शेहला रशीद जैसों का मुक़दमा बंद तो उमर ख़ालिद जैसे जेल में क्यों?

09:30 pm Mar 03, 2025 | सत्य ब्यूरो

क्या क़ानून सबके लिए एक जैसा है? कुछ दिनों पहले दिल्ली पुलिस ने जेएनयू की पूर्व छात्र नेता शेहला रशीद के ख़िलाफ़ 2019 में दर्ज देशद्रोह का मुक़दमा वापस ले लिया। लेकिन उसी जेएनयू से निकले उमर खालिद पिछले चार साल से जेल में बंद हैं। यह अंतर क्यों? इस सवाल ने लोगों के बीच बहस छेड़ दी है।

शेहला रशीद की कहानी 2019 से शुरू होती है। उस साल कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद शेहला ने ट्वीट्स की एक श्रृंखला में सेना पर गंभीर आरोप लगाए थे। उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ। लेकिन 2025 में दिल्ली कोर्ट ने पुलिस को यह केस वापस लेने की इजाजत दे दी। लोग पूछ रहे हैं कि क्या यह उनकी हालिया राजनीतिक नज़दीकियों का नतीजा है? शेहला अब सक्रिय राजनीति से दूर हैं और कई बार सत्तारूढ़ दल की तारीफ़ करती दिखी हैं।

शेहला की पीएम मोदी की ऐसी तारीफ़ों के बीच ही 2024 में लोकसभा चुनाव से पहले सोशल मीडिया पर यह चर्चा शुरू हो गई थी कि क्या वह बीजेपी में शामिल होंगी। हालाँकि, वह बीजेपी में शामिल नहीं हुईं, लेकिन वह लगातार बीजेपी की तारीफ़ करती हुई बयान देती रही हैं। 

लोकसभा चुनाव से पहले शेहला रशीद ने एक पोस्ट में लिखा था, 'मुझे याद है कि 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा को सुरक्षा मुद्दों की वजह से पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया था। आज का तथ्य यह है कि प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान हम 5जी, ब्रॉडबैंड को एक्सेस कर सकते हैं और सोशल मीडिया कैंपेन चला सकते हैं। यह शांति और सुरक्षा के संदर्भ में एक बड़ी उपलब्धि है। आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि यह कितना बड़ा बदलाव है, यदि आपको यह नहीं मालूम कि उस समय कैसा था।'

उससे पहले 2023 में भी शेहला ने एएनआई से बातचीत में पीएम की तारीफ़ करते हुए कहा था कि पीएम मोदी आलोचना से परेशान नहीं होते हैं। उन्होंने कहा था, 'फ़िलहाल, हम वास्तव में नेक इरादे वाला प्रशासन देख रहे हैं। प्रधानमंत्री आलोचना की परवाह नहीं करते। वह एक निस्वार्थ व्यक्ति हैं जो राष्ट्रीय हित के लिए काम करते हैं।' पहले वह जेएनयू के दिनों से पीएम मोदी की कड़ी आलोचक रही थीं। 

हार्दिक पटेल

इसी तरह, गुजरात के पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल की कहानी भी चर्चा में रही। 2015 में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के दौरान हार्दिक पर देशद्रोह और हिंसा भड़काने के कई मामले दर्ज हुए थे। बाद में वह कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन 2022 में जब वह बीजेपी में शामिल हुए तो गुजरात सरकार ने उनके ख़िलाफ़ सारे मामले वापस ले लिए। हार्दिक अब बीजेपी के टिकट पर विधायक हैं। उनकी रिहाई और मुक़दमों की वापसी ने कई सवाल खड़े किए—क्या यह राजनीतिक वफादारी का इनाम था?

विपक्ष के तमाम ऐसे नेता रहे हैं जिनके ख़िलाफ़ पहले कई तरह के मुक़दमे चले, लेकिन बीजेपी में शामिल होने के बाद या तो उनके ख़िलाफ़ दर्ज मुक़दमे वापस ले लिए गए या फिर उनको ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

पिछले साल ऐसे दो दर्जन नेताओं को लेकर एक ऐसी रिपोर्ट आई थी। इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट दी थी कि  2014 के बाद से कथित भ्रष्टाचार के लिए केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का सामना कर रहे विपक्ष के 25 नेता बीजेपी में शामिल हुए और उनमें से 23 को राहत मिल गई। उनके ख़िलाफ़ जाँच या तो बंद हो गई या ठंडे बस्ते में चली गई। इनमें से 10 कांग्रेस से हैं, एनसीपी और शिवसेना से चार-चार, टीएमसी से तीन, टीडीपी से दो और समाजवादी पार्टी और वाईएसआरसीपी से एक-एक नेता शामिल थे।

