देश में इस समय संभाजी को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है। इस पर राजनीति भी शुरू हो गई है। यह सारा विवाद छावा फिल्म की वजह से हुआ। छावा फिल्म बनाने वाले इस विवाद की वजह से कमाई कर रहे हैं, क्योंकि लोग फिल्म देखने जा रहे हैं। लेकिन इस वजह से धार्मिक समुदायों के बीच बहस भी छिड़ गई है। राजनीतिक लोग इसमें धार्मिक ध्रुवीकरण के मौके तलाश रहे हैं। इन हालात में कम से कम संभाजी का सही इतिहास जानना बहुत जरूरी है। संभाजी और औरंगजेब के बीच जो युद्ध हुआ, उसकी असलियत क्या थी। फिल्म बनाने वाले इतिहास को अपनी तरह तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं लेकिन इतिहास को तो उसी रूप में पेश करना होगा। तोड़ना-मरोड़ना क्यों।
छावा फिल्म दरअसल औरंगजेब और संभाजी के बीच क्या हुआ उस पर विस्तार से रोशनी डालती है लेकिन हकीकत वो नहीं है जो आपको पर्दे पर नजर आती है। औरंगजेब और संभाजी के बीच विवाद कतई धार्मिक नहीं था बल्कि ये दो राजाओं के बीच सत्ता की लड़ाई थी। जिससे छावा फिल्म के निर्माताओं ने धर्म की चाशनी में डुबोकर पेश किया है। संभाजी की असली कहानी मूर्त रूप लेती है सन् 1678 में।
एक दिन महाराष्ट्र में तैनात औरंगजेब के विश्वस्त सरदार दिलेर खान के पास खबर आई कि एक मराठा दल उनकी और बढ़ रहा है और उनके इरादे सुलह के हैं। दिलेर खान यह सुनकर हैरान हुआ और उसने जानना चाहा कि ये कौन लोग हैं तो उसे मालूम पड़ा कि दल का मुखिया दरअसल शिवाजी का बड़ा बेटा संभाजी है और वह अपनी पत्नी और कुछ साथियों के साथ मुगलों से शरण चाहता है। संभाजी की 13 दिसंबर 1678 को दिलेर खान से मुलाकात हुई। दिलेर खान ने तुरंत ये खबर बादशाह औरंगजेब के पास भेजी। औरंगेजब ने संभाजी को 7 हजार का मनसब देकर मुगल सेना में शामिल कर लिया और साथ ही उसे राजा की उपाधि भी दी।
अब सवाल उठता है कि शिवाजी की उनके बड़े बेटे से अनबन क्यों हुई...इसकी भी वजह थी। इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने इसे विस्तार से बताया है। जदुनाथ ने अपनी किताब शिवाजी एंड हिज टाइम्स के पेज नंबर 323 पर लिखा- शिवाजी का बड़ा बेटा उनके लिए मुश्किल बन चुका था। 21 साल का यह लड़का अस्थिर और विचारहीन था। शिवाजी ने दुर्व्यवहार की एक शिकायत के बाद उसे पन्हाला किले में नजरबंद कर दिया। लेकिन संभाजी वहां से अपनी पत्नी येसु बाई और कुछ भरोसेमंद साथियों के साथ भाग गया।
शिवाजी के लिए संभाजी का ये कदम परेशान करने वाला था। शिवाजी ने उम्मीद नहीं छोड़ी और गुपचुप संभाजी को मनाने की कोशिशें जारी रखीं। शिवाजी को घर के अंदर बढ़ते मतभेदों से बहुत मुश्किल हो रही थी। मराठा किंगडम का एक धड़ा संभाजी और दूसरा धड़ा उसके भाई राजाराम, जो अभी सिर्फ 10 साल का था, की ओर था। प्रस्ताव हुआ कि मराठा साम्राज्य हो दो हिस्सों में बांट दिया जाए लेकिन ये प्रस्ताव परवान नहीं चढ़ सका।
विवाद की जड़ क्या थीः दरअसल शिवाजी की कुल 8 पत्नियां थीं। जदुनाथ सरकार ने किताब शिवाजी एंड हिज टाइम्स के पेज 341 पर इन सभी पत्नियों के नाम उनके शिवाजी से विवाह की तारीख और शिवाजी के बच्चों की जानकारी को विस्तार से वर्णन किया है।
