एनएसए के दुरुपयोग पर योगी सरकार को हाई कोर्ट की फटकार

03:22 pm Apr 07, 2021 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (एनएसए) का दुरुपयोग किस तरह करती है और इसके जरिए किस तरह ख़ास समुदाय के लोगों को निशाने पर लेती है, इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट के कुछ मामलों से समझा जा सकता है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने जनवरी 2018 और दिसंबर 2020 के बीच सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के मामले में जिन 20 मामलों में एनएसए लगाया था, हाई कोर्ट ने उन सबको खारिज कर दिया।

अदालत ने बंदीकरण प्रत्यक्षीकरण यानी हैबियस कॉर्पस याचिकाओं की सुनवाई करते हुए इन मामलों को खारिज किया। हैबियस कॉर्पस के तहत कोई आदमी अदालत में याचिका दायर कर किसी गायब आदमी के बारे में सरकार से सवाल कर सकता है।

क्या है मामला?

हाई कोर्ट ने हैबियस कॉर्पस याचिका पर सुनवाई करते हुए जिन 20 मामलों को खारिज कर दिया, उनमें सभी लोग एक ख़ास समुदाय के ही थे, सब पर एनएसए लगाया गया था।

'इंडियन एक्सप्रेस' ने अपनी एक ख़बर में कहा है कि उसके सवाल के जवाब में उत्तर प्रदेश सरकार के एक प्रवक्ता ने जनवरी 2018 और दिसंबर 2020 के बीच के एनएसए के मामलों का ब्योरा दिया है। इसके मुताबिक 2018 से 2020 के बीच 534 मामलों में एनएसए लगाया गया, सलाहकार परिषद की सिफारिश पर 106 और हाई कोर्ट के आदेश पर 50 मामलों से एनएसए वापस ले लिया गया।

लेकिन एक अध्ययन में पाया गया है कि सरकार ने 120 हैबियस कॉर्पस याचिकाओं में से 94 में एनएसए हटा लिया।

इतना ही नहीं, गोकशी के मामले में भी एनएसए लगाया गया है।

छह मामलों में हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है कि ज़िला मजिस्ट्रेट का यह सपाट बयान एनएसए को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है कि इन लोगों को छोड़ा गया तो वे फिर वही वैसा ही काम करेंगे।

हाई कोर्ट ने क्या कहा?

चार मामलों में प्रविवादी के वकीलों को उद्धृत किया गया है कि एनएसए उन लोगों के बयान पर लगाया गया है, जिनके नाम एफ़आईआर में नहीं हैं, या जिनके बारे में यह साफ नहीं है कि उन्होंने किया क्या है।

चार मामलों में ज़िला मजिस्ट्रेट ने कहा कि स्थानीय लोगो में भय और आतंक का माहौल छा गया और आम लोगों का जन जीवन अस्त-व्यस्त हो गया।

तीन मामलों में एनएसए लगाने के आदेश में कहा गया है कि गाँव में भगदड़ मच गई और लोगों ने अपने अपने दरवाजे बंद कर लिए।

फरखुंद सिद्दीक़ी मामले में ज़िला मजिस्ट्रेट ने 7 नवंबर 2018 को कहा कि अभियुक्त ने ताज़िए के जुलूस की अगुआई की, जिसमें वह हाथ में तलवार ले कर चल रहा था, वह तलवार लहराते हुए हिन्दू इलाक़े में घुसा, जिससे लोग डर गए।

पुलिस के बहाने

अदालत ने ज़िला मजिस्ट्रेटट को फटकारते हुए कहा था कि उनकी सपाट बयानबाजी एनएसए को उचित नहीं ठहरा सकती है।

नूरे आलम मामले में पुलिस ने 5 फरवरी 2018 को कहा कि नूरे आलम ने महेंद्र सिंह से भूसा छीन कर भागा। गाँव के लोगों ने समझा बुझा कर मामला सुलझाने की कोशिश की थी। लेकिन इसके बाद नूरे आलम ने चाय की दुकान पर बैठे महेंद्र कुमार के ऊपर बम, पिस्तौल, लाठी, छड़ी और पत्थरों से हमला कर दिया।

अदालत ने पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि इस आधार पर जम़ानत से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अभियुक्त जेल से बाहर निकल कर फिर वैसा ही करेगा।

मुजफ़्फ़रनगर के ज़िला मजिस्ट्रेट ने शमशेर के मामले में उसके खिलाफ़ 6 अक्टूबर, 2018 को दो एफ़आईआर दर्ज कर दिए। इसमें कहा गया कि 15-20 मुसलमान युवकों ने उत्तेजक धार्मिक नारे लगाए। लेकिन इसमें शमशेर या उसके परिवार के लोगों के नाम नहीं थे।

दूसरे एफ़आईआर में कहा गया कि शमशेर ने यह अफवाह फैला दी कि लोगों ने उसके यहां काम करने वाले एक व्यक्ति पर बम, पिस्तौल और लाठी से हमला कर दिया।

इस तरह के कई मामले में हैं, जिनमें अदालत ने पुलिस और प्रशासन को फटकार लगाए हैं। क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि इन मामलों में सभी अभियुक्त मुसलमान ही हैं। दूसरी बात यह है कि इन मामलों में छोटी-मोटी बातों पर भी एनएसए लगा दिया गया है।

यह साफ है कि उत्तर प्रदेश में एनएसए का दुरुपयोग हुआ है, इसके कई उदाहरण हैं, एक खास समुदाय को निशाने पर लिया गया है और इन मामलों में हाई कोर्ट ने उसे फटकार लगाई है।