पिछले 3 महीनों से इज़राइल द्वारा फ़िलिस्तीनियों के क़त्लेआम के ख़िलाफ़ पूरी दुनिया में लोग सड़कों पर हैं। सबका ध्यान हेग में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस पर लगा है जहाँ दक्षिण अफ़्रीका ने इज़राइल परफ़िलिस्तीनियों की नस्लकुशी का इल्ज़ाम लगाते हुए अदालत से उसे मुजरिम ठहराने और इस नस्लकुशी को फ़ौरनरोकने की माँग की है। दुनिया भर के अख़बारों, टीवी चैनलों या दूसरे जनसंचार माध्यमों पर इसी से जुड़ी खबरें औरबहसें चल रही हैं। लेकिन भारत एक दूसरे ग्रह का देश मालूम पड़ता है। किसी को भी, जो भारत का नहीं है, यहदेखकर हैरानी हो सकती है कि दीन दुनिया से कटा हुआ पूरा देश राम मंदिरग्रस्त है। भारत की सरकार, उसकेमीडिया, उसके लोगों के पास अयोध्या के राम मंदिर के अलावा और कोई विषय नहीं है।
भारत के बहुत बाद नस्लभेद से आज़ाद हुए मुल्क दक्षिण अफ़्रीका को फ़िलिस्तीनियों की जान बचाने की फ़िक्र है। नामीबिया, ब्राजील जैसे कई दूसरे देश भी उसके इस प्रयास में शामिल हैं। लेकिन दुनिया का नेतृत्व करने की खामख़याली पालने वाले भारत को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वह मंदिर में व्यस्त है। इससे भारत की घोरआत्मग्रस्तता का पता चलता है। अभी दक्षिण अफ़्रीका दक्षिणी दुनिया का अगुवा है, इसमें कोई शक नहीं। भारत उन देशों में शामिल नहीं है, जो दक्षिण अफ़्रीका की इस पहल के साथ हैं। भारत इस वक़्त इज़राइल के साथ खड़ा दिखलाई पड़ रहा है। या तो उसकी इच्छा नहीं है,या उसे मालूम है कि उसके कहने पर भी इज़राइल अपना क़त्लेआम नहीं रोकेगा। दुनिया को नैतिक दिशा देने की क्षमता भारत में नहीं रह गई है। वह कमज़ोरों, संघर्षरत लोगों के साथ खड़ा नहीं दीखता, ताकतवर देशों की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर ख़ुद ताकतवर होने का भरम पालता है।
राजनीति नैतिक नेतृत्व भी दे पाए, यह बहुत कम होता है। उसे नैतिकता से परे माना जाता रहा है। इसीलिए गाँधी या नेहरू अपवाद हैं। प्रायः मानते हैं कि धर्म से हमें नैतिक जीवन का पैमाना मिलता है। उदाहरण के लिए ईसाई बहुलदेश अमेरिका और इंग्लैंड, फ़्रांस या जर्मनी भले इज़राइल के साथ हों, ईसाइयों के नेता पोप फ़्रांसिस ने इज़राइलकी हिंसा की आलोचना की है और यह कहा है कि वह जो कर रहा है, वह दहशतगर्दी है।ऐसा करके वे सरकारों केख़िलाफ़ अपनी ईसाई जनता को नैतिक दिशा देने का अपना फर्ज निभा रहे हैं। उनकी आवाज़ राजनीति के आगेचलनेवाली मशाल है।
हिंदुओं की बहुलता वाले देश भारत की सरकार भी इन देशों की तरह ही हिंसा के साथ है। लेकिन हिंदुओं के धर्माचार्य इसके बारे में क्या सोचते हैं? वे इसके बारे में हिंदुओं को क्या कह रहे हैं? क्या उन्होंने इस हिंसा पर कुछ कहा भी है, या क्या यह उनकी चिंता में कहीं शामिल भी है?