जदुनाथ पेज 341 पर लिखते हैं- शिवाजी की पहली पत्नी साई बाई से 14 मई 1657 को सबसे बड़े बेटे संभाजी का जन्म हुआ। जबकि दूसरी पत्नी का नाम सोयरा बाई था जिससे छोटे बेटे राजा राम का 24 फरवरी 1670 में जन्म हुआ। आगे चलकर इन्हीं दो बेटों को केंद्र में रखते हुए मराठा साम्राज्य में दो धड़े बन गए।
यकायक हालात बदले और शिवाजी का 4 अप्रैल 1680 को निधन हो गया। उनकी जगह राजा बनते ही संभाजी ने अपनी सौतेली मां सोयरा बाई जो राजा राम की मां थी, को सजा देने के आदेश दिए। उनपर शिवाजी को जहर देकर मारने का आरोप लगा। लेकिन सबसे पुरानी मराठी भाखर सभासद इस बारे में खामोश है। ऐसा माना जाता है कि संभाजी ने सिंहासन के बंटवारे की पूर्व की कोशिशों की नाराजगी के चलते ऐसा किया।
संभाजी ने व्यापारियों को लूटा
संभाजी का भी सपना था कि वह अपने पिता शिवाजी की तरह महान बने। शिवाजी की मौत के बाद संभाजी ने उनसे एक कदम आगे निकलने की ठान ली। इसी कड़ी में उसने 15 फरवरी 1680 को बुरहानपुर से सिर्फ दो किलोमीटर दूर बहादुरपुर पर हमला बोल दिया। यह अमीर इलाका था। यहां कई बड़े व्यापारी और हुंडी वाले रहते थे। पैसा, आभूषण और अन्य महंगा सामान पूरी दुनिया से यहां आता और जाता था। सांभाजी ने एक और कस्बे हफ्दापुरा पर हमला किया। हमला इतना तेज था कि कोई एक दाम तक नहीं बचा सका और न ही लोग अपने बच्चों और बीवियों को बचा सके।
बुरहानपुर में 3 दिन तक हुई लूटपाटः सांभाजी की सेना लूटपाट करती रही। लोगों ने अपने बच्चे बीवियों को किले के अंदर पहुंचा दिया। तीन दिन तक लूटपाट जारी रही। लूट से भारी पैसा सांभाजी के हाथ आ गया। इसमें से काफी पैसा किसी अनजान जगह छिपा दिया गया। संभाजी ने बहुत सा सामान लूटा था लेकिन इतने भारी सामान को वो नहीं ले जा सकते थे इसलिए सिर्फ सोने, चांदी और आभूषणों को छोड़कर बाकी सामान सड़कों पर डालकर जला दिया गया।
औरंगजेब भड़का
बुरहानपुर के लोगों ने सारा वाकया औरंगजेब को लिखा और बताया कि किस तरह उनकी सुरक्षा करने में शाही सेना असफल रही। औरंगजेब ने क्रोधित होकर वहां के सरदार से सारे खिताब वापस ले लिए साथ ही खुद दक्कन जाने का विचार बनाया। दरअसल दक्कन जाने की औरंगजेब के पास दो वजह थीं, पहली उसने विद्रोही बेटे अकबर का दक्कन भाग जाना और दूसरी संभाजी को काबू कर अव्यवस्था फैलने से रोकना। औरंगजेब ने 1681 में अपने शासन के 25वें साल में दक्कन कूच कर दिया।
ईद की नमाज के बाद दक्कन निकला औरंगजेब 11 जिलकदा को बुरहानपुर पहुंचा। बुरहानपुर में औरंगजेब ने 3-4 महीने गुजारे। जब औरंगजेब महाराष्ट्र के औरंगाबाद इलाके में पहुंचा तो शहजादे मुअज्जम को कोंकण में संभाजी के खिलाफ कार्रवाई के लिए भेजा। करीब 7-8 साल तक संभाजी और मुगलों के बीच लुकाछिपी और छापामार हमलों का दौर चलता रहा। आखिकार साल सन् 1689 में मुगलों की सफलता हासिल हुई।
संभाजी कैसे पकड़े गए
दरअसल कोल्हापुर से करीब 72 किलोमीटर दूर संभाजी के करीबी मंत्री कवि कबकलश ने एक पहाड़ी इलाके के बीच सुंदर इमारतें बनवाई थीं। संभाजी कबकलश की इन इमारतों और उस इलाके की खूबसूरती का आनंद उठाने के लिए वहां पहुंचे। परिवार और कुछ सैनिकों के साथ पहुंचे संभाजी नहाने के बाद वहां की विशाल पहाड़ियों को देखने लगे। कहा जाता है कि संभाजी अपने पिता शिवाजी की तरह उतने सतर्क नहीं रहते थे।
