2022 के विधानसभा चुनाव के लिए तैयार हो चुके उत्तर प्रदेश में जातियों की सियासत फिर चरम पर है। बीएसपी ने ब्राह्मण सम्मेलन शुरू किए तो अखिलेश यादव भी इसी राह पर चल पड़े और उनकी पार्टी एसपी भी ब्राह्मण सम्मेलन करने जा रही है। अब कांग्रेस सम्मान यात्रा के जरिये दलितों के बीच में पहुंचने जा रही है। कांग्रेस ने एलान किया है कि वह मंगलवार को प्रदेश भर में दलित स्वाभिमान दिवस मनाएगी। इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनाधार रखने वाली आरएलडी भाईचारा सम्मेलन कर रही है।
20 साल पहले पूछा जाता था कि यहां विकास कब मुद्दा बनेगा लेकिन इतने सालों में भी कुछ नहीं बदला और आज भी राजनीतिक दलों का जोर सिर्फ़ जातीय समीकरण फिट करने में है।
7 महीने बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं। कांग्रेस को जिंदा करने की तैयारियों में जुटीं पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी की कोशिश कांग्रेस के पुराने समर्थक मतदाताओं दलित, ब्राह्मण और मुसलमानों को साथ लाने की है। पार्टी संगठन में हो रही नियुक्तियों में इसे देखा भी जा सकता है।
मिसाल के तौर पर कुछ साल पहले ही पार्टी में आए नामचीन शायर इमरान प्रतापगढ़ी को अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया है तो आराधना मिश्रा को विधायक दल की नेता के पद बैठाया गया है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस सिर्फ़ सम्मान यात्रा के जरिये दलितों के बीच में ही पहुंच रही है। इससे पहले वह निषाद-केवट-मल्लाह, मौर्य-शाक्य-सैनी-कुशवाहा और पाल-गडरिया-धनगढ़ सम्मेलन कर चुकी है।
कांग्रेस अनुसूचित जाति विभाग के अध्यक्ष आलोक प्रसाद का कहना है कि देश की आज़ादी के बाद 3 अगस्त को, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट ने बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर को क़ानून मंत्री बनाने के लिए प्रस्ताव पास किया था। इस वजह से उत्तर प्रदेश कांग्रेस का दलित प्रकोष्ठ इस दिन को स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाएगा।
दलित पंचायत भी करेगी पार्टी
उन्होंने कहा कि इस दौरान प्रकोष्ठ के कार्यकर्ता पूरे प्रदेश के जिलों में दलित स्वाभिमान यात्रा निकालेंगे और दलित समुदाय के लोगों के बीच में जाएंगे। उन्होंने कहा कि पार्टी ने जल्द ही दलित पंचायत करने की योजना भी बनाई है। इससे पहले एसपी ने भी 14 अप्रैल को दलित दिवाली कार्यक्रम आयोजित किया था।
उत्तर प्रदेश में पस्त हो चुकी कांग्रेस के लिए 2022 का साल बेहद अहम है। 2017 में एसपी के साथ गठबंधन करने के बाद भी पार्टी को सिर्फ़ 7 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार पार्टी की कोशिश अकेले चुनाव मैदान में जाने की है हालांकि प्रियंका गांधी ने कहा है कि गठबंधन को लेकर विकल्प खुले हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से जिंदा करने की जिम्मेदारी प्रियंका पर ही है। प्रियंका यहां कांग्रेस की प्रभारी भी हैं और उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की चर्चाएं लगातार चलती रहती हैं।
किस ओर जाएंगे दलित मतदाता?
उत्तर प्रदेश में दलित समुदाय की आबादी 22 फ़ीसद है। दलित समुदाय के बड़े हिस्से का समर्थन बीएसपी प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को मिलता रहा है। लेकिन 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा था। बीएसपी के महासचिव सतीश मिश्रा ब्राह्मण सम्मेलनों में दलितों और ब्राह्मणों के साथ आने की बात को बार-बार कहते हैं।
बीजेपी ने हालिया कैबिनेट विस्तार में दलित समुदाय के काफी लोगों को जगह देकर ख़ुद को इस समुदाय का हितैषी साबित करने की कोशिश की है। अखिलेश यादव भी इस समुदाय के बीच में असर रखने वाले नेताओं को पार्टी से जोड़ने में जुटे हैं।
इसके अलावा आज़ाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद भी इसी समुदाय से आते हैं और वे भी चुनाव में ताल ठोकने को तैयार हैं। ऐसे में देखना होगा कि दलित समुदाय किस राजनीतिक दल को समर्थन देगा।
सहनी-मांझी की सक्रियता
एनडीए में शामिल और बिहार के राजनीतिक दल विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) (सेक्युलर) भी उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में उतरने जा रहे हैं। सहनी एलान कर चुके हैं कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में 165 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि हम (सेक्युलर) की ओर से इस बारे में एलान किया जाना बाक़ी है।
इन दोनों दलों के पास बिहार में 4-4 सीटें हैं और उत्तर प्रदेश में कोई आधार नहीं है। लेकिन बावजूद इसके ये यहां चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। सहनी ख़ुद को सन ऑफ़ मल्लाह कहते हैं और मूल रूप से निषाद समाज की राजनीति करते हैं। निषाद समाज की पूर्वांचल में बड़ी आबादी है। कई विधानसभा सीटों पर निषाद समाज के मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं।
दूसरी ओर मांझी दलित बिरादरी की राजनीति करते हैं। उत्तर प्रदेश में इन दलों और इनके नेताओं की कोई बहुत बड़ी पहचान नहीं है लेकिन ये दल जिस जाति और समुदाय की राजनीति करते हैं, भावनात्मक आधार पर उनके वोट हासिल कर सकते हैं।
मुल्क़ की सियासी तसवीर क्या होगी, इसे काफ़ी हद तक तय करने वाला उत्तर प्रदेश एक बार फिर से जातीय सम्मेलनों की राजनीति देख रहा है। हालांकि बदलते समय में सभी दल विकास को ही मुद्दा बनाने की बात कहकर चुनाव लड़ते हैं।