आपने अकसर चैनल मालिकों और संपादकों को यह कहते हुए सुना होगा कि रिमोट तो दर्शकों के हाथ में है, पसंद उनकी है, वे चाहें तो कोई चैनल देखें या न देखें। लेकिन क्या यह इतनी सीधी सी बात है क्या यह सचमुच में दर्शकों के हाथ में है कि वे चाहें तो किसी चैनल या कोई ख़ास तरीक़े की सामग्री को ठुकरा या स्वीकार कर सकते हैं
वास्तव में उनकी यह दलील इतनी भोली नहीं है, इस समझाइश में कई तरह के पेंच हैं, जिन्हें समझना ज़रूरी है। पहली बात तो यह है कि ये दर्शकों के सिर पर ठीकरा फोड़ने जैसा है। वे कहना चाहते हैं कि ग़लती दर्शकों की है और चैनल जो कर रहे हैं उसमें कोई खामी नहीं है। ऐसा कहकर मालिक-संपादक अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश भी करते हैं। वे दर्शकों की शिकायतों को दरकिनार करते हुए कहना चाहते हैं कि हम तो ठीक कर रहे हैं और इसी तरह से चैनल चलाएँगे आपको देखना हो देखो, न देखना हो न देखो। यह एक तरह से ख़ुद के सही होने का या सही साबित करने का उपक्रम है। इसमें अहंकार भी छिपा हुआ है और दर्शकों की शिकायतों को न समझने की ज़िद भी।
चैनलों के सर्वेसर्वा संचालक बाज़ारवाद की इस अवधारणा से प्रभावित-संचालित हैं कि बाज़ार अपने उपभोक्ताओं को च्वाइस देता है यानी उन्हें चुनने का मौक़ा देती है। यानी अगर आपको एक उत्पाद पसंद नहीं है तो आप दूसरा, तीसरा या कोई और ले सकते हैं। इसी आधार पर कंज्यूमर इज़ द किंग का जुमला जमकर इस्तेमाल किया जाता है। यानी बाज़ार का राजा तो उपभोक्ता है, वही तय करता है कि क्या चलेगा और क्या नहीं। साबुन-तेल के बाज़ार के आधार पर इस तरह की पसंद-नापसंद का फंडा चलाया जाता रहा है। लेकिन वहाँ भी मामला केवल गुणवत्ता का नहीं होता, बल्कि आपूर्ति और मार्केटिंग का होता है।
देखने में अपनी पसंद की चीज़ चुनने का अधिकार एक आकर्षक विचार है। अब अगर किसी भी दर्शक के पास एक दर्ज़न से ज़्यादा चैनलों (हालाँकि केवल हिंदी में ही 70 से अधिक चैनल हैं) में से मनपसंद चैनल चुनने का अधिकार है तो ज़ाहिर है कि बाज़ार उसे विकल्प दे रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर दर्शक उन विकल्पों को नहीं आज़मा रहा है तो समस्या दर्शकों की है न कि चैनलों या बाज़ार की, क्योंकि उन्होंने तो अपना काम कर दिया।
लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर यदि सारे चैनल कमोबेश एक जैसे हों, एक ही तरह की सामग्री परोस रहे हों, उनमें केवल पैकेजिंग का फ़र्क हो तो भी क्या सचमुच में उन्हें विकल्प माना जा सकता है
नहीं माना जा सकता और यही हालत हम टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों की देख रहे हैं। इस मामले में भी टीआरपी ने खलनायक की भूमिका निभाई है।
बाज़ार ने टीआरपी का इस्तेमाल करके न्यूज़ चैनलों की सामग्री को कुछ फ़ॉर्मूलों में बांध दिया है। न्यूज़ चैनल बाज़ार से बँधे हुए हैं, वे स्वतंत्र नहीं हैं कि बिल्कुल अलग तरह की सामग्री गढ़ें। ऐसा करना उनके लिए ख़तरनाक हो सकता है। वे दर्शकों को खींचने की जंग में पिछड़ सकते हैं और उन्हें भारी आर्थिक नुक़सान उठाना पड़ सकता है।
टीआरपी ट्रेंड का असर
ये हम पिछली कड़ियों में स्पष्ट कर चुके हैं कि टीआरपी कुछ ट्रेंड तय करती है और सारे के सारे चैनल उन्हीं ट्रेंड के पीछे भागने को मजबूर हो जाते हैं। इसीलिए हम पाते हैं कि कमोबेश सारे चैनलों की सामग्री एक जैसी है। पैकेजिंग अलग-अलग हो सकती है, मगर उसके अंदर का माल एक जैसा ही है। सारे चैनल एक ही तरह की ख़बरों को चुनते हैं, उनका ट्रीटमेंट भी एक जैसा होता है और यहाँ तक कि प्रस्तुतिकरण भी। प्राइम टाइम पर होने वाली बहसों के विषय, फ़ॉर्मेट और मेहमान तक लगभग एक जैसे ही होते हैं।
वास्तव में चैनलों का बाहुल्य तो है, विविधता नहीं। आप संख्या गिना सकते हैं, उनमें फ़र्क नहीं दिखा सकते। हिंदी न्यूज़ चैनलों में यदि आप देखें तो पाएँगे कि सिवाय एनडीटीवी के सब एक जैसे हैं। लेकिन एनडीटीवी अलग होने की सज़ा भी भुगत रहा है। वह अच्छे चैनल के रूप में पहचाना भले ही जाता हो मगर दर्शक संख्या के मामले में बहुत पीछे खिसक चुका है।
