बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मीडिया से जुड़े मामलों पर सुनवाई के दौरान दोनों जगहों पर चैनलों के नियमन के मुद्दे पर दिलचस्प टिप्पणियाँ कोर्ट की ओर से की गईं। सुप्रीम कोर्ट ने न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन यानी एनबीए (जो कि नेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड एसोसिएशन यानी एनबीएसए का हिस्सा है) को लगभग फटकारते हुए कहा कि आप करते क्या हैं, क्या आपका वजूद केवल लेटर हेड पर है। साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट एनबीए के नकारेपन से बुरी तरह निराश और नाराज़ है।
इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत मामले में किए गए मीडिया ट्रायल की सुनवाई के दौरान बॉम्बे हाईकोर्ट ने एनबीए की क्लास लगाई। न्यूज़ चैनलों की ओर से पक्ष रखते हुए एनबीए ने कहा कि उसके द्वारा बनाया गया आत्म-नियमन का तंत्र अच्छे से काम कर रहा है और कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। इस पर कोर्ट ने कहा कि ‘एक मशहूर हस्ती की मौत के कवरेज में चैनलों ने तमाम नियमों को धता बता दिया। ये कौन सी खोजी रिपोर्टिंग है जिसमें चीख-चीखकर बताया जाता है कि ये आत्महत्या नहीं हत्या थी। आप ही जाँचकर्ता बन जाते हैं, आप ही सुनवाई करते हैं और फिर आप ही फ़ैसला सुना देते हैं, तो फिर हमारी ज़रूरत क्या है।’
वास्तव में आत्म-नियमन को लेकर हर स्तर पर ढेर सारे सवाल उठ रहे हैं। आत्म-नियमन के लिए बने संगठनों ने पिछले एक दशक में ऐसा कुछ भी करके नहीं दिखाया जिससे लगे कि वे कुछ कर सकते हैं। हाँ, जब भी न्यूज़ चैनलों के कंटेंट पर सवाल उठाए जाते हैं तो वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा उठाकर उसके बचाव में ज़रूर खड़े हो जाते हैं। वे उन छोटे-मोटे क़दमों का आत्ममुग्धता के साथ ज़िक्र करने लगते हैं जिनका कोई असर चैनलों पर नहीं पड़ रहा है, इसलिए उनके औचित्य पर ही बड़ा सा सवालिया निशान लगा हुआ है।
दरअसल, बहुत से लोग या तो खुशफ़हमी में हैं या फिर वे जान-बूझकर यथास्थिति को बरक़रार रखना चाहते हैं कि आत्म-नियमन से न्यूज़ चैनलों को सुधारा जा सकता है, उसके ज़रिए टीआरपी की वज़ह से पैदा होने वाले दुष्प्रभावों को रोका या नियंत्रित किया जा सकता है। अब ये संगठन किसी स्वतंत्र नियामक का विरोध करते हुए कुछ नए उपायों की बात करने लगे हैं। इससे भ्रम फैल रहा है कि किसी नियामक की ज़रूरत नहीं है और मीडिया, ख़ास तौर पर न्यूज़ चैनल ख़ुद को सुधारने में सक्षम हैं, बस कुछ छोटे-मोटे उपाय करने की ज़रूरत है।
ये वही लोग हैं जो पहले दावे करते थे कि न्यूज़ चैनलों में कोई बहुत ज़्यादा समस्या नहीं है और जैसे-जैसे वे शैशव-काल से वयस्कता की अवस्था में पहुँचेंगे, ज़िम्मेदार होते जाएँगे। ज़ाहिर है कि या तो उन्हें पता नहीं था कि ये बच्चे कुपोषण और ग़लत पैरेंटिंग के शिकार हो रहे हैं और बड़े होकर वे अपराधी बनेंगे या फिर जान-बूझकर अनजान बने हुए थे। इनमें से एक बड़ी तादाद उन लोगों की थी जो चैनलों में शीर्ष पदों पर थे और वही सब कर रहे थे जिसको रोकने की माँग चारों तरफ़ से उठ रही थीं।
