भारत की संसद में "झूठ" कहना अब असंसदीय हो गया है। मंत्रीगण असत्य कहें—कोई बात नहीं। लेकिन आप उन्हें “झूठा” कह देंगे, तो आप ही सदन की मर्यादा के दोषी ठहराए जाएँगे। आपसे कहा जाएगा—"कृपया असत्य कहें, झूठ मत कहें।"
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे - "सत्य बिना जनतंत्र सिर्फ धूर्तों का शासन होता है।"
लेकिन यहीं से शुरू होती है उस विडंबना की कहानी, जिसमें लोकतंत्र की सबसे पवित्र संस्था—संसद—झूठ, भ्रम और आधे-अधूरे तथ्यों का मंच बनती जा रही है।
एक के बाद एक, असत्य पर असत्य
बीजेपी और एनडीए के कई नेता, जिनमें मंत्री और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, बार-बार ऐसे दावे करते रहे हैं जो या तो अर्धसत्य होते हैं या सिरे से ग़लत। चुनावी रैलियों में यह चल सकता है—लेकिन जब वही झूठ संसद में बोले जाते हैं, तब बात गंभीर हो जाती है। क्योंकि संसद केवल बहस का नहीं, बल्कि जवाबदेही का मंच है।वक्फ संशोधन विधेयक इसका ताज़ा और चुभता हुआ उदाहरण है। इस बिल को पारित कराने के लिए केंद्र सरकार और बीजेपी नेताओं ने संसद से लेकर मीडिया तक जो असत्य प्रचार किया, वह गूंजता रहा। फिर भी लोकसभा अध्यक्ष मौन बने रहे। क्या यह लोकतंत्र की परंपराओं का अपमान नहीं?
झूठ पर ताली, सवाल पर आपत्तिः इस विधेयक को पास कराने के लिए जिस तरह की बातें सदन में कहीं गईं, वह ना सिर्फ ऐतिहासिक तथ्यों से टकराती हैं, बल्कि संविधान की आत्मा से भी। केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू का संसद में यह कहना कि “अगर संशोधन न होता तो संसद भवन भी वक्फ संपत्ति घोषित हो सकता था”—सिर्फ तथ्यात्मक रूप से ग़लत नहीं, बल्कि डर फैलाने की कोशिश थी। इसका कोई ऐतिहासिक, कानूनी या संवैधानिक आधार नहीं है। फिर भी लोकसभा अध्यक्ष ने इसपर कोई आपत्ति नहीं जताई। क्या यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं का क्षरण नहीं है?
आज ज़रूरत है उन ऐतिहासिक उदाहरणों को याद करने की, जब संसद की गरिमा को सर्वोपरि माना गया था। जब झूठ बोलने पर सत्ता का मोह नहीं, संसद की प्रतिष्ठा को प्राथमिकता दी गई थी। सत्तारूढ़ दलों ने अपने ही सांसदों का निष्कासन स्वीकार किया था।
पहला मामला: राम सेवक यादव (1976)
यह वाकया सन 1976 का है। इंदिरा गांधी की सरकार में, उनकी ही पार्टी कांग्रेस के सांसद राम सेवक यादव पर आरोप लगा कि उन्होंने अपनी शैक्षणिक योग्यता को लेकर झूठ बोला। चुनावी हलफनामे में उन्होंने दावा किया कि उन्होंने B.A. किया है, जबकि उनके पास ये डिग्री नहीं थी। संसद की प्रिविलेज कमेटी ने उनके निष्कासन की सिफारिश की। लोकसभा अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी ने कहा—“संसद की गरिमा अक्षुण्ण रहनी चाहिए, चाहे सदस्य सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का।” तब कांग्रेस के पास भारी बहुमत था। वह चाहती तो, इसको रोक सकती थी। लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रिविलेज कमेटी की रिपोर्ट का समर्थन किया और अपनी ही पार्टी के सांसद का निष्कासन होने दिया। 24 मार्च 1976 को, राम सेवक यादव को स्थायी रूप से निष्कासित कर दिया गया।