अजित पवार से लेकर शुभेंदु अधिकारी तक

महाराष्ट्र में एनसीपी नेता अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल, पश्चिम बंगाल के नेता शुभेंदु अधिकारी, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण जैसे नेता शामिल हैं। अजित पवार के ख़िलाफ़ पहले बीजेपी ने जमकर आरोप लगाए और कई मुक़दमे उनपर लादे गए। शरद पवार से अलग होकर जैसे ही अजित पवार बीजेपी के नेतृत्व वाली महायुति का हिस्सा बने, उनके और प्रफुल्ल पटेल के ख़िलाफ़ मुक़दमे बंद हो गए।

शुभेंदु अधिकारी इस समय पश्चिम बंगाल में बीजेपी के कद्दावर नेता और नेता प्रतिपक्ष हैं। ममता सरकार में मंत्री रहे शुभेंदु से सीबीआई ने शारदा घोटाला मामले में पूछताछ की थी। टीएमसी आरोप लगाती रही है कि जब अधिकारी टीएमसी में थे तो जांच एजेंसियां उन्हें परेशान करती थीं लेकिन बीजेपी में जाते ही उन्हें क्लीन चिट मिल गई।

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को 2014 में सारदा चिटफंड घोटाले में सीबीआई की पूछताछ और छापेमारी का सामना करना पड़ा था, लेकिन 2015 में उनके बीजेपी में शामिल होने के बाद से उनके ख़िलाफ़ मामला आगे नहीं बढ़ा है। अशोक चव्हाण पिछले साल बीजेपी में शामिल हो गए थे, जबकि आदर्श हाउसिंग मामले में सीबीआई और ईडी की कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट की रोक लगी हुई है।

उमर खालिद का कसूर क्या?

जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद की कहानी बिल्कुल अलग है। 2020 के दिल्ली दंगों से जुड़े एक मामले में उन्हें यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया। पुलिस का आरोप है कि उमर ने दंगे भड़काने की साजिश रची थी। चार साल बाद भी उनका मुक़दमा शुरू नहीं हुआ। उनकी जमानत याचिकाएं कड़कड़डूमा कोर्ट, दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचीं, लेकिन हर बार खारिज हो गईं। कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ प्रथम दृष्टया सबूत हैं। लेकिन आलोचकों का कहना है कि सबूत कमजोर हैं और यह राजनीतिक प्रतिशोध का मामला है।

ऐसे ही कुछ और नाम हैं। दिल्ली दंगों में शामिल बताए गए खालिद सैफी और शरजील इमाम भी जेल में रहे। वहीं, सीएए विरोधी प्रदर्शनों में सक्रिय रहीं देवांगना कलिता और नताशा नरवाल को पिछले साल जमानत मिल गई।

इन मामलों में एक पैटर्न दिखता है— कुछ लोग जेल में हैं, कुछ बाहर। लेकिन अंतर का आधार क्या है?

कानून के जानकार बताते हैं कि यूएपीए जैसे सख्त कानूनों में जमानत मिलना मुश्किल होता है। इसमें कोर्ट को यह देखना होता है कि आरोप प्रथम दृष्टया सही हैं या नहीं। उमर खालिद के मामले में वॉट्सऐप चैट्स और गवाहों के बयानों को सबूत माना गया। लेकिन शेहला और हार्दिक के मामलों में सरकार ने खुद मुक़दमे वापस लेने का फैसला किया, जिसके लिए कोर्ट की मंजूरी ली गई। यह सरकार की मर्जी पर निर्भर करता है कि वह किन मामलों को आगे बढ़ाए और किन्हें छोड़े।

सोशल मीडिया पर लोग इसे दोहरा मापदंड कह रहे हैं। दूसरी ओर, कुछ का कहना है कि हर मामला अलग है- शेहला के खिलाफ सबूत कमजोर थे, जबकि उमर के मामले में दंगों की गंभीरता शामिल है।

लेकिन सच्चाई क्या है? शेहला और हार्दिक जैसे लोगों के मुक़दमे वापस लेने का फ़ैसला सरकार की नीति और राजनीतिक परिस्थितियों से जुड़ा दिखता है। वहीं, उमर खालिद जैसे लोग जेल में इसलिए हैं क्योंकि उनके मामले यूएपीए जैसे क़ानूनों से बंधे हैं, जहां जमानत की राह मुश्किल है। ये मामले सिर्फ कानून की बात नहीं, बल्कि सत्ता, विचारधारा और समाज के बदलते रंगों की कहानी भी बयां करते हैं।

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है।)