कोई रियलिटी शो तो कोई कुंजीलाल को दिखा रहा था, किसी चैनल को स्वर्ग की सीढ़ियाँ मिल गई थीं, कोई नाग-नागिन की शादी करवा रहा था, कोई दूसरे ग्रह के वासियों को खोजकर ला रहा था तो किसी चैनल पर कोई पानी पर चलने का चमत्कार दिखा रहा था। किसी ने अपराधों की ड्रामाई प्रस्तुति का फ़ॉर्मूला खोज लिया था तो कोई ज्योतिषियों से दर्शकों को भरमा रहा था। और निर्मल बाबा तो ख़ैर सभी चैनलों पर कृपा बरसा ही रहे थे।
यानी वे एक तरह का पाखंड कर रहे थे। संभव है कि ये पाखंड बेबसी के कारण पैदा हुआ हो, क्योंकि वे भले ही अंदर से कंटेंट में सुधार चाहते हों, मगर उनकी मार्केटिंग टीम और मालिक टीआरपी चाहते थे, इसलिए फ़ॉर्मूलेबाज़ी पर टिका रहना उनके अपने वजूद के लिए ज़रूरी बन चुका था। उन्हें मोटी तनख्वाह वाली अपनी नौकरी प्यारी थी, इसलिए वे बाहर कुछ और बोलते थे और न्यूज़रूम में उनका व्यवहार कुछ और होता था।
यह कड़वी सचाई है कि जब न्यूज़ चैनलों के बीच गला काट प्रतिस्पर्धा शुरू हुई और टीआरपी ने अपना जलवा दिखाना शुरू किया तो मीडिया में हाहाकार मच गया। इस हाहाकार को सब सुन रहे थे और सबको दिख रहा था कि टीवी न्यूज़ कहाँ जा रही है। मगर सब लीपा-पोती में लगे रहे।
वे सरकारी हस्तक्षेप का हौवा तो खड़ा करते थे, मगर ख़ुद कोई कारगर पहल नहीं करते थे। चूँकि इमरजेंसी और सरकारी सेंसरशिप का डर मीडिया पर इतना काबिज़ था कि लोग डरकर आत्म-नियमन के छलावे के साथ खड़े हो जाते थे।
वास्तव में आत्म-नियमन भी एक तरह से बदलाव की माँग को दबाने या उससे ध्यान बँटाने का अस्त्र बन गया था। उस समय न्यूज़ चैनलों के शीर्ष पदों पर बैठे लोग हर शुक्रवार को आने वाली टीआरपी से आतंकित तो रहते थे और उनमें से कुछ को ये ग्लानि भी होती होगी कि पत्रकारिता छोड़कर भाँडगीरी करनी पड़ रही है, मगर प्रभावी संपादक की छद्म छवि को बचाए रखने के लिए और यह भी दिखाने के लिए वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सच्चे प्रहरी हैं, उन्होंने आत्म-नियमन का मोर्चा खोल रखा था। वे भली-भाँति समझ रहे थे कि कोई चैनल आत्म-नियमन को मानने के लिए तैयार नहीं है और कंटेंट दिनोंदिन गटर में जा रहा है मगर कोई जोखिम भरी पहल करने से घबराते थे।
आत्म-नियमन का भ्रम
आत्म-नियमन के भ्रम को बनाए रखने में पत्रकारों और न्यूज़ चैनलों के संपादकों के संगठनों की बड़ी भूमिका रही है। ख़ास तौर पर ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन और नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की। ये दोनों संगठनों ने बीच-बीच में कुछेक एडवायज़री जारी करके और उनकी आंशिक सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर यह बताया कि बस सब कुछ ठीक होने वाला है। लेकिन इन्हीं के सदस्य विपरीत व्यवहार करने में लगे थे। इनमें वे भ्रष्ट संपादक और प्रसारक भी शामिल थे, जो अपने धतकरमों की वज़ह से तिहाड़ जेल भी गए।
