालत ने इसके साथ ही बलात्कार नहीं होने के पुलिस के कथन पर सवाल उठाया है। अदालत ने पीड़िता के अंतिम संस्कार के मुद्दे पर भी पुलिस की बहुत ही तीखी आलोचना की है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, सोमवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक प्रशांत कुमार से पूछा, 'क्या यह उचित है कि किसी अपराध की जाँच में सीधे तौर पर नहीं जुड़ा हुआ अफ़सर इस पर बयान दे'

बेंच ने यह सवाल भी किया, 'जब यह बलात्कार जैसा जघन्य अपराध हो और उसकी जाँच चल ही रही हो, जाँच पूरी होने के पहले ही कोई अफ़सर कैसे यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि बलात्कार हुआ ही नहीं है, और वह अफ़सर जो इस जाँच से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ ही नहीं है'

याद दिला दें कि इसके पहले उत्तर प्रदेश पुलिस ने कई बार कहा है कि बलात्कार नहीं हुआ है। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक प्रशांत कुमार ने इसकी दो वजहें बताई थीं। उन्होंने कहा था कि फ़ोरेंसिक रिपोर्ट में शुक्राणु या अंडाणु नहीं मिला है। दूसरे, पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट में मृत्यु का कारण गर्दन में आई चोट है।

प्रशांत कुमार ने यह भी कहा था कि बलात्कार नहीं हुआ है, लेकिन कुछ लोग जातीय तनाव बढ़ाने के लिए ऐसा कह रहे हैं। हालांकि बाद में इस मुद्दे पर विवाद होने के बाद एडीजी प्रशांत कुमार का रवैया भी बदल गया। उन्होंने 'द वायर' से कहा कि उन्होंने तो सिर्फ फ़ोरेंसिक रिपोर्ट की जानकारी दी थी, वे कौन होते हैं किसी को क्लीन चिट देने वाले।

हाई कोर्ट की बेंच ने प्रशांत कुमार से कुछ तल्ख़ी से पूछा, “क्या उन्हें यह पता है कि 2013 में हुए संशोधन के बाद से बलात्कार की परिभाषा बदल गई है और अब वीर्य का पाया जाना एक कारक हो सकता है, पर बलात्कार साबित करने के लिए वीर्य का पाया जाना अनिवार्य नहीं है।”

याद दिला दें कि अलीगढ़ के जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज व अस्पताल के डॉक्टरों की टीम की ओर से तैयार की गई मेडिको लीगल रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि पीड़िता की योनि का 'पेनीट्रेशन' हुआ था और उसके साथ बल प्रयोग किया गया था।

इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक़, इसी तरह अदालत ने परिवार वालों की इच्छा के ख़िलाफ़ पीड़िता के ज़बरन अंतिम संस्कार पर सवाल उठाए और पूरे पुलिस प्रसाशन को लताड़ लगाई।

अदालत ने कहा, “हमें फ़िलहाल इसका कोई कारण नहीं दिखता है कि पीड़िता का शव परिवार वालों को थोड़े समय के लिए, आधे घंटे के लिए ही सही, क्यों नहीं दिया जा सकता था ताकि वे अंतिम संस्कार के पहले ज़रूरी धार्मिक रीति रिवाज पूरी कर लेते।”

बेंच ने कहा, 'भारत ऐसा देश है जो मानवता के धर्म का पालन करता है जहां हर आदमी दूसरों का सम्मान जीवन और मृत्यु के बाद भी करता है। ऐसा लगता है कि स्थानीय प्रशासन ने ज़िला मजिस्ट्रेट के आदेश पर घर वालों की अनुमित लिए बग़ैर ही पीड़िता का अंतिम संस्कार कर दिया'

अदालत ने तीखी टिप्पणी की, “क़ानून व्यवस्था के नाम पर किया गया राज्य प्रशासन का यह काम पीड़िता और उसके परिवार के मानवाधिकारों का प्रथम दृष्टया उल्लंघन है।”अदालत ने इसके आगे और कड़ी टिप्पणी की। उसने कहा, 

“पीड़िता को कम से कम यह अधिकार तो था कि उसकी अंत्येष्टि उसके परिजनों द्वारा पूरे सम्मान और रीति रिवाज के अनुसार की जाती। अंत्येषटि एक संस्कार यानी अंतिम संस्कार है और क़ानून व्यवस्था की आड़ में इस पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता है।”


इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच

मौलिक अधिकार का मुद्दा

अदालत ने इस मामले में जीवन के बुनियादी अधिकार का मुद्दा भी उठाया और कहा कि पुलिस ने इस अधिकार का उल्लंघन किया है। बेंच ने कहा, “इस तरह, जीवन के अधिकार, सम्मानपूर्वक जीवन जीने और मृत्यु के बाद भी सम्मान और इसके साथ ही सम्मानजनक तरीके से अंतिम संस्कार के अधिकार का उल्लंघन किया गया है। इससे पीड़िता के परिजनों का ही नहीं, बल्कि वहां मौजूद रिश्तेदारों और सभी लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं।”

अदालत यहीं नहीं रुकी। उसने कहा, 

'रात के समय परिवार वालों की अनुमति के बग़ैर, उन्हें पीड़िता का मुंह दिखाए बिना ही इस तरह उसका अंतिम संस्कार कर देना संविधान के अनुच्छेद 21 और 25 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। यदि ऐसा है तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है, यह तय किया जाना चाहिए और पीड़िता के परिजनों को इसकी भरपाई कैसे की जा सकती है, इस पर विचार होना चाहिए।'


इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच

अदालत ने कहा, 'हमारी परेशानी दो मुद्दों को लेकर है, क्या पीड़िता और उसके परिजनों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है और दूसरा, वह अधिकार जो सामान्य रूप से राज्य के सभी नागरिकों को हासिल है, वह बहुमूल्य है और मनमर्जी से इस पर समझौता नहीं किया जा सकता है।'

 अदातल ने प्रसाशन को आदेश दिया कि पीड़िता के परिजनों को जो मुआवजा देने का एलान हुआ है, वह उन्हें तुरन्त दिया जाए।

बेंच ने यह भी आदेश दिया कि जो अफ़सर जाँच से सीधे तौर पर जुड़े हुए नहीं हैं, वे उस पर किसी तरह की टिप्पणी न करें।