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी (तत्कालीन जनसंघ के नेता, जो बाद में भाजपा के संस्थापक सदस्यों में रहे) ने इस मामले को “संसदीय मर्यादा का गंभीर उल्लंघन” बताते हुए कहा था कि “जो सदस्य संसद को जानबूझकर ग़लत जानकारी देता है, वह संसद को धोखा देता है। यह किसी भी लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं हो सकता। हमें ऐसे व्यवहार को सख्ती से निपटना चाहिए।”
दूसरा मामला: महाचंद्र प्रसाद सिंह (1978)
बिहार के प्रभावशाली नेता और जनता पार्टी सांसद महाचंद्र प्रसाद सिंह पर आरोप था कि उन्होंने फर्जी हस्ताक्षर करके नकली दस्तावेज़ों के आधार पर संसद में ज़मीन का मामला उठाया। जांच के बाद 15 दिसंबर 1978 को उन्हें भी स्थायी रूप से निष्कासित कर दिया गया। तब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई थे और उनकी सरकार में जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री और लाल कृष्ण आडवाणी सूचना और प्रसारण मंत्री। तब वाजपेयी-आडवाणी ने इसे संसदीय लोकतंत्र की शुचिता से जुड़ा मामला बताते हुए कहा था कि - "अगर संसद को ईमानदार रखना है, तो ऐसे मामलों में कठोर कार्रवाई जरूरी है। संसद की मर्यादा बनाए रखने के लिए नियम सभी पर समान रूप से लागू होने चाहिए।" वाजपेयी ने कहा था कि “लोकतंत्र तभी टिक सकता है, जब संसद सत्य और नैतिकता के सिद्धांतों पर खड़ी हो।”
पार्टी विद डिफरेंस इज नॉट डिफरेंटः जो दल कभी संसद की मर्यादा का पहरेदार था, आज उसकी नज़र में मर्यादा बहुमत से तय होती है। आज वही पार्टी—भाजपा—जो कभी संसदीय नैतिकता की मिसालें देती थी, उसी के मंत्री अब उसी संसद में मर्यादा को धता बता रहे हैं। पार्टी विद डिफरेंस का दावा करने वाली वाजपेयी-आडवाणी की भाजपा ने अपने ही मूल्यों से मुंह मोड़ लिया है।
‘उम्मीद’ या ‘गुमराह’? वक्फ संशोधन बिल पर बढ़ता विवाद
बीजेपी सरकार ने वक्फ संशोधन बिल (Unified Wakf Management Empowerment, Efficiency & Development Act - 1995) को 'उम्मीद' नाम दिया और एनडीए की मदद से दोनों सदनों में पारित भी करा लिया, लेकिन इसके बाद भी विवाद थम नहीं रहा। दो मुस्लिम नेता सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुके हैं। जदयू और एनडीए के कुछ अन्य घटक दलों में भी असहमति की आवाज़ें तेज़ हो रही हैं क्योंकि मुस्लिम नेताओं के बीच गहरी नाउम्मीदी और नाराज़गी है।
विपक्ष लगातार सवाल पूछ रहा हैः क्या सरकार ने इस बिल को पास कराने के लिए जानबूझकर देश को गुमराह किया? क्या मंत्रियों ने सदन में झूठ बोला?
मिसइन्फॉर्मेशन नंबर 1:
“वक्फ के पास सबसे ज्यादा ज़मीन है” — सच या भ्रमजाल?
केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में दावा किया कि भारत में वक्फ संपत्तियां सेना और रेलवे के बाद तीसरे नंबर पर हैं—करीब 8.7 लाख संपत्तियां और 9.4 लाख एकड़ भूमि, जिसकी कीमत लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये है।
- · सच ये है कि भारत के कुल 3.29 अरब एकड़ भूमि क्षेत्र में सभी धार्मिक न्यासों का हिस्सा मात्र 1-2% से भी कम है।
- · मंदिरों, मठों और हिंदू ट्रस्टों के पास अनुमानतः 20-25 लाख एकड़ जमीन है।
- · केवल दक्षिण भारत में ही धार्मिक न्यासों के पास 10 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन है (कपिल सिब्बल के अनुसार)।
- · वक्फ संपत्तियां मुख्य रूप से मस्जिदों, दरगाहों, कब्रिस्तानों और स्कूलों के लिए होती हैं।
- · ऐसी ही संपत्तियां ईसाई चर्च, सिख गुरुद्वारे, बौद्ध मठ और जैन मंदिरों के पास भी हैं—कुल मिलाकर करीब 5-10 लाख एकड़ तक।
मिसइन्फॉर्मेशन नंबर 2
“संसद भवन भी वक्फ जमीन हो सकता था” — डर की राजनीति?2 अप्रैल 2025 को रिजिजू ने दावा किया—"अगर ये संशोधन न होता, तो संसद को भी वक्फ संपत्ति माना जा सकता था।"यह बयान तथ्यों के विपरीत है। भारतीय संसद भवन की जमीन ब्रिटिश शासन की क्राउन प्रॉपर्टी थी, जो 1947 में भारत सरकार को हस्तांतरित हुई। 2023 में बना नया संसद भवन भी सरकारी जमीन पर ही है। उससे पहले बदरुद्दीन अजमल ने भी दावा किया कि संसद भवन और एयरपोर्ट वक्फ ज़मीन पर हैं, लेकिन दिल्ली वक्फ बोर्ड ने इसे खारिज कर दिया। कांग्रेस के गौरव गोगोई ने मंत्री रिजिजू के दावों का जोरदार खंडन करते हुए रिजिजू पर "भ्रामक बयान" देने का आरोप लगाया और उन्हें अपने दावों को सत्यापित करने की चुनौती दी।मिसइन्फॉर्मेशन नंबर 3
“वक्फ बोर्ड ज़मीन जब्त कर सकता था” — कानून का तोड़-मरोड़?सरकार ने दावा किया कि पहले वक्फ बोर्ड किसी भी जमीन को अपनी घोषित कर सकता था—अब ये प्रावधान हटा दिया गया है। लेकिन वक्फ अधिनियम 1995 पहले से ही यह कहता है कि वक्फ बोर्ड केवल ऐतिहासिक स्वामित्व वाले मामलों में ही दावा कर सकता है। बिना दस्तावेज़ के कोई ज़मीन जब्त नहीं की जा सकती।वक्फ संपत्तियां दान से आती हैं, जो एक बार 'अल्लाह के नाम पर वक्फ' हो गईं, तो बेचने या ट्रांसफर करने योग्य नहीं होतीं। सुप्रीम कोर्ट भी 1998 में कह चुका है—"Once a wakf, always a wakf."मिसइन्फॉर्मेशन नंबर 4 “वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसलों के खिलाफ अपील नहीं हो सकती” — संसद में झूठ? केन्द्रीय गृह मंत्री और अल्पसंख्यक मंत्री ने कहा कि वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसलों के खिलाफ कोई अपील नहीं हो सकती। कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी ने इसे संसद में "झूठ" करार दिया। वक्फ अधिनियम की धारा 83(9) के तहत ट्रिब्यूनल के फैसलों को हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है—और वक्फ बोर्ड खुद कई मामलों में कोर्ट में लड़ रहा है।
मिसइन्फॉर्मेशन नंबर 5
“यह बिल मुस्लिम महिलाओं को सशक्त करेगा” — सशक्तिकरण या दिखावा?सरकार का दावा है कि यह संशोधन मुस्लिम महिलाओं, खासकर पसमांदा समुदाय को वक्फ बोर्ड में शामिल करने और सशक्त बनाने के लिए लाया गया है। लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे ने याद दिलाया कि 2013 के संशोधन में ही यूपीए सरकार ने वक्फ बोर्ड में 2 मुस्लिम महिलाओं की अनिवार्य भागीदारी का प्रावधान कर दिया था—जिसे बीजेपी ने उस वक्त संसद में समर्थन भी दिया था।असली मंशा—नियंत्रण?