ऐसा नहीं है कि इन्हें बाज़ार की भूमिका और ताक़त का अनुमान नहीं था। वे सब बख़ूबी जानते थे, मगर खुद बाज़ारवाद के हिमायती थे। उन्हें पता था कि अगर चैनलों को विज्ञापनदाताओं की ज़रूरत है तो विज्ञापनदाताओं को टीआरपी की इसलिए टीआरपी तो बंद नहीं होगी। मगर जब भाषण देते थे तो कहते थे टीआरपी बंद हो जानी चाहिए या तीन अथवा छह महीने में आनी चाहिए क्योंकि हर हफ़्ते आने से पत्रकारों पर प्रेशर पड़ता है।
ये लोग कभी स्वामित्व के दोषपूर्ण ढाँचे की बात नहीं करते थे, उसके निहित स्वार्थों और उनको पूरा करने के लिए डाले जाने वाले दबावों की बात नहीं करते थे। करते भी कैसे जल में रहकर मगरमच्छ से बैर कौन लेता है।
प्रिंट मीडिया के लिए भारतीय प्रेस परिषद 1966 से काम कर रही है। वह एक तरह से आत्म-नियमन के लिए बनाई गई थी, मगर पूरा मीडिया उद्योग जानता है कि वह अपने घोषित उद्देश्यों को हासिल करने में आंशिक तौर पर भी कामयाब नहीं रही है। एक तो उसकी संरचना ही ऐसी है कि उसमें कड़े फ़ैसले लेने की गुंज़ाइश नहीं है। पेड न्यूज़ पर बनी कमेटी की रिपोर्ट को जिस तरह से दबाया गया, वह इसका जीता-जागता उदाहरण है। दूसरे, उसके पास न नाख़ून हैं और न दाँत, इसलिए पत्र-पत्रिकाएँ उसकी परवाह ज़्यादा नहीं करतीं।
प्रेस परिषद की इस नाकामी से पत्रकारों और न्यूज़ चैनलों को सबक़ लेना चाहिए था। उन्हें समझना चाहिए था कि ऐसी संस्थाओं से कुछ हासिल नहीं होगा। उनके सामने पूरी दुनिया में आत्म-नियमन के काम न करने के ढेरों उदाहरण मौजूद थे, मगर वे आँखें बंद किए हुए थे।
कुछ ही साल पहले ब्रिटेन में रुपर्ट मर्डोक की पत्रिका न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड के आपराधिक व्यवहार के बाद जस्टिस लेवसन की कमेटी ने जो रिपोर्ट दी थी वह भी सबके सामने थी। रिपोर्ट ने बताया था कि वहाँ आत्म-नियमन करने वाली संस्था कैसे बुरी तरह फेल हुई। इस कमेटी ने इसीलिए कड़े नियमन की सिफ़ारिशें की थीं। मगर भारतीय मीडिया ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया और ऐसे ही ढीले-ढाले नियमन के बचाव की कोशिश करता रहा।
कुछ साल पहले ट्राई ने टीवी उद्योग में कंटेंट के नियमन के लिए ढेर सारी सिफ़ारिशें दी थीं। इनमें संपादकीय और प्रबंधन के बीच उसने लौह-परदे की सिफ़ारिश भी शामिल थी। मगर उस समय की मनमोहन सरकार ने मीडिया की नाराज़गी के भय से उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था। सैम पित्रोदा की कमेटी ने भी एक रिपोर्ट दी थी, मगर उस पर भी ग़ौर नहीं किया गया। यहाँ तक कि संसदीय कमेटी की रिपोर्ट भी आई थी, मगर सरकारें चुप रहीं।
मीडिया और सरकार
