कोरोना की मार से अब तक दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं उबरी नहीं हैं और अभी उनके सामने नई चुनौतियां आती जा रही हैं। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के मुताबिक हर देश की अपनी समस्या है और एक बात तो पक्की है कि हर ओर मंदी की छाया है।
भारत में अभी मंदी की आहट तो सुनाई दे रही है लेकिन वह इतनी तेज नहीं है कि उस पर ध्यान जाये। उसकी समस्या दूसरी है। उसका व्यापार घाटा बुरी तरह बढ़ रहा है। इस साल जून महीने में हमारा व्यापार घाटा बढ़कर 25.63 अरब डॉलर हो गया जो बजट के चालू खाते के घाटे को और बढ़ाएगा। लेकिन इसका बड़ा असर भारतीय मुद्रा पर पड़ेगा तथा यह और नीचे गिरती जायेगी।
कच्चा तेल भारत की दुखती रग है और देश को इस पर सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण ओपेक देशों के मज़े आ गये हैं और उन्होंने इसका उत्पादन नियंत्रित कर दिया जिससे इसके भाव 112 डॉलर से भी ऊपर चले गये। यहां पर समस्या यह है कि भारत अपनी जरूरत का लगभग 80 फीसदी आयात करता है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2021-22 में भारत ने इसके आयात पर 119.2 अरब डॉलर खर्च किये हैं जबकि उसके पिछले साल उसने 62.2 अरब डॉलर का ही तेल आयात किया था। यह बहुत बड़ी राशि है और हमारे चालू खाते के घाटे पर भी असर डाल रहा है। लेकिन सिर्फ यही नहीं है हम खाने का तेल भी बड़े पैमाने पर आयात करते हैं। इसके लिए हम इंडोनेशिया, मलेशिया, युक्रेन पर निर्भर रहते हैं। यानी तेल हमारी सबसे बड़ी चिंता है।
लेकिन इस समय सरकार को कोयला भी बड़े पैमाने पर आयात करना पड़ रहा है। भारत में कोयले के भंडार बहुत हैं लेकिन उसकी क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है। इसलिए हमें आयात करना पड़ता है और इस साल ज्यादा ही करना पड़ा क्योंकि भयंकर गर्मी के कारण बिजली की मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। बिजली बनाने वाले संयंत्रों के पास कोयले की भारी कमी हो गई। इस पर इस साल 30 अरब डॉलर का खर्च हुआ जो निश्चित रूप से एक बड़ी राशि है।
लेकिन जिस चीज के आयात से सभी सरकारें परेशान रहती हैं वह है सोना। यह बहुमूल्य धातु भारतीयों का सबसे प्रिय है। क्या राजा, क्या रंक सभी इसके दीवाने हैं। यह ने केवल गहनों के लिए खरीदा जाता है बल्कि यह एक सुरक्षित निवेश भी है। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा सोना आयात करता रहा है, कभी-कभी चीन इससे आगे होता है लेकिन भारतीयों का सोने के प्रति मोह घटता ही नहीं है।
भारत हर साल औसतन 600 टन सोना आयात करता है। अकेले मई महीने में भारत ने 107 टन सोने का आयात किया। यह बहुत ज्यादा है और हमारे इम्पोर्ट बिल को हिला देने के लिए काफी है।
चूंकि सोने के दाम पिछले दो-तीन सालों से बढ़े जा रहे हैं इस कारण से उस पर खर्च होने वाली राशि भी बढ़ती जा रही है। इस समय सोना भारत में ही 53,000 रुपए प्रति दस ग्राम के आस-पास है और उस पर खर्च बढ़ रहा है। इसलिए सरकार ने इस पर टैक्स 10.75 फीसदी से बढ़ाकर 15 फीसदी कर दिया है। इसका नतीजा होगा कि इसकी तस्करी और बढ़ेगी। वैसे ही भारत में काफी सोना पड़ोसी देशों से तस्करी के जरिये आ रहा है। दुबई तो सोने की तस्करी का सबसे बड़ा अड्डा रहा है।