खड़गे ने कहा कि यह बिल सुधार के लिए नहीं, नियंत्रण के लिए लाया गया है। यह न सिर्फ वक्फ संपत्तियों पर, बल्कि संवैधानिक लोकतंत्र के मूल विचार पर हमला है। बीजेपी नेताओं ने दिल्ली की 123 संपत्तियों को लेकर भी वक्फ पर निशाना साधा, जबकि यह मामला पहले से ही न्यायिक जांच के अधीन है। वक्फ संशोधन विधेयक को जिस तरीके से पारित कराया गया, वह इसी गिरावट का परिचायक है।संसद में झूठ बोलना—क्या है नियम, और क्या होती है कार्रवाई?
वक्फ बिल पर मंत्रियों के भ्रामक बयानों के बीच यह जानना ज़रूरी है कि संसद के भीतर जानबूझकर झूठ बोलना सिर्फ नैतिक नहीं, संवैधानिक उल्लंघन भी है।लोकसभा के नियम 353 और राज्यसभा के नियम 261 के तहत, अगर कोई मंत्री या सांसद सदन को जानबूझकर गुमराह करता है, तो उसके खिलाफ माफ़ी की मांग, निलंबन या प्रिविलेज मोशन लाया जा सकता है।व्यवहारिक सच्चाई कुछ और
राम सेवक यादव और महाचंद्र सिंह जैसे पुराने मामलों को छोड़ दें, तो हाल के वर्षों में सत्ता पक्ष के नेताओं के खिलाफ ऐसे मामलों को या तो दबा दिया गया, या नजरअंदाज किया गया।
- 2023 में अडानी समूह को लेकर संसद में दिए गए सरकारी जवाबों को RTI ने गलत साबित किया—लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
- 2019 में राफेल डील पर अरुण जेटली के बयानों को विपक्ष ने झूठा बताया, लेकिन सत्ताधारी बहुमत के चलते जांच तक नहीं हो सकी।
- 2016 में स्मृति ईरानी की शैक्षणिक डिग्री पर सवाल उठे, लेकिन कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं हुई।
- लेकिन जब मामला विपक्ष का आता है—जैसे 2023 में महुआ मोइत्रा—तो प्रिविलेज कमेटी ने सीधे निष्कासन तक की सिफारिश कर दी।
'उम्मीद' या 'राजनीतिक भ्रम'?
सरकार कहती है—यह विधेयक "उम्मीद" है। और यह विधेयक पारदर्शिता और सुधार लाएगा। लेकिन जिस तरह से तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया, संसद में असत्य बोले गए, और वक्फ बोर्ड की शक्तियों को संदेह के घेरे में रखा गया—वह लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों के बीच भरोसे की खाई को और गहरा करता है। क्या यह सचमुच 'उम्मीद' है—या एक राजनीतिक एजेंडा जिसे झूठ और भ्रम के सहारे संसद में पारित करवा दिया गया?सच यह है कि यह विधेयक "विश्वास" को तोड़ता है—और लोकतंत्र में सबसे बड़ा अपराध यही है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि "संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, वह एक नैतिक दृष्टिकोण है। अगर संसद में नैतिकता न रहे, तो संविधान का कोई अर्थ नहीं।"संसद में झूठ बोलना यदि माफ़ कर दिया जाए, तो फिर सच बोलने की क्या कीमत रह जाएगी?
लेकिन मौजूदा संसद में क्या झूठ बोलने की सजा सिर्फ विपक्ष के लिए है?
क्या लोकसभा और राज्यसभा के नियम सत्ता पक्ष के लिए लागू नहीं होते?
तो सबसे बड़ा सवाल: क्या अब संसद में झूठ बोलना ‘नया नॉर्मल’ बन चुका है?