संदेशवाहकों ने उन्हें मुगल सरदार मुकर्रब खान के आने की खबर दी लेकिन संभाजी ने नाराज होकर कहा कि मुगल यहां तक नहीं पहुंच सकते। संभाजी ने उस संदेशवाहक की जीभ कटवा दी। संभाजी ने अपने धोड़े को तैयार रखना भी जरूरी नहीं समझा। दूसरी ओर मुगल सरदार मुकर्रब खान अपने साथ दो हजार घुड़सवार और एक हजार पैदल की पैदल सेना के साथ तेजी से कैंप की ओर बढ़ रहा था। उसके पास जानकारी आई कि रास्ते बेहद ऊंचे और नीचे हैं और अगर तीस चालीस लोग चाहें तो ऊपर से पत्थर लुढ़काकर पूरी सेना का रास्ता रोक सकते हैं।
मुगल सरदार ने ऐसी किसी बात पर ध्यान नहीं दिया। उसने मार्च जारी रखा। मुगल सेना जब वहां पहुंची तो संभाजी का परिवार उस इलाके का आनंद लेने में व्यस्त था। कैंप पहुंचते ही मुकर्रब खान अपने बेटों, भतीजों, कुछ जांबाज साथियों और करीब दो हजार घुड़सवारों के साथ सांभाजी पर टूट पड़ा। संभाजी अब अपनी और कबकलश की सुरक्षा करने में समर्थ नहीं थे।
उसका मंत्री कबकलश काफी दिलेर और चालाक बताया जाता था। कबकलश ने संभाजी को बचाने की हर चंद कोशिश की और अपने साथियों के साथ शाही सेना से जा भिडा। लड़ते वक्त उसकी सीधी बांह में एक तीर आकर लगा। जिससे उसकी एक बांह बेकार हो गई।
कई मराठा सरदार मार डाले गए बाकी भाग गए और कबकलश को बंदी बना लिया गया। संभाजी एक हवेली में जाकर छिप गए। लेकिन वहां से उन्हें खोज निकाला गया। उनके बच्चों और परिवार को बंदी बना लिया गया। आदमी और पुरुष कुल 26 लोगों को बंदी बनाया गया।
ऐसे पहचाने गए संभाजी हालांकि संभाजी ने इस बीच मुगलों से बचने के लिए अपनी दाढ़ी काट ली, मुहं पर राख लगा ली लेकिन अपने कपड़ों में छिपे मोतियों के हार व उनके घोड़े के पैर में पड़े सोने के कड़े से पहचान लिए गए। मुकर्रब खान ने उन्हें अपने पीछे ही हाथी पर बिठा लिया दूसरे कैदियों को अन्य हाथियों और घोड़ों पर ले जाया गया।
औरंगजेब को मिला समाचार औरंगजेब को पहले अपने जासूसों से यह जानकारी मिल फिर बाद में संदेश आया। औरंगजेब को जब यह मालूम पड़ा कि मुकर्रब संभाजी को लेकर आगे बढ़ रहा है तो उसने अकलुज (बीजापुर और पुणे के बीच आधी दूरी पर, नीरा नदी के दक्षिण में) जहां वह ठहरा हुआ था वहां से दो कोस दूर पर उसे लेने के लिए के लिए सरदारों को भेजा।
मुगल सरदार के आने पर औरंगजेब ने एक दरबार लगाया और उन कैदियों को वहां लाया गया। उन्हें देखकर औरंगजेब अपने तख्त से नीचे उतरा और उसने शुकराने की दो रकात नमाज अदा की। ये कहा जाता है कि संभाजी के वजीर कबकलश जिसके बांह, हाथ और गर्दन सब बंधे थे, जो कविता में माहिर था, यह देखकर उसने संभाजी की ओर मुखातिब होकर कहा –आलमगीर सारी भव्यता, ताकत के बावजूद तुम्हारे सम्मान में नीचे उतर आया। इन व्यंग्यबाणों से नाराज औरंगजेब ने दोनों को जिंदा रखने की सलाह को नजरअंदाज कर दिया।
संभाजी का कत्ल
खफी खान ने मुंतखाब उल लुबाब में लिखा – बादशाह औरंगजेब के साथ मौजूद कई सरदारों की राय ये थी कि इन दोनों से नौकरों के जरिए किलों की चाबियां मंगवा ली जाएं और इन्हें किसी किसी किले में कैद रखा जाए लेकिन संभाजी और कबकलश को ये यकीन हो चला था कि उनकी जान नहीं बख्शी जाएगी इसलिए दोनों बादशाह और बादशाह के अमीरों के लिए जो भी मन में था कह दिया।जिससे नाराज होकर औरंगजेब ने संभाजी और कबकलश कड़ी सजा के आदेश दिए। दोनों का 11 मार्च 1689 को कत्ल कर दिया गया। फिर कुछ महिलाएं जिनमें संभाजी की मां और बेटियां भी थीं दौलताबाद के किले में भेजी गईं।