नेतृत्व की मंशा ने उत्तर प्रदेश को 'पुलिस स्टेट' बना दिया!

02:38 pm Dec 08, 2024 | वंदिता मिश्रा

‘बीइंग मुस्लिम्स इन इंडिया’ किताब के लेखक जिया उस सलाम का कहना है कि “भारत में मुस्लिम दूसरे दर्जे के नागरिक हो गए हैं, अपने ही देश में एक अदृश्य अल्पसंख्यक बन गए हैं”।

चाहे ‘लव जिहाद’ का फर्जी नरेटिव हो या हर दूसरे शब्द के पीछे जिहाद जोड़ने का आधुनिक भाजपाई चलन (UPSC ज़िहाद, लैंड ज़िहाद, वोट जिहाद आदि), हर तरह से अल्पसंख्यकों को शर्मसार करने और अपराधी साबित करने की कोशिश की जा रही है। भगवान का व्यापार करके लाखों करोड़ों रुपये गरीब और लाचार भारतीयों से लूटने वाले, देवी- देवताओं के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले, ‘हिंदुओं की एकता’ के नाम पर अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हजारों गैलन ज़हर समाज में उड़ेल रहे हैं। और ताज्जुब की बात यह है कि ‘क़ानून के शासन’ के आधार पर चलने का वादा करने वाली भारत की सरकार चुप है।

न तो प्रधानमंत्री कुछ बोलते हैं और न ही राज्यों के मुख्यमंत्री कुछ बोलते हैं। न्यायालय याचिकाओं के इंतज़ार में बैठे अपने ‘तथाकथित संवैधानिक दायित्व’ को निभा रहे हैं। लव जिहाद का ही मामला देख लीजिए। इसे लेकर भारत सरकार का संसद में कुछ और नज़रिया है और संसद के बाहर कुछ और नज़रिया। दोनों जगहों पर एक ही मुद्दे को लेकर भिन्न भिन्न नज़रिया क्यों है? भारत सरकार, लव जिहाद को आधिकारिक रूप से चिन्हित करने योग्य भी नहीं मानती। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने 4 फरवरी 2020 को संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि ‘लव जिहाद’ जैसा शब्द किसी भी मौजूदा क़ानून के तहत परिभाषित नहीं है और अभी तक किसी भी केंद्रीय एजेंसी ने ‘लव जिहाद’ के किसी भी मामले की रिपोर्ट नहीं दी है। मंत्री जी ने यह भी कहा कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद-25 सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। सोचने वाली बात है कि यदि संसद में सरकार का यह बयान है तो फिर सड़कों पर खुलेआम इसे लेकर घृणा क्यों फैलायी जाती है? यह सब जब हो रहा होता है तो सरकार का नेतृत्व चुपचाप बैठने का फैसला क्यों लेता है?

देश का सुप्रीम कोर्ट विनीत नारायण (1997) मामले में कह चुका है कि संस्थाओं की स्वतंत्रता, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में सबसे अहम है। लेकिन सवाल यह है कि जब स्वतंत्र संस्थाओं को ‘सरकारी सेवक’ बनाये जाने का सिलसिला चल पड़ा है तब सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप क्यों नहीं करता? ‘स्वतः संज्ञान’ के अतिरिक्त तमाम ऐसे मौक़े न्यायालय के सामने आते हैं जिनके सहारे वह चाहे तो सरकार को यह संदेश दे सकती है कि भारत की ‘आधारिक संरचना’ का निर्माण करने वाली संस्थाओं से खेलने की आज़ादी नहीं मिलेगी। लेकिन कितनी बड़ी विडंबना है कि जब ‘इलेक्टोरल बांड्स’ जैसे मामले में कोर्ट सख़्त कदम उठा सकता था, जांच बैठा सकता था, राजनेताओं और धनपतियों के बीच के नेक्सस को उधेड़ सकता था, क़ानून का शासन स्थापित कर सकता था तब उसने प्रवचन देकर सबको भ्रमित करने का काम किया। एक बड़ा मौक़ा था जब सुप्रीम कोर्ट संस्थागत वर्चस्व को फिर से स्थापित कर सकता था पर उसने ‘कुछ ना करने करने’ का ही फ़ैसला किया।

