उत्तर प्रदेश बीजेपी ने एक वीडियो अपलोड किया है -जिसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या में रामलला की आरती उतार रहे हैं और वीडियो का थीम सॉंग है- ‘योगी जी को यूपी में लाएं दोस्तो, यूपी में भगवा फहराएं दोस्तो।’
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की अधिसूचना जारी होने के साथ ही माहौल गर्माने लगा है लेकिन क्या उसके साथ ही तसवीर बदलने के संकेत मिलने लगे हैं? मकर संक्रांति के दिन लखनऊ में दो तसवीरें दिख रही थीं, एक में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक दलित के घर पर उनके साथ भोजन कर रहे थे तो दूसरी तरफ़ समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की मौजूदगी में स्वामी प्रसाद मौर्य समेत बहुत से दलित और अति पिछड़े नेता पार्टी में शामिल हो रहे थे और हज़ारों की तादाद में मौजूद कार्यकर्ता उम्मीद से भरे दिख रहे थे।
पिछले कुछ दिनों में क़रीब एक दर्जन छोटे-बड़े पिछड़े और अति पिछड़े समुदाय से आने वाले नेताओं ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया, इनमें तीन तो योगी सरकार में मंत्री रहे थे और बहुत से विधायक हैं। जाहिर है कि बीजेपी नेताओं की चिंता बढ़ गई होगी, मगर किसी मित्र ने कहा, भैया, आपने कहावत सुनी होगी, जो बोओगे, वो काटोगे। उनका इशारा था कि बीजेपी से विदा होते ज़्यादातर नेता वो हैं जिन्हें पिछले चुनावों से पहले बीजेपी ने अपने घर में बुलाया था, नाम दिया था ‘सोशल इंजीनियरिंग’। अब वो ही नेता अगले चुनावों में कुछ और उम्मीदों के साथ बीजेपी छोड़कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए हैं। तो क्या यह मामला इतना आसान सा है?
क्या यह सवाल अहम नहीं है कि जब केन्द्र और प्रदेश दोनों जगह बीजेपी की डबल इंजन वाली सरकार है तो ऐसे माहौल में पार्टी छोड़ कर दूसरे दल के साथ नेता क्यों जा रहे हैं? क्या इस बात में कोई सच्चाई नहीं है कि इन पांच सालों में इऩ नेताओं को महसूस हुआ होगा कि उन्हें ठगा गया है? उनके नाम पर वोट तो ले लिए गए, लेकिन उनका हक उन्हें नहीं मिला या उनकी उपेक्षा की गई?
राज्यपाल या पार्टी अध्यक्ष को भेजे गए इस्तीफ़ों का मजमून भले ही एक हो, लेकिन कारण भी तो एक ही हो सकता है-उनकी उपेक्षा। यह उपेक्षा स्वामी प्रसाद मौर्या से लेकर केशव प्रसाद मौर्या तक की भी तो हो सकती है। इसमें केशव प्रसाद मौर्या पार्टी छोड़कर नहीं गए और स्वामी प्रसाद मौर्या ने मौक़ा लपक लिया।
यह तो सच है ही कि साल 2017 के चुनावों में बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग यानी दलितों और पिछड़ों -अति पिछड़ों के वोट में सेंध लगा कर अपनी ताक़त बढ़ाई थी और उसे 40 फ़ीसदी वोट मिले थे, जबकि उसका वोट बैंक आमतौर पर 30-34 फ़ीसदी तक रहा है।
साल 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 312 सीटें जीत कर सरकार बनाई। बीजेपी के इन 312 विधायकों में से 54 वो नेता थे, जो चुनाव से पहले पार्टी में शामिल हुए। पार्टी ने ऐसे 67 लोगों को टिकट दिया था। ये 67 बीजेपी की ‘वाशिंग मशीन’ में धुलकर तुरंत चमकदार हो गए और बीजेपी के रंग में भी रंग गए। उस समय शायद किसी ने ध्यान नहीं दिया कि उनकी विचारधारा क्या है और क्या उनका बैकग्राउंड है, यानी क्यों कोई पार्टी में प्रदेश अध्यक्ष, सरकार में मंत्री और फिर विरोधी दल का नेता रहने के बावजूद अचानक उस पार्टी में शामिल हो गया, जिसे आमतौर पर सवर्णों की पार्टी माना जाता रहा है, जबकि वो पिछड़ों और अति पिछड़ों की पार्टी बीएसपी और नेता मायावती के साथ था।