कहने का मतलब यह है कि जब सब चैनल एक जैसे होंगे तो फिर च्वाइस कहाँ रह जाती है दर्शक रिमोट का इस्तेमाल करके एक चैनल से दूसरे चैनल पर जाता है तो उसे ख़बरों से लेकर विज्ञापन तक सब एक जैसा ही मिलता है।
केवल एंकर बदल जाते हैं और चैनल का रंग-रूप बस। न्यूज़ चैनलों के हमारे मालिक-संपादक इसी को विविधता कहते हैं
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाज़ार उपभोक्ता की पसंद के हिसाब से उत्पाद ही नहीं बनाता, बल्कि वह उनकी पसंद का निर्माण भी करता है। टीवी न्यूज़ के मामले में भी उसने यही किया है और टीआरपी की इसमें ज़बर्दस्त भूमिका रही है। उसने दर्शकों की टीवी देखने की आदतों को बिल्कुल बदल डाला है।
यह एक भ्रांति है कि दर्शक गंभीर सामग्री नहीं देखना चाहता, उसे तो बस हल्की-फुल्की मनोरंजक सामग्री ही रास आती है। दो दशक पहले जब न्यूज़ चैनल नहीं थे या उसके बाद जब एक-दो ही चैनल थे तो सामग्री का स्तर इतना घटिया नहीं था और उस समय दर्शक गंभीर सामग्री देख रहे थे। दूरदर्शन पर निजी निर्माता न्यूज़ बुलेटिन प्रस्तुत कर रहे थे और लोग उन्हें सराह रहे थे। उनमें आज की तरह का हल्कापन नहीं था। लेकिन बाद के दौर में ऐसा क्या हुआ कि वे एकदम से उस तरह की सामग्री से विमुख हो गए
वीडियो में देखिए, टीवी चैनलों ने कैसे किया टीआरपी घोटाला
वास्तव में वे विमुख नहीं हुए थे, उन्हें कर दिया गया और यह काम बाज़ार ने बहुत ही योजनाबद्ध ढंग से किया। न्यूज़ चैनलों को अपने दर्शकों-उपभोक्ताओं का विस्तार करना था। मार्केट रिसर्च ने उन्हें बताया कि महिलाएँ बहुत बड़ी उपभोक्ता हैं और उन्हें जोड़ा जाना चाहिए। अध्ययन से यह भी पता चला कि उनके पास दोपहर का वक़्त होता है और वे मनोरंजन, ख़ास तौर पर टीवी धारावाहिकों को पसंद करती हैं। लिहाज़ा सास बहू की साज़िशों वाले धारावाहिकों की कतरनों पर आधारित कार्यक्रम शुरू हो गए।
लेकिन इससे चैनलों का पेट नहीं भर रहा था, लिहाज़ा उन्होंने मनोरंजन चैनलों की ऑडिएंस को निशाना बनाना शुरू किया। इस क्रम में ख़बरों का मनोरंजनीकरण तेज़ हुआ।
मनोरंजन के लिए चैनलों के पास सबसे बड़ा ज़रिया फ़िल्में हैं, इसलिए वे फ़िल्म उद्योग से जुड़ गए, उसके द्वारा फेंके गए टुकड़ों को परोसने लगे, उनके पीआर के काम आने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। बुलेटिन में मनोरंजन की ख़बरें ही नहीं बढ़ीं, बल्कि ख़बरों को मनोरंजक बनाकर दिखाने का चलन भी बढ़ गया।
इसी तरह ज्योतिष, अंध विश्वासों और कर्मकांडों का भी एक बड़ा बाज़ार विकसित हो गया। बाबा लोग चैनलों को पैसे देकर कार्यक्रमों का हिस्सा बनने लगे। उनका ज्ञान, उनकी नाटकीयता टीआरपी भी देने लगी, लिहाज़ा चैनलों ने उन्हें दिन में कई बार दिखाना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि वैज्ञानिक घटनाओं में भी उनकी शिरकत सुनिश्चित की जाने लगी।
एक बाज़ार क्रिकेट का भी था। इस बाज़ार को आईपीएल ने नई ऊँचाईयाँ तो दी हीं, दर्शकों को भी खींचा। इसने चैनलों के सामने अपने दर्शकों को बचाने की चुनौती पेश कर दी। लिहाज़ा, चैनलों ने क्रिकेट की सामग्री भरनी शुरू कर दी। दर्शकों को अज्ञानी बनाए रखने का एक और सिलसिला इसी तरह बढ़ता चला गया।
इस तरह बाज़ार के अर्थशास्त्र और टीआरपी ने मिलकर दर्शकों को ऐसी सामग्री परोसनी शुरू कर दी निहायत ही घटिया थी और उन्हें दिमाग़ी तौर पर पिछड़ा बनाने वाली थी। लगभग दो दशकों के लगातार प्रयास के बाद न्यूज़ चैनल दर्शकों को उस स्तर तक गिराने में कामयाब हो गए जहाँ वे उसी घटिया सामग्री को स्वादिष्ट समझने लगे, उसकी उन्हें लत लग गई। मगर इसको इस तरह से प्रस्तुत नहीं किया जाता। कहा जाता है कि दर्शक ही बुद्धू है, उसे ऐसी ही सामग्री चाहिए, इसलिए हम वही बनाते हैं।
साफ़ है कि रिमोट दर्शकों के नहीं बाज़ार के हाथों में है और वह दर्शकों को उस रिमोट से संचालित कर रहा है, उनका इस्तेमाल कर रहा है। इसलिए ये महाझूठ है कि दर्शकों के पास विकल्प हैं मगर वे उनका इस्तेमाल नहीं करते।
(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)