उत्तर प्रदेश देश एक ऐसा राज्य है जहां पर अक्सर अख़बारों में ख़बरें इसी बात को लेकर आती रहती हैं कि क़ानून और व्यवस्था बहुत अच्छी स्थिति में है, यहाँ के मुख्यमंत्री भी समय समय पर ऐसा बोलते रहते हैं कि उत्तर प्रदेश में प्रशासन बहुत चुस्त है पर सच्चाई यह है कि यह राज्य एक पुलिस स्टेट बन चुका है। ‘पुलिस स्टेट’ एक ऐसा शासन या ऐसी व्यवस्था है जिसमें सरकार का संचालन और नियंत्रण अत्यधिक सख्त और दमनकारी होता है, जहां नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों का अत्यधिक दबाव होता है। 

पुलिस स्टेट’ में ‘कानून और व्यवस्था’ बनाए रखने के नाम पर लोगों की गतिविधियों पर अत्यधिक निगरानी, दमन और कठोर दंडात्मक कार्रवाई की जाती है। ज़रा सोचिए कि ऐसा क्यों होता होगा?

न्यायपालिका जैसी संस्था की असफलता और अकर्मण्यता ही अंततः ‘पुलिस स्टेट’ बनाने के लिए ज़िम्मेदार होती है। कोई भी पुलिस स्टेट सांप्रदायिक समरसता को बहाल करने का काम नहीं कर सकती क्योंकि सांप्रदायिक तनाव का मुख्य कारण राजनैतिक नेतृत्व की मंशा में छिपा होता है और पुलिस स्टेट में पुलिस वही काम करती है जो उसके राजनैतिक आका कहते हैं न कि वो, जो क़ानून सम्मत हो।

अयोध्या मामले का फ़ैसला आते ही न्यायपालिका ने भी लिखित रूप से यह स्वीकार किया था कि अयोध्या विवाद एक अपवाद है और आगे ऐसे किसी भी मामले को न्यायपालिका नहीं लेगी जो उपासना स्थल अधिनियम 1991, के अंतर्गत अवैध है। स्वयं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ चीफ, मोहन भागवत ने भी कहा कि सभी मस्जिदों के नीचे मन्दिर खोजना बंद कर देना चाहिए। लेकिन ताज्जुब देखिए कि ख़ुद भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाला सुप्रीम कोर्ट अपने ‘वादे’ से मुकर गया। मोहन भागवत भी ज्ञानवापी और सम्भल जैसे मामलों में बड़ी चतुराई से चुप्पी साधे बैठे हैं। संभल में हुई हिंसा और 5 लोगों की मौत भी इन्हीं सबका परिणाम है। इन्हीं लोगों की चालाकी भरी बातों और चुप्पियों के कारण आज देश का लगभग हर कोना ‘संभल’ बना हुआ है। अल्पसंख्यकों को उत्पीड़ित और अपमानित करने, उन्हें कानून के समक्ष कमतर नागरिक साबित करने की उच्च स्तरीय राजनैतिक-शासनिक कोशिशें चल रही हैं।

विभाजनकारी सिद्धांतों के आधार पर खड़े राजनैतिक दलों और संगठनों को कोई रोकने वाला नहीं है क्या इस देश में? न रोकने का परिणाम यह हो रहा है कि इससे ख़तरा और बढ़ता ही जा रहा है, क्योंकि इस उत्पीड़न को और बढ़ाने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों को हथियार बनाया जा रहा है। यह सबकुछ कानून और प्रशासन (‘लॉ एंड ऑर्डर’) के युगांतरकारी, ख़राब उद्देश्य वाले अच्छे जुमले के साये में ही किया जा रहा है।

