जैसा कि फ़िल्म 'द केरल स्टोरी' को विरोध का सामना करना पड़ रहा है, फिल्म के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह ने शुक्रवार को उस टीज़र को हटाने पर सहमति जताई है जिसमें दावा किया गया था कि केरल की 32,000 से अधिक महिलाओं को आईएसआईएस में भर्ती किया गया था। उन्होंने आज केरल उच्च न्यायालय को बताया कि टीज़र को उनके सोशल मीडिया खातों से हटा दिया जाएगा।
इसके साथ ही केरल उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को सिनेमाघरों में रिलीज हुई विवादित फिल्म 'द केरल स्टोरी' की रिलीज पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। फिल्म के निर्माता ने अदालत को आश्वासन दिया कि वे अपने सोशल मीडिया हैंडल पर विवादास्पद टीज़र को आगे प्रदर्शित नहीं करेंगे। फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने के लिए उच्च न्यायालय में अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई थीं।
न्यायमूर्ति एन. नागेश और न्यायमूर्ति सोफी थॉमस की खंडपीठ ने टीज़र को हटाने की निर्माता की दलील को मान लिया। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार फ़िल्म की रिलीज पर रोक लगाने से इनकार करते हुए कोर्ट ने कहा कि फ़िल्म केवल 'सच्ची घटनाओं से प्रेरित' कहती है। पीठ ने यह भी कहा कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सीबीएफ़सी ने फिल्म को लोगों के देखने के लिए प्रमाणित किया है। पीठ ने फिल्म का ट्रेलर भी देखा और कहा कि इसमें किसी विशेष समुदाय के लिए कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। पीठ ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं में से किसी ने भी फिल्म नहीं देखी है और निर्माताओं ने एक डिस्क्लेमर जोड़ा है कि फिल्म घटनाओं का एक काल्पनिक संस्करण है।
क़ानून से जुड़े मामलों की रिपोर्ट करने वाली न्यूज़ वेबसाइट के अनुसार न्यायमूर्ति नागेश ने अंतरिम आदेश देने से इंकार करते हुए मौखिक रूप से कहा, 'बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नाम की कोई चीज होती है। उनके पास कलात्मक स्वतंत्रता होती है, हमें उसे भी संतुलित करना होगा।'
उन्होंने कहा, फिल्म में ऐसा क्या है जो इस्लाम के खिलाफ है? किसी धर्म के खिलाफ कोई आरोप नहीं है, बल्कि केवल आईएसआईएस संगठन के खिलाफ है।'
कोर्ट ने सुनवाई के दौरान यह भी कहा, 'ऐसी कई फिल्में हैं जिनमें हिंदू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी के रूप में दिखाया गया है। कोई कुछ नहीं कहता। आपने ऐसी फिल्में हिंदी और मलयालम में देखी होंगी। केरल में हम इतने धर्मनिरपेक्ष हैं। एक फिल्म थी जहां एक पुजारी एक मूर्ति पर थूकता है। और कोई समस्या पैदा नहीं हुई। क्या आप कल्पना कर सकते हैं? यह एक प्रसिद्ध पुरस्कार विजेता फिल्म है'।
याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा कि 'आज फिल्म का प्रभाव लोगों के दिमाग पर किताबों की तुलना में कहीं अधिक है। इससे गंभीर सार्वजनिक कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है। दवे ने कहा, 'मैं भी स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक हूं, लेकिन अगर स्वतंत्रता से निर्दोष लोगों के दिमाग में जहर घोलने और सार्वजनिक व्यवस्था को ख़तरा होने की संभावना है, तो ऐसी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।' दवे ने अदालत से मामले की जांच करते समय बंधुत्व के संवैधानिक आदर्श को ध्यान में रखने का आग्रह किया। उन्होंने कहा, 'समाज में भाईचारा बहुत महत्वपूर्ण है, यह बुनियादी ढांचे का हिस्सा है'।
अदालत ने टिप्पणी की कि फिल्म ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है, यह केवल एक कहानी है, जिस पर दवे ने जवाब दिया, 'कृपया देखें कि कहानी का उद्देश्य क्या है। इसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को खलनायक के रूप में चित्रित करना है। इक्का-दुक्का घटनाओं को सच बनाकर फिल्म नहीं बनायी जा सकती है।'
वरिष्ठ अधिवक्ता जॉर्ज पूनथोट्टम ने तर्क दिया कि फ़िल्म का विषय केरल को सभी आतंकवादी गतिविधियों के केंद्र के रूप में पेश करना है। हालाँकि अदालत ने कहा कि यह एक काल्पनिक कहानी है। इसने कहा, 'केवल इसलिए कि कुछ धार्मिक प्रमुखों को ग़लत तरीके से दिखाया गया है, यह फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का आधार नहीं हो सकता है।
फिल्म निर्माता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता रवि कदम ने कहा कि उन्होंने एक डिस्क्लेमर डाला है और कहा है कि यह काल्पनिक है। न्यायमूर्ति नागेश ने कदम से पूछा कि उन्हें 32,000 महिलाओं के धर्मांतरण का आंकड़ा कहां से मिला। कदम ने जवाब दिया कि नंबर उस जानकारी पर आधारित थे जो निर्माताओं को मिली थी; हालाँकि, वह टीज़र को हटाने के लिए सहमत हो गये, जिसमें इस आँकड़े का दावा किया गया था।