मीडिया की तरफ़ से होने वाले प्रतिरोध से सरकारें हमेशा ख़ौफ़ खाती हैं, जो कि अच्छी बात भी है और बुरी भी। सरकारी हस्तक्षेप न हो यह अच्छी बात है, मगर मीडिया उत्पात मचाता रहे, अराजक हो जाए, यह बुरी बात है। लेकिन अगर सरकार स्वतंत्र नियामक की बात करती तो शायद उतना विरोध न होता या यह काम सर्वोच्च अदालत के निर्देशों से उसकी निगरानी में होता तो और भी अच्छा होता।
वर्तमान सरकार का रवैया तो और भी बुरा है। वह तो अदालतों में मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर ज़हर फैलाने वाले एंकरों और चैनलों का बड़ी ही बेशर्मी से बचाव कर रही है। वह ऐसा क्यों कर रही है यह भी सबको समझ में आ रहा है। जब न्यूज़ चैनल उसके एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहे हैं, उसके लिए प्रोपेगेंडा मशीनरी की तरह काम कर रहे हैं, तो भला वह उन पर लगाम लगाने की कोशिशों को सहयोग क्यों देगी लिहाज़ा, उससे कोई उम्मीद रखना ही बेकार है।
बहरहाल, आत्म-नियमन के पैरोकारों ने इस सबके बावजूद हथियार नहीं डाले हैं और कुछ नए सुझाव देने लगे हैं। इनमें से एक है कि संपादक का कार्यकाल तय कर देने का।
उनके मुताबिक़ संपादक का कार्यकाल कम से कम तीन या पाँच साल के लिए निश्चित कर दिया जाए ताकि वह बिना किसी दबाव के काम कर सके। यह ऐसा बचकाना सुझाव है कि इस पर हँसने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता। सीधी सी बात है कि इस नियम का पालन करने के लिए अगर मालिक किसी मैनेजर छाप पत्रकार को ही संपादक बना देगा, तब क्या होगा (वैसे अभी भी यही हो रहा है) प्रबंधन के पास ऐसी समस्याओं से निपटने के सौ तरीक़े होते हैं, ये कौन नहीं जानता।
'आशुतोष की बात' में देखिए, टीवी चैनलों ने कैसे किया घोटाला
एक स्वतंत्र नियामक की चर्चा बहुत अरसे से चल रही है। मौजूदा परिस्थितियों में अब वही एक रास्ता बचा हुआ है। संवैधानिक दर्जा प्राप्त एक अधिकार संपन्न, समझदार नियामक स्थितियों को बेहतर बनाने की दिशा में काम कर सकता है। सभी चैनल उसके दायरे में आएँ और उसके पास कड़े दंड देने के अधिकार हों तभी न्यूज़ चैनल अनुशासित हो सकते हैं। फ़िलहाल केवल 70 न्यूज़ चैनल ही एनबीए के सदस्य हैं, जिसका मतलब है कि बाक़ी चैनलों पर उसका कोई वश नहीं है। रिपब्लिक टीवी उसका सदस्य नहीं है, बल्कि एक बार दंडित होने पर अर्णब गोस्वामी ने एक नया संगठन नेशनल ब्रॉडकास्टिंग फेडरेशन ही बना डाला है।
हालाँकि एक अच्छा नियामक भी बीमारी का कोई पक्का निदान नहीं है, क्योंकि वह टीआरपी नामक बीमारी को रोक नहीं सकता। जब तक बाज़ार टीआरपी के ज़रिए कंटेंट को तय करता रहेगा, गुणात्मक बदलाव असंभव है।
फिर दूसरे पक्ष पर तो बात ही नहीं की जा रही है। वह पक्ष है सरकार की ओर से पड़ने वाले दबाव का। न्यूज़ चैनलों की स्थिति केवल टीआरपी ने ही नहीं ख़राब की है। इसके लिए सरकार भी ज़िम्मेदार है, बल्कि उससे भी ज़्यादा ज़िम्मेदार है। एक निरंकुश सरकार की दख़लंदाज़ी को रोकने वाला कोई नियामक इस देश में फ़िलहाल बन पाएगा, ऐसा असंभव दिखता है।
(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)