शिकागो, 1961 में एक सांप्रदायिक सौहार्द्र कार्यक्रम में बोलते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रॉबर्ट एफ. केनेडी ने कहा कि “हर बार जब हम कानून के उल्लंघन को देखकर मुंह फेर लेते हैं, जब हम गलत को सहन करते हैं, जब हम भ्रष्टाचार के प्रति आंखें मूंद लेते हैं क्योंकि हम बहुत व्यस्त या डरे हुए हैं, जब हम बोलने में असफल रहते हैं—हम स्वतंत्रता, शिष्टता और न्याय को चोट पहुंचाते हैं”।

सबसे ख़तरनाक और जानने वाली बात यह है कि सरकार और जिम्मेदार नेताओं की मनचाही और मुनाफ़ा केंद्रित चुप्पियों ने सिर्फ़ अल्पसंख्यकों को ही ख़तरे में नहीं डाला है। इन लोगों की कायरता ने देश के कई हिस्सों को अब पुलिस स्टेट में तब्दील कर दिया है। देश के कुछ हिस्से तो ऐसे हैं जहाँ के सामुदायिक/नृजातीय संघर्षों को पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों के माध्यम से ‘नरसंहार’ में बदल दिया गया है। मणिपुर इसका ताज़ा उदाहरण है। 

मणिपुर में हिंसा होते-होते डेढ़ साल पूरा होने को है। लेकिन तमाम सत्तारूढ़ नेताओं ने ख़ास क़िस्म की चुप्पी साध रखी है। कोई भी मणिपुर पर कुछ नहीं बोलता। अगर कुछ बोलता भी है तो उत्तर- पूर्व के उन मुद्दों पर बोलता है जिनपर न भी बोले तो नागरिक का कोई नुक़सान नहीं।

चाहे पुलिस कस्टडी में मौत हो जाये, चाहे किसी को पुलिस, एनकाउंटर के नाम पर गोली मार दे या फिर उसका इतना शोषण कर ले कि वो स्वयं आत्महत्या कर ले, सरेआम थानों में बलात्कार हो जाये या बलात्कार पीड़ित का फिर से थाने में बलात्कार हो जाये। लेकिन इनमें से किसी घटना के विरोध में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे नेता कभी एक शब्द नहीं बोलते। हर अमानवीय घटना को ‘सहज’ स्वीकार्य बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। आपराधिक स्वभाव वाले गंभीर विषयों पर सरकारें चुप रहकर उनकी वैधता को बढ़ावा देती हैं जिससे अपराधियों को बहुत प्रोत्साहन मिलता है। मजिस्ट्रेट जांच के नाम पर सैकड़ों भारतीयों को निगल लिया गया है।

अंग्रेजी शासन के उत्पीड़न के बाद संविधान सभा में बहस करने वाले और देश को नया संविधान देने वालों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिस संवैधानिक राज्य, भारत की स्थापना की जा रही वहाँ भविष्य में पुलिस थाने ही भारतीयों की मौत का कारण बनेंगे। देश के सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश पर एक नज़र डालिए। यहाँ के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यूपी को देश के लिए क़ानून व्यवस्था के एक मॉडल के रूप में स्थापित करने का दावा करते हैं जबकि असलियत यह है कि यह राज्य धीरे धीरे एक असफल राज्य के रूप में तब्दील हो रहा है जहाँ नागरिक अधिकारों को पुलिस थाने की ताक़त से निष्क्रिय किया जा रहा है। 

2020-21 में उत्तर प्रदेश के पुलिस थानों में, कस्टडी के दौरान, 451 नागरिकों की मौत हो गई, जबकि 2021-22 में मौतों का यही आंकड़ा बढ़कर 501 हो गया। ये किस किस्म का क़ानून का शासन है? ये किस तरह की प्रशासनिक शैली है? यह कैसा लॉ एंड ऑर्डर है?

‘जीवन के अधिकार’ की सुरक्षा करने वाले सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार से जवाब क्यों नहीं माँगा? न्यायालय जवाब नहीं माँगता, शायद किसी याचिका का इंतज़ार कर रहा होगा! लेकिन संविधान की रक्षा सिर्फ़ याचिका पर निर्भर तो नहीं रह सकती। लेकिन शायद सच यही है और कहीं न कहीं पुलिस, नेता, इस बात को अच्छे से समझ चुके हैं। तभी तो पुलिस की इतनी हिम्मत हो जाती है कि वो पहले एक 34 वर्षीय आदिवासी को अरेस्ट करके थाने में लाते हैं, फिर उसका उत्पीड़न करते हैं और जब उसकी हालत ख़राब हो जाती है तो छोड़ देते हैं और अगले दिन ही उसकी मौत हो जाती है। यह मामला एक अन्य राज्य दक्षिण त्रिपुरा का है और इस मामले में आईपीएस अधिकारी से लेकर कांस्टेबल तक 5 पुलिस वाले शामिल हैं। ये न्यायपालिका की निष्क्रियता ही है जिसने पुलिस को असीमित ताक़त दे दी है। वर्ना थानों में बलात्कार जैसी घटनाएँ कोई सोच भी नहीं सकता।

यह सब भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक स्थिति की भी व्याख्या करता है।

एक पुलिस वाले ने अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड को अरेस्ट करने के दौरान मार दिया था और परिणाम देखा जा सकता है कि पूरा अमेरिका विरोध में आ खड़ा हुआ। अश्वेतों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रम्प की हालत ख़राब हो गई थी, बड़ी मुश्किल से स्थिति पर काबू पाया गया। लेकिन भारत में यह सब संभव नहीं। यहाँ मरने वाले का पहले धर्म देखा जाता है, यदि वह अल्पसंख्यक नहीं निकला तो फिर उसकी जाति और उसकी आर्थिक स्थिति और उसका राजनैतिक वर्चस्व आदि के बाद फैसला किया जाता है कि कानून उसके मामले में कैसे ‘एक्शन’ में आयेगा। यही है ‘पुलिस स्टेट’ का व्यापक स्वरूप जहाँ न्याय के लिए क़ानून की किताब नहीं वर्दी का रौब इस्तेमाल किया जाता है। 

यही कारण है कि इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा तैयार डेमोक्रेसी इंडेक्स 2023 में भारत ‘फ्लॉड डेमोक्रेसी’ (त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र) की श्रेणी में है। इसमें भी सबसे ज़्यादा ख़राब स्थिति नागरिक स्वतंत्रता संबंधी मानकों में है। इसी तरह वी-डेम इंस्टीट्यूट की डेमोक्रेसी रिपोर्ट 2023 में भारत को "इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी" (चुनावी निरंकुशता) की श्रेणी में रखा गया है। वी-डेम द्वारा जारी इलेक्टोरल डेमोक्रेसी इंडेक्स (EDI) में भारत का 108वां स्थान है। इसके अलावा फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2024 रिपोर्ट (फ्रीडम हाउस) भारत को ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ देश की संज्ञा देती है। संस्थाओं के पतन और ‘लॉ एंड ऑर्डर’ के नाम पर नागरिक अधिकारों की लूट में संलग्न राजनैतिक टूल बन चुकी पुलिस की वजह से देश की आज यह हालत है। देश में ऐसा दमनकारी माहौल सिर्फ़ सत्ता पर हमेशा क़ब्ज़े की धारणा से और सांप्रदायिक आधार पर पैदा की जा रही घृणा से बनता है और विस्तार लेता है। फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्टेयर इस संरचना को समझाने का प्रयास करते हैं। वो कहते हैं कि सत्ता में बैठे लोग अक्सर अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए झूठ या अन्यायपूर्ण प्रथाओं का सहारा लेते हैं। ऐसे में जो लोग सत्ता में बैठे लोगों की ग़लतियों या अन्याय के ख़िलाफ़ सच बोलने का साहस करते हैं उन्हें उत्पीड़न, कैद या इससे भी गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। यह स्थिति "पुलिस स्टेट" जैसी व्यवस्थाओं में अधिक प्रचलित होती है। इसीलिए वॉल्टेयर कहते हैं  कि “जहां स्थापित प्राधिकारी गलत हैं, वहां सही होना ख़तरनाक है”।

जब देश में एक खास किस्म के सिनेमा को तरजीह दी जाए, आलोचनात्मक सिनेमा को हतोत्साहित किया जाए, आरोप सिर्फ़ विपक्ष पर लगें, ED, CBI का छापा सिर्फ़ विपक्षी दलों के नेताओं पर पड़े, चुनाव के दौरान सिर्फ़ विपक्षी नेताओं के सामान, वाहनों आदि की तलाशी ली जाए, आचार संहिता का उल्लंघन विपक्ष के खाते में ही आए और सत्ता को खुली छूट मिलती जाए, साथ ही न्यायालय भी सत्ता/बहुमत के पक्ष को सुनकर ही फ़ैसले करने लगे तो पुलिस स्टेट को ही तो बल मिलेगा। यह वही स्थिति है जिसमें प्रतिष्ठित विचारक नोआम चॉम्स्की कहते हैं कि “सत्ता के लिए, अपराध वे होते हैं जो दूसरे करते हैं”।

‘संभल’ का निर्माण क्यों हुआ? यह न्याय की अधोगति, संस्थाओं के पतन और कुर्सी से सदा चिपके रहने की लिप्सा से हुआ है, जिसमें ‘पुलिस स्टेट’ एक जबरदस्त सहयोगी की भूमिका में है।

लेकिन यह तरीका 140 करोड़ आबादी को घृणा के दलदल में फेंक रहा है और जब कोई राहुल गांधी (लोकसभा में विपक्ष का नेता) इसे रोकने के लिए आगे आता है तो उसे आगे बढ़ने से ही रोक दिया जाता है। इसके लिए जिस चीज का इस्तेमाल किया जाता है वह है ‘पुलिस स्टेट’। राहुल गांधी जब संभल जाना चाहते थे तो उन्हें रोकने के लिए ‘स्टेट’ की इतनी अधिक पुलिस लगाई गई कि वह क्षेत्र भी ‘पुलिस स्टेट’ सा ही लगने लगा। 

मेरा कहना है कि जिस नेता को विपक्ष का मुख्य नेता होने के नाते, संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है कि वह जनता के सुख दुख को देखने भारत के किसी भी कोने में अबाध घूम सकता है उस राहुल गांधी को रोकना समस्या का समाधान नहीं बन सकता! संस्थाओं के पतन को रोकना पड़ेगा, धर्म की आड़ में अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय को रोकना होगा, पुलिस को कानून का पर्याय बनने से रोकना होगा। राहुल गांधी का संभल जाने का स्वागत किया जाना चाहिए था, यह राष्ट्रहित में था। देश के करोड़ों अल्पसंख्यकों को यह संदेश देना आवश्यक है कि वो बहुमत आधारित, चुनावी राजनीति के इस क्रूर दौर में अकेले नहीं हैं, भारत की लोकसभा में विपक्ष का नेता, उनके साथ खड़ा है और उन्हें धैर्य रखना चाहिए, उन्हें संविधान पर भरोसा रखना चाहिए। लेकिन शायद यह सत्ता को मंजूर नहीं क्योंकि यह स्वीकारते ही सत्ता पर सदा बने रहने की उनकी सामंतवादी मानसिकता को उन्हें बदलना होगा, चुनावी हार को धर्म की हार और चुनावी जीत को धर्म की जीत से जोड़ने की मानसिकता बदलनी होगी। और शायद यही मानसिकता उनके वर्चस्व का कारण है, जिसके न रहने पर उनका अस्तित्व भी सिमट जाएगा।