एक मित्र ने कहा कि विचारधारा और चाल, चरित्र व चेहरा की बातें तो आडवाणी और वाजपेयी के साथ ही छूट गई थीं, अब तो सिर्फ़ जीतना यानी ‘विनेबिलिटी’ ही मूल मंत्र है और योग्यता का आधार भी। खासतौर से साल 2014 के बाद से बीजेपी में हर उस आदमी के लिए दरवाज़े खुले हैं जो जीत की गारंटी देता लगता हो। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में ऐसे बहुत से नेताओं को बीजेपी ने तृणमूल कांग्रेस से लाकर शामिल किया, उनमें से बहुत से नेताओं ने घर वापसी कर ली। पिछली बार जब उत्तराखंड के चुनाव नतीजे आए थे तब लोगों ने कहा कि बीजेपी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कांग्रेस मंत्रियों की सरकार, हो सकता है उनमें से भी कुछ लोग इस बार फिर से घर वापसी कर लें। दरअसल विचारधारा का मंत्र तो पार्टी ने शायद उस दिन छोड़ दिया था जब बीजेपी का कार्यकर्ता बनने के लिए सिर्फ़ मिस्ड कॉल भर देना था और देखते-देखते ही बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई, क़रीब 18 करोड़ कार्यकर्ताओं की पार्टी।
वैसे, चुनाव से पहले विधायकों के पाला बदलने का न तो यह पहला मौक़ा है और न ही बीजेपी छोड़ने या बीजेपी में शामिल होने का पहला मामला। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट की मानें तो साल 2016 से 2021 के बीच देश भर में 357 विधायकों ने चुनावों से पहले पार्टी बदल कर चुनाव लड़ा। इनमें से क़रीब आधे 170 ने जीत हासिल की। विधानसभा उप-चुनावों के वक़्त पार्टी बदलने वाले 48 विधायकों में से 39 फिर से विधानसभा पहुँच गए।
चुनावों से पहले इस भागदौड़ का एक कारण यह भी माना जाता है कि विधायकों को इस बात का डर होता है कि उनको या उनके समर्थकों को टिकट नहीं मिलने वाला, तो इस आशंका की वजह से वो पार्टी के उम्मीदवारों की सूची जारी होने से पहले ही अपना ठिकाना ढूंढ लेते हैं क्योंकि टिकट कटने के बाद दूसरी पार्टी में भी संभावनाएं कम हो जाती हैं।
बीजेपी के लिए माना जा रहा है कि इस बार वहां 75-100 विधायकों के टिकट काटे जा सकते हैं। इसकी बड़ी वजह बीजेपी की खुद की ताक़तवर यानी ‘डबल इंजन’ की सरकार होना है। इसका मतलब बीजेपी के तीन सौ से ज़्यादा विधायकों और 70 सांसदों में से ज़्यादा के ख़िलाफ़ लोगों में स्थानीय स्तर पर नाराज़गी है। माना यह जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जोड़ी तो शानदार और जिताऊ है, लेकिन स्थानीय विधायकों के ख़िलाफ़ नाराज़गी का खामियाज़ा उसे उठाना पड़ सकता है, इसलिए विधानसभा टिकटों में आपको नए चेहरे दिखाई पड़ेंगे।
नेतृत्व से नाराज़गी को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने उत्तराखंड में दो बार मुख्यमंत्री के चेहरे बदले तो गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपाणी समेत पूरे के पूरे मत्रिमंडल की शक्ल ही बदल दी गई। कर्नाटक में भी मुख्यमंत्री बदल दिया गया। यानी ना काहू से दोस्ती... सिर्फ़ जीतना ज़रूरी है।
टिकट काटने की एक और बड़ी वजह यह भी है कि यदि चुनावी इतिहास को देखा जाए तो पुराने विधायकों की वापसी मुश्किल होती है। साल 2017 यूपी विधानसभा चुनाव में 78 फ़ीसदी नए चेहरे थे, 314 विधायक पहली बार विधानसभा पहुंचे थे। उस बार केवल 58 विधायक दोबारा चुन कर आए थे।