हम कई अवसरों पर पोप को सामाजिक महत्त्व के वैसे विषयों पर बोलते हुए सुनते हैं जिन्हें लेकर समाज में दिमाग़ीजकड़न बनी रहती है।समलैंगिकता का प्रश्न हो, पर्यावरण का सवाल हो, नस्लभेद की मानसिकता हो यामुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का सवाल हो, या हिंसा की समस्या हो, पोप बोलते हैं।सद्भाव, समानता, अहिंसा, न्याय के पक्ष में प्रायः पोप को बोलते सुना गया है।ज़रूरी नहीं कि हर बात में उनसे सहमति हो लेकिन वे यह कहकरइन विषयों से कन्नी नहीं काटते कि ये सांसारिक विषय हैं, इसपर वे क्यों बोलें! वे इन सवालों से जूझते हैं।
भारत के बहुसंख्यक समाज, यानी हिंदुओं के धार्मिक नेता कभी इन सवालों पर नहीं बोलते। वे अपने समाज में ग़ैरबराबरी, नाइंसाफ़ी, नफ़रत के ख़िलाफ़ कभी भी हिंदुओं को कोई संदेश नहीं देते। बल्कि वे प्रायः इन सारे सवालों पर प्रतिक्रियावादी रवैया ही अपनाते हैं।
इसके साथ एक सवाल यह भी है कि आख़िर हिंदुओं के धर्माचार्य कौन हैं? क्या रामदेव या श्री श्री रविशंकर या नरसिंहानंद या बागेश्वर के बाबा?उनके बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। उनमें आपस में दुर्मुखता की प्रतियोगिता चलती रहती है। उनके ‘प्रवचनों’ से किसी की आध्यात्मिक उन्नति की आशा करना दुराशा है, पतन अवश्य हो सकता है। छल या असत्य के उल्लेख की अलग से आवश्यकता नहीं।
मेरे मन में ये प्रश्न इसलिए उठ रहे हैं कि आज शंकराचार्य रोज़ बोल रहे हैं। वे उस समय बोल रहे हैं जब फ़िलिस्तीनियों का जनसंहार चल रहा है। लेकिन वे किस विषय पर बोल रहे हैं? वे 22 जनवरी को अयोध्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या विश्व हिंदू परिषद वाले अधूरे राम मंदिर में राम की मूर्ति स्थापित किए जाने के समारोह के निमंत्रण को अस्वीकार करते हुए बयान दे रहे हैं। लेकिन उनकी बात भाजपा के सरकारी खर्चे पर हो नेवाले प्रचार के शोर में दब गई है।
बहुत सारे लोग शंकराचार्यों के स्टैंड से काफी उत्तेजित हैं। उनका तर्क यह है कि अगर शंकराचार्य राम मंदिर के उद्घाटन या मूर्ति स्थापना को शास्त्र विरुद्ध बतला रहे हैं तो फिर 22 तारीख़ को भाजपा जो भी कर रही है, वह विधि विरुद्ध है। उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन तब हिंदू जनता इन शंकराचार्यों की बात पर ध्यान क्यों नहीं दे रही?
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इसका कारण यह है कि कभी भी इन्होंने कोई मानवीय नैतिक स्टैंड नहीं लिया है। कभी भी नैतिक संकट के क्षण में इन्होंने सांसारिक सत्ताओं से अलग समाज को दिशा देने का साहस नहीं किया है।
ये धर्माचार्य किसी भी लिहाज से हिंदू समाज के नैतिक पहरेदार या नेता नहीं हैं। पिछले 10 साल में हमने एक बार भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ की जा रही हिंसा या उनके ख़िलाफ़ घृणा प्रचार की निंदा करते हुए इनके मुँह से कुछ नहीं सुना। मणिपुर में कोई 9 महीने से हिंसा हो रही है, हमारे धर्माचार्य चुप हैं। दहेज के कारण हत्या, कन्याभ्रूण हत्या पर शायद ही इन्होंने अपने समाज को कुछ कहा है। जब इन्हें अपने समाज के नैतिक क्षरण की चिंता ही नहीं रही हैऔर कभी भी इन्होंने समाज को नैतिक दिशा देने का प्रयास नहीं किया तो इनके होने न होने से समाज को क्यों फ़र्क पड़े? क्या यही कारण नहीं है कि भाजपा के राम मंदिर वाले आयोजन के आमंत्रण को इनके द्वारा ठुकरा दिए जाने पर हिंदू समाज के मन में कोई हलचल नहीं है?
इस निर्माणाधीन राम मंदिर के उद्घाटन का बहिष्कार अगर वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद के ध्वंस का विरोध नहीं किया था तो उनके विरोध का कोई नैतिक आधार नहीं है। क्या शंकराचार्यों ने 1949 में क़ब्ज़े के मक़सद से मस्जिद में मूर्तियों के चोरी से रखे जाने और फिर मस्जिद ढाहे जाने का समर्थन नहीं किया? क्या उन्होंने ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ नारे का समर्थन नहीं किया?