अब इतने बड़े पैमाने पर जब आयात होगा तो ज़ाहिर है कि व्यापार घाटा बढ़ेगा ही और यह पिछले महीने बढ़ ही गया और अगले महीने भी इसके बढ़ने की संभावना है। हालांकि भारत रूस से सस्ते दामों पर कच्चा तेल काफी खरीद रहा है लेकिन उसकी मात्रा कम है। फिलहाल रूसी तेल के टैंकर 8,000 किलोमीटर की दूरी तय करके आते हैं। इससे ट्रांसपोर्ट कॉस्ट भी बढ़ता है। जरूरी है कि ओपेक देश उत्पादन बढ़ाएं और इसके दाम गिरें। भारत जैसे देशों के लिए यह बड़ी समस्या है क्योंकि इससे हमारा राजस्व घाटा बढ़ता जा रहा है।
यह घाटा हमारी इकोनॉमी को काफी चोट पहुंचाएगा। सबसे पहले तो यह रुपये को चोट पहुंचा रहा है। वैसे भी इस समय डॉलर के आगे दुनिया भर की मुद्राएं पस्त हैं। सभी देशों की करेंसी उसके सामने गिर रही है। किसी समय उससे टक्कर लेने वाली मुद्रा यूरो आज 13 प्रतिशत नीचे है। कई देशों की मुद्राएं तो आधी रह गई हैं जैसे पाकिस्तान। इस मामले में अभी हमें थोड़ी ही चोट पहुंची है और रुपया डॉलर के मुकाबले 78 के आस-पास है।
महंगा होता डॉलर
डॉलर महंगा होने के कई कारण है लेकिन उसका असर भारत पर साफ दिखाई दे रहा है। रुपये में गिरावट से कच्चा तेल और महंगा पड़ेगा जिससे देश में चीजें महंगी होती जायेंगी। इस समय देश मंहगाई के दौर से गुजर रहा है और उसमें यह और आगे लगायेगी। लेकिन समस्या है कि रुपये को पुराने स्तर पर लाने के लिए रिजर्व बैंक को अपने मुद्रा भंडार से काफी रकम खर्च करनी होगी जो वर्तमान स्थितियों में एक अच्छा विकल्प नहीं है।
महंगाई भी तेजी से सिर उठा रही है और इस महीने आये आंकड़े चिंताजनक हैं। थोक मूल्य सूचकांक और खुदरा मूल्य सूचकांक दोनों ही ऊपर हैं जिनसे उपभाक्ताओं को चोट पहुंच रही है। इसका असर जीडीपी के विकास दर पर भी पड़ रहा है और यह जनवरी-मार्च में घटकर 4.1 फीसदी रह गई है।
इसे पटरी पर लाने के लिए जरूरी है कि देश में खपत बढ़े और उसके लिए जरूरी है कि कीमतें घटें। यह एक विरोधाभास है लेकिन उतनी ही सच भी।
इस बार के बजट में राजस्व घाटे को 6.4 फीसदी पर ही समेटे रखने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन यह होता नहीं दिख रहा है। जून के आंकड़ों से तो यही पता चलता है कि हमारा बजट घाटा सीमा से बाहर जा रहा है। मई में तो राजस्व घाटा लक्ष्य से कहीं आगे बढ़कर 12.3 फीसदी हो गया क्योंकि सरकार का इम्पोर्ट बिल बहुत बड़ा हो गया था।
अगर यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ तो महंगाई का एक दौर और आयेगा। और फिर रिजर्व बैंक रेपो रेट बढ़ाता जायेगा जिससे लोन महंगे हो जायेंगे। फिलहाल सरकार रूस से सस्ता तेल लेकर खर्च कम करने की कोशिश कर रही है। साथ ही विनिवेश करके कुछ अतिरिक्त धन जुटाने की कोशिश कर रही है।
बहरहाल स्थिति नियंत्रण में तो है लेकिन बड़ा खतरा मंडरा रहा है। सरकार को अभी काफी कुछ करना होगा। बजट घाटा बढ़ता जायेगा तो यह एक बड़ी समस्या होगी जिसका फल जनता को ही चखना पड़ेगा। इसका निदान तो अर्थशास्त्री ही बतायेंगे लेकिन यह तय है कि कच्चे तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतें जब तक कम नहीं होंगी तब तक ऐसे हालात बने रहेंगे। और कच्चे तेल की कीमतें तब तक कम नहीं होंगी जब तक रूस-यक्रेन युद्ध चलता रहेगा। युद्ध जितना लंबा होगा, अरब के शेखों के वारे-न्यारे होते जायेंगे और हमारी हालत बिगड़ी रहेगी।
(लेखक - नवभारत टाइम्स के संपादक रहे हैं)