पिछली बार जिन 162 विधायकों ने फिर से चुनाव लड़ा, उनमें से सिर्फ़ 12 फीसदी चुन कर आए। यानी अनुभव जीत की गारंटी नहीं है।
अब अगर बात जाति की राजनीति की करें तो चुनावी गणित को आसानी से समझा जा सकता है। यूपी में 53 फीसदी वोट पिछड़े वर्ग का है, इनमें करीब पचास जातियां आती हैं। यूपी में 11 फीसदी यादव हैं जो ओबीसी का कुल बीस फीसदी है। 43 फीसदी गैर यादव वोटर हैं। 13 जिलों में मौर्य और कुशवाहा जातियों की तादाद बहुत है। क़रीब आठ फीसदी मौर्य और सात फीसदी कुर्मी और पटेल हैं। छह फीसदी कुशवाहा, शाक्य, सैनी और तीन फीसदी लोध जाति के वोटर हैं। क़रीब 20 फीसदी मुसलिम आबादी है।
राजनीतिक विश्लेषकों की राय को माना जाए तो यह चुनाव करीब-करीब 1993 के विधानसभा के माहौल में पहुँच गया है। हालाँकि इस बार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच कोई गठबंधन नहीं है, लेकिन राजनीतिक माहौल कमोवेश वैसा ही है।
भारतीय जनता पार्टी अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू करने और काशी विश्वनाथ में कॉरिडोर का उद्घाटन करने के साथ हिन्दूत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ना चाहती है। उसे समझ आता है कि सामाजिक ध्रुवीकरण का जवाब धार्मिक या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से दिया जा सकता है और अखिलेश यादव उस ध्रुवीकरण को सामाजिक जोड़ से तोड़ना चाहते हैं यानी कुल मिलाकर मंडल- कमंडल की लड़ाई है, लेकिन इस बार हम मंडल की राजनीति से थोड़ा आगे बढ़ गए हैं जिन जातियों को मंडल के वक़्त शामिल किया गया, उनमें से सिर्फ़ कुछ जातियों को ही राजनीतिक और सत्ता की हिस्सेदारी मिली, इसलिए अब दूसरी छोटी आबादी वाली जातियाँ भी अपना अपना हिस्सा हासिल करना चाहती हैं, जिसे राजनीति की भाषा में सोशल इंजीनियरिंग कहा जाता है।
पिछले चुनावों में बीजेपी ने इस सोशल इंजीनियरिंग पर काम किया और गैर यादव-गैर जाटव जातियों को अपने साथ जोड़ कर सरकार तो बना ली, लेकिन उनको शायद उस हिसाब से हिस्सेदारी नहीं मिली या फिर उन्हें इस बात का अहसास नहीं हुआ कि वे इस सरकार के शेयर होल्डर हैं तो अब वो दूसरी पार्टियों के पॉलिटिकल स्टॉक एक्सचेंज में शेयर की खरीदारी कर रहे हैं।
याद कीजिए साल 1993, दिसम्बर 1992 में बाबरी मसजिद गिरने और फिर बीजेपी सरकारों को बर्खास्त करने के बाद माहौल उनके पक्ष में था। तब उस चुनाव में बीजेपी को 177, समाजवादी पार्टी को 109, बहुजन समाज पार्टी को 67, कांग्रेस को 28 और जनता दल को 27 सीटें मिली थीं यानी समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन की 176 से एक ज़्यादा 177 सीटें लीं। इसके बावजूद मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बन गए, कांग्रेस और जनता दल ने उनका साथ दिया और नारा चला “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”।
उस चुनाव के मुक़ाबले बीजेपी और समाजवादी पार्टी दोनों ने अपनी ताक़त बढ़ाई है और बीएसपी कमोबेश अब भी अपने वोट बैंक के साथ हाथी पर बैठी है। फिर कोरोना काल में वर्चुअल रैलियाँ और आए दिन कोरोना से पीड़ित होते नेताओं के बीच यह लड़ाई ज़्यादा मुश्किल है। लगता है कि राजनीतिक दल अभी से चुनाव के बाद की राजनीति पर भी काम करने लग गए हैं। कड़कड़ाती सर्दी के बीच ओपिनियन पोल पर कुहासा दिखाई देता है, लेकिन जब मार्च में धूप चमकने लगेगी तो असल तसवीर